संपादकीय

जातिगत जन-गणना अब क्यों जरूरी

Shera Rajput

भारत में जातिगत जनगणना का सीधा सम्बन्ध भारतीय समाज की संरचना से है जो सीधे जन्मगत ऊंच- नीच की ग्रन्थि से जुड़ा हुआ है। भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज अपनी धार्मिक रूढि़यों और परंपराओं के चलते जाति बहुल समाज है जिसमें धार्मिक स्तर पर सामाजिक असमानता को जाति आधारित मान्यता प्रदान की गई है। हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था जातिगत प्रणाली को विस्तार देती है। पूरी दुनिया में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही एेसा क्षेत्र है जहां मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान उसकी जाति को देख कर भी की जाती है। जहां तक आर्थिक असमानता का सवाल है तो यह विश्वव्यापी समस्या है मगर भारत के सन्दर्भ में आर्थिक असमानता भी जातियों से जाकर जुड़ जाती है और कथित नीची जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति के शैक्षिक व आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाने के बावजूद सामाजिक भेदभाव उसका पीछा नहीं छोड़ता है। क्या इस गैर बराबरी को जातिगत जनगणना करा कर मिटाया जा सकता है?
जातिगत जनगणना को सामाजिक न्याय से लोकतन्त्र में यदि नहीं बांधा जायेगा तो समाज बनेगा वह सदियों से कथित नीची जातियों पर हो रहे अत्याचार को बदस्तूर जारी रखेगा। भारत में विकट स्थिति यह है कि इसके समाज में पेशे या काम के आधार पर भी जातियों की उत्पत्ति हुई है। जिसकी वजह से कुछ कथित ऊंची जातियों के लोग कथित नीची जातियों के लोगों का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। यह शोषण केवल आर्थिक नहीं है बल्कि चौतरफा है। इसके लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की जीवन कथा पढ़ लेना ही काफी है। मगर सामाजिक न्याय का कार्य केवल कथित ऊंची जातियों के प्रति घृणा फैला कर नहीं किया जा सकता बल्कि लोकतान्त्रिक भारत में हिन्दू व भारतीय समाज में खुद को ऊंची जाति का मानने वाले लोगों को सामाजिक बुनावट का आइना दिखा कर ही किया जा सकता है।
कांग्रेस के लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी का यह कहना कि वह जातिगत जनगणना कराने की मांग तब तक करते रहेंगे जब तक कि इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल जाती चाहे इसके लिए उन्हें कितना भी नुकसान उठाना पड़े राजनीति के बदलते तेवरों की झलक है। इसके विपरीत यह तर्क दिया जाता है कि जातिगत जनगणना करा कर हम भारत में जातिवाद की जड़ें और गहरी करेंगे पूरी तरह असंगत है क्योंकि हिन्दू समाज की जाति संरचना का असर भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य धर्मों पर भी पड़ा है। उदाहरण के तौर पर इस्लाम धर्म पर भी जातिगत संरचना का असर देखा जा सकता है जिसमें शेख, सैयदों के अलावा अन्य बहुत सी जातियां हैं जिन्हें पसमान्दा मुसलमान के नाम से जानते हैं। इनमें बहुसंख्य मुसलमान वे हैं जो छोटा-मोटा धंधा या फनकारी करके अपना जीवन गुजारते हैं।
1857 के प्रथम स्वतन्त्रता समर के बाद मुस्लिम समाज के शिक्षाविद माने जाने वाले सर सैयद अहमद खां ने इन्हीं पसमान्दा मुसलमानों को 'कमजात' तक कहा था और इनके लिए उच्च अंग्रेजी शिक्षा को वर्जित बताया था। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के सन्दर्भ में लिखी अपनी पुस्तक 'असबाबे बगावते हिन्द' में सर सैयद ने अंग्रेजी राज की पैरवी करते हुए लिखा है कि 1857 में अशराफिया मुसलमानों ने अंग्रेजों से विद्रोह नहीं किया बल्कि 'कमजात' मुस्लिमों ने उनके खिलाफ हुई बगावत में भाग लिया। सर सैयद इन कथित कमजात लोगों के लिए रवायती मदरसों की इस्लामी शिक्षा ही होनी चाहिए वर्ना एक दर्जी का बेटा भी जिला कलेक्टर बनकर सामाजिक व्यवस्था को गड़बड़ा देगा। अतः मुस्लिम समाज में भी जाति व्यवस्था प्रवेश कर गई और हिन्दू समाज की भांति पेशे या काम से जुड़ गई। इसे देखते हुए जिस जातिगत जनगणना की बात 21वीं सदी के शुरू से ही भारत में हो रही है वह बहुत महत्वपूर्ण मसला है। तर्क यह भी दिया जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में जातिगत जनगणना भारतीय समाज को आपस में बांटने की गरज से कराई जाती थी।
बेशक अंग्रेज भारतीयों को हिन्दू-मुसलमानों व जातियों में बांट कर अपना राज मजबूत बनाना चाहते थे मगर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने हिन्दू समाज के दलितों के लिए शिक्षा के द्वार भी खोले थे और हिन्दू समाज की कई कुरीतियों पर प्रतिबन्ध भी लगाये थे। मगर अब हम 21वीं सदी में उस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हमे देकर गये हैं। 1947 में ही संविधान में हमने अनुसूचित जातियों व जन जातियों के लोगों के लिए राजनैतिक आरक्षण की व्यवस्था कर दी। यह कदम दलितों को सामाजिक स्तर पर बराबरी देने के लिए था जिससे सत्ता में उनकी भागीदारी उनकी जनसंख्या के अनुसार हो। परन्तु भारतीय समाज में अन्य पिछड़े वर्गों की स्थिति भी बहुत ज्यादा बेहतर नहीं थी। अतः 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से राजनैतिक परिवर्तन आना शुरू हुआ और कथित तौर पर 'गंवार' कही जाने वाली जातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे देश की राजनीति विशेषकर उत्तर भारत की राजनीति पर गुणात्मक प्रभाव पड़ा। ये सभी पिछड़ी कथित गंवार कही जाने वाली जातियां शैक्षिक व सामाजिक रूप से बहुत दयनीय हालत में थीं।
अतः उच्च शिक्षा में भी मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान इन्हें शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने की व्यवस्था तत्कालीन मानव विकास मन्त्री स्व. अर्जुन सिंह ने दी। अतः कहीं न कहीं मोटे तौर पर हमने यह सिद्धान्त स्वीकार किया कि जिस वर्ग की जितनी संख्या है उसकी भागीदारी भी उसी अनुपात में होनी चाहिए। मनमोहन सरकार के दूसरे कार्यकाल में पूरे देश में 2011 में जातिगत जनगणना का कार्य शुरू कराया गया। उस समय मुझे भली भांति याद है कि लोकसभा में सरकार से यह मांग मनवाने के लिए स्व. शरद यादव व लालू प्रसाद यादव समेत मुलायम सिंह यादव ने हंगामा मचा दिया था और सरकार को उनकी बात माननी पड़ी थी। इससे पूर्व 1931 में ही अंग्रेजी राज में जातिगत जनगणना हुई थी। मगर इसके दस वर्ष बाद द्वितीय विश्व युद्ध का नगाड़ा बज जाने से यह काम बीच में ही अपूर्ण रहा। मगर 2011 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं हो पाये और 2014 में चुनाव हो गये जिसमें मानमोहन सरकार पलट गई।
2021 में जनगणना कोरोना महामारी के चलते मुल्तवी हो गई। मगर इससे बहुत पहले सत्तर के दशक में किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह ने ग्रामीण मूलक समाज की सभी जातियों को जोड़ कर राजनीति की रंगत पलटने की ताकत पा ली थी। मगर 1975 में इमरजेंसी लग गई और 1977 में इसके हटने के बाद उनकी पार्टी लोकदल का जनता पार्टी में विलय हो गया जिसमें भारतीय जनसंघ भी शामिल थी। 1980 में पुनः स्व. इन्दिरा गांधी के हाथ में देश की बागडोर आ गई जिसकी वजह से राजनीति के तेवर फिर से बदल गये।
अब 2024 चल रहा है और पिछले दिनों हुए लोकसभा चुनावों के बाद से देश का राजनैतिक विमर्श पुनः बदल रहा है जिसमें जातिगत जनगणना की मांग ने विशिष्ट आयाम ले रखा है। वर्तमान मोदी सरकार ने पिछड़ों के कल्याण के ​िलए एक संसदीय समिति का गठन भी किया हुआ है जिसमें विपक्ष के सांसद यह मांग कर रहे हैं कि अब जो भी जनगणना हो वह जातिगत जनगणना हो। इस समिति में विपक्ष के जो भी सांसद हैं वे मांग कर रहे हैं कि जातिगत गिनती कराई जानी चाहिए जिससे जिस वर्ग की जितनी हिस्सेदारी है उसकी सत्ता में भी उतनी ही भागीदारी होनी चाहिए। इस समिति के अध्यक्ष भाजपा सांसद श्री गणेश सिंह हैं। दरअसल मौजूदा विपक्ष का पूरा राजनैतिक विमर्श इसी मांग के चारों तरफ बुना जा रहा है और राहुल गांधी ने इसकी कमान संभाल रखी है। अब हमें यह सोचना होगा कि आज का भारत बहुत बदल चुका है और पिछड़े वर्ग के समाज की अपेक्षाएं भी बदल चुकी हैं अतः जातिगत समाज के आधार पर सत्ता में भागीदारी की आकांक्षा भी बढ़ रही है। यह आकांक्षा संविधान में दिये गये बराबरी के हक का प्रतिनिधित्व ही करती है।

– राकेश कपूर