संपादकीय

अमेरिका रिपोर्ट में भारत के खिलाफ जहर क्यों उगला?

Shera Rajput

अमेरिका आए दिन पूरे विश्व पर अपनी दादागिरी झाड़ता रहता है उसी तरह से वह भारत पर भी अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। अमेरिका इस बात को नहीं समझता कि भारत इजराइल की भांति उसका पिट्ठू नहीं है, बल्कि स्वाभिमान से परिपूर्ण एक विशाल देश है, जहां अमेरिका से पांच गुणा अधिक आबादी निवास करती है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की कथित गिरावट को लेकर अमेरिकी सरकार के आयोग ने रिपोर्ट जारी है, जिसमें वरिष्ठ नीति ने लिखा है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थलों पर हिंसक हमले होते हैं। धार्मिक अशांति फैलाने के लिए गलत जानकारी दी जाती है। इसके अलावा सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि रिपोर्ट में मुस्लिम, वक्फ संशोधन बिल, गौहत्या विरोधी कानून आदि की बात की गई है। इन सब के चलते आयोग ने देश को धार्मिक भेदभाव वाले देशों की लिस्ट में नामित करने का आग्रह किया है जो एक बचकाना हरकत है। अमेरिका की संस्था "यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम" ने इस रिपोर्ट में भारत को लेकर कहा गया है कि यहां पर धार्मिक आधार पर भेदभाव किया जाता है। मुस्लिमों पर अत्याचार होते हैं और हिंदू राष्ट्र बनाने पर जोर रहता है। यह पहली बार नहीं है जब धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर अमेरिका की तरफ से भारत को ऐसा ज्ञान दिया गया हो। पहले भी उसकी अलग-अलग संस्थाएं ऐसे आरोप लगाती रही हैं। हालांकि पूरी दुनिया को धार्मिक आजादी का सर्टिफिकेट बांट रहे अमेरिका में ही धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। खास बात ये है कि सवाल खड़े करने वाली ये एजेंसियां भी अमेरिकी ही हैं। भारत के आंतरिक मुद्दों पर टिप्पणी करने वाले अमेरिका को यहां के मुसलमानों की चिंता करने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। वास्तव में अमेरिका कभी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखता कि उसने मुसलमानों और अपने देश के अश्वेतों पर कितने अत्याचार किए हैं। विश्व के अनेक ह्यूमन राइट्स संस्थानों ने आज से नहीं, बल्कि 1948 से ही अमेरिका की मुखालिफत की है कि उसने जिस प्रकार से इजराइल द्वारा फिलिस्तीन के ऊपर लगातार हमलों से हजारों बेगुनाह लोगों काे बर्बाद किया है और कब्जे की कोशिश की है, बल्कि कब्ज़ा कर लिया है, वह अमानवीय है। मगर अमेरिका हाथी है और किसी को खातिर में नहीं लाता। उसने इजराइल के साथ मिल कर सीरिया, इराक़, लेबनान, जॉर्डन, मिस्र आदि देशों पर हमले कर हज़ारों जानें ली हैं। आज अमेरिका इजराइल के साथ मिलकर ईरान को तबाह करके वहां भी इराक और अफगानिस्तान की तरह अपनी ग़ुलाम सरकार बनाना चाहता है। अपने देश के अश्वेतों पर जितना अत्याचार अमेरिका ने किया है, किसी अन्य देश और यहां तक की ब्रिटेन तक ने नहीं किया है। इसका जीता-जागता प्रमाण हमें मार्टिन लूथर किंग, रोज़ा पार्क्स मुहम्मद अली क्ले आदि की गाथाओं में मिल जाता है। मुहम्मद अली क्ले ने जब 1960 रोम ओलंपिक्स के स्वर्ण पदक जीतने और विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप के बाद इस्लाम धर्म अपना लिया था तो उन्हें मात्र धर्म परिवर्तन के आधार पर वियतनाम में जंग लड़ने के लिए भेज दिया गया था। जब उन्होंने बेगुनाह लोगों पर गोलियां चलने से इन्कार कर दिया तो उनकी चैंपियनशिप छीन ली गई और उन्हें जेल में डाल दिया गया। किस प्रकार से अश्वेत नागरिक, जॉर्ज फ्लॉयड को एक श्वेत पुलिस वाली ने अपने घुटनों के तले दबा कर उसका गला घोट उसकी हत्या कर दी, दुनिया ने देखा है। सच्चाई तो यह है कि काले तो क्या, अपने सभी नागरिकों के साथ अमेरिका ने जुल्म किया है। अमेरिका में अाए दिन आंदोलन होते रहते हैं। 1955-1968 में एक लंबी अवधि का आंदोलन प्रमुख नागरिक प्रतिरोध के अभियानों द्वारा चिह्नित हुआ जिसके दौरान अहिंसात्मक विरोध और नागरिक अवज्ञा के अधिनियम ने कार्यकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों के बीच संकट की स्थिति उत्पन्न की। संघ, राज्य और स्थानीय सरकार, व्यापार और समुदायों को संकट की स्थितियों में अक्सर त्वरित प्रतिक्रिया करनी पड़ती थी जिसने अफ्रीकी अमेरिकियों द्वारा सही जा रही विषमताओं को उजागर किया। विरोध के तरीकों और या नागरिक अवज्ञा में शामिल था बहिष्कार, जैसे अलाबामा में सफलता प्राप्त मोंटगोमरी बस बॉयकॉट (1955-1956); "सिट्स-इन" जैसे कि उत्तरी कैरोलिना में प्रभावशाली ग्रींसबोरो सिट-इन्स (1960); जुलूस जैसे कि अल्बामा में सेल्मा से मांटगोमेरी के लिए मार्च (1965) और अन्य अहिंसक गतिविधियों की एक विस्तृत शृंखला मौजूद है। मिस्टर बाइडेन, भारतीय मुसलमान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सान्निध्य और स्नेह से प्रेरित हो संतुष्ट और प्रसन्न हैं। हिंदुस्तानी मुसलमानों की फ़िक्र मोदी के लिए छोड़ दें। आप अपने पिट्ठू इजराइल के साथ मिलकर जिस प्रकार 50000 से अधिक बेगुनाह मुसलमानों का ख़ून कर चुके हो, उसके लिए शर्म करो और अपने प्रभु से माफ़ी मांगिए।

– फ़िरोज़ बख्त अहमद