संपादकीय

नाटो की जरूरत क्यों है ?

Aditya Chopra
 रूस- यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध मोर्चे से जो सबसे नवीनतम समाचार मिला है वह यह है कि रूस ने दूसरे निकटवर्ती देश 'बेलारूस'  में अपना एक प्रतिनिधिमंडल भेज कर यूक्रेन से वर्तमान संघर्ष पर बातचीत की पेश की है जिसे यूक्रेन ने यह कह कर ठुकरा दिया है कि वह बेलारूस के अलावा अन्य मान्य कथित निष्पक्ष या तटस्थ समझे जाने वाले देशों में ही वार्ता के लिए तैयार हो सकता है। मगर बाद में वह वार्ता के लिए तैयार हो गया है, जिसे एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए। इसका आशय यह निकलता है कि रूस यूक्रेन की उस जिद को अपनी सैनिक कार्रवाई से तोड़ कर उसे वार्ता की मेज पर लाना चाहता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है। उधर यूक्रेन के राष्ट्रपति श्री लेजेन्वस्की ने भी भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को फोन करके रूस को समझाने की गुजारिश की है। इसकी वजह यही लगती है कि भारत ने राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद में उभय पक्षीय भूमिका अदा करके रूस व यूक्रेन के बीच सुलह-सफाई कराने की एक खिड़की खुली हुई रखी है। 
भारत के रूस व यूक्रेन दोनों से ही अच्छे सम्बन्ध हैं मगर रूस उसका परखा हुआ और हर समय की कसौटी पर खरा उतरा हुआ पक्का और सच्चा मित्र है अतः यूक्रेन के राष्ट्रपति को लगता है कि श्री मोदी रूस के सख्त रुख को नरम बना सकने में सक्षम हो सकते हैं। परन्तु इतिहास का सच यह है कि युद्ध केवल विनाश लेकर ही आता है अतः अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस व यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को टाला जाना चाहिए। यह काम वैश्विक स्तर पर तभी हो सकता है जब अमेरिका समेत पश्चिमी यूरोपीय देश संघर्षरत देशों में से किसी एक को भी उकसाने के काम न करें। पूरे मामले में रूस का पक्ष यह है कि यूक्रेन को नाटो सन्धि संगठन का सदस्य नहीं बनना चाहिए। जबकि यूक्रेन का कहना है कि वह एख स्वतन्त्र और संप्रभु राष्ट्र है, अतः उसे अपनी रक्षा व विदेश नीति तय करने का पूरा अधिकार है। सैद्धान्तिक रूप से इसका विरोध संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई भी सदस्य देश नहीं कर सकता मगर दुनिया केवल आदर्श सिद्धान्तों से ही अगर चलती होती तो कभी कोई विवाद या झगड़ा ही नहीं होता। 
हकीकत यह है कि दुनिया की चलने की व्यावहारिक जरूरतें सिद्धान्तों से ऊपर वस्तुपरक घटनाओं (रियलिज्म) से संचालित होती हैं। अतः रूस को भी अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के सन्दर्भ में अपने चारों ओर के माहौल को शान्तिपूर्ण बनाये रखने का पूरा हक है। वह यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उसकी सीमाओं के चारों तरफ नाटो देशों की सामरिक शक्ति का घेरा बना रहे और वह लगातार असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहे। इस मामले में नाटो संगठन की वर्तमान दौर की विश्व राजनीति में समीक्षा किये जाने की सख्त जरूरत है। इस संगठन को अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी यूरोपीय देशों ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित विभिन्न देशों की संयुक्त ताकत को ललकारने की गरज से बनाया था। क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 के लगभग जब राष्ट्रसंघ का गठन किया गया था तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन का दबदबा खत्म हो गया था और उसके स्थान पर अमेरिका विश्व शक्ति बन कर उभरा था औऱ दूसरी तरफ सोवियत संघ उसके मुकाबले अपनी समाजवादी विचारधारा के साथ महाशक्ति बन चुका था। द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका व सोवियत संघ एक साथ ही जर्मनी व जापान आदि देशों के विरुद्ध लड़े थे। जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान भी सोवियत संघ का ही हुआ था परन्तु समूचे पूर्वी यूरोपीय देशों में इसकी साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा का प्रसार इस तरह हुआ था कि इस क्षेत्र के अधिसंख्य देशों  कम्युनिस्ट शासन स्थापित हो गया था। अतः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद व फ्रांसीसी उपनिवेशवाद से एशियाई व दक्षिणी अमेरिकी देश मुक्ति पाते गये उन पर प्रायः सोवियत संघ का प्रभाव भी बढ़ता गया। परन्तु पश्चिमी देशों ने 1949 में पूरी दुनिया में अपनी धाक कायम रखने की गरज से आपसी सामरिक सुरक्षा सन्धि की जिसे 'नार्थ एटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन' (नाटो) कहा गया। शुरू में इनकी संख्या मात्र 12 ही थी जो अब बढ़ कर 30 के लगभग हो चुकी है और इसमें पूर्वी व मध्य यूरोप के भी कई देश शामिल हो चुके हैं। 
नाटो के जवाब में 1955  में पोलैंड के 'वारसा' शहर में पूर्वी यूरोपीय देशों जैसे पोलैंड, बुल्गारिया, रोमानिया, युगोस्लाविया आदि ने सोवियत संघ के नेतृत्व में सामरिक सुरक्षा सन्धि करके नाटो का जवाबी संगठन तब खड़ा किया जब पश्चिमी जर्मनी को इसी वर्ष नाटो का सदस्य बना लिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत फौजों ने जर्मनी को दो भागों पूर्व व पश्चिमी जर्मनी में विभक्त करके पूर्वी जर्मनी में समाजवादी सरकार का वर्चस्व स्थापित कर दिया था। परन्तु जब 1988 में पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी के बीच की दीवार गिरा कर संयुक्त जर्मनी गठित हो गया तो वारसा सन्धि समाप्त हो गई। इसके बाद 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और यह 15 देशों मे बिखर गया। अतः बहुत ही सामान्य सा सवाल उठता है कि इन बदली हुई परिस्थितियों में 'नाटो' सामरिक सन्धि की क्या जरूरत है और इनकी उपयोगिता क्या है? अतः अमेरिका के निक्सन प्रशासन के दौरान विदेश मन्त्री रहे दुनिया के माने हुए कूटनीतिज्ञ 'श्री हेनरी किसंजर'  ने अमेरिका के एक अखबार में लेख लिख कर यह सुझाया है कि यूक्रेन को नाटो की जगह यूराेपीय संघ जैसे संगठन का सदस्य बनना चाहिए जिससे क्षेत्रीय शान्ति पर असर न पड़े। परन्तु नाटो संगठन के देश लगातार ऐसी हरकतें कर रहे हैं जिससे बचे- खुचे रूस को लगातार दबाव में रखा जा सके। लेकिन इससे यह सन्देश स्पष्ट जा रहा है कि यदि यूक्रेन के मसले को जल्दी ठंडा नहीं किया जाता है तो यूक्रेन में शुरू हुआ युद्ध तीसरे विश्व युद्ध में बदलने जैसे हालात पर पहुंच सकता है अतः राष्ट्रसंघ को एेसी तरकीब निकालनी चाहिए जिससे सामरिक सन्धि वाले नाटो देशों में शान्ति स्थापित करने की भावना बलवती हो सके, जाहिर है कि नाटो के पीछे अमेरिका की ही ताकत मुख्य है। बेलारूस में दोनों देशों में जो वार्ता होगी वह शांति स्थापना के हित में ही होनी चाहिए।