1874 में सैंट पीटर्सबर्ग (रूस) में जन्मे और 1947 में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले के नग्गर अपने आवास पर समाधिस्थ हुए रूसी चित्रकार, दार्शनिक, कवि, पुरात्ववेत्ता, सम्मोहनकर्ता निकोलस रेरिख के जन्म के 150वें वर्ष में दुनियाभर में, विशेषकर भारत में रूसी दूतावास, भारत सरकार, भारत के सांस्कृतिक केंद्रों व विश्वविद्यालयों में अनेक आयोजन किए जा रहे हैं। पर नई पीढ़ी के लोगों को शायद उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं है। केवल उन लोगों को छोड़कर जो पर्यटक के रूप में कुल्लू गये हैं या साहित्य और कला में रुचि रखते हैं।
मुझे भी इस महान व्यक्तित्व के विषय में कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी जब तक मैंने कुल्लू में उनके आवास पर बने संग्रहालय को नहीं देखा था। जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। जबकि मेरी इस अज्ञानता को क्षमा नहीं किया जा सकता क्योंकि मेरी पत्नी प्रोफेसर मीता नारायण रूसी भाषा की ख्याति प्राप्त विद्वान हैं और गत चालीस वर्षों से जेएनयू में व साथ ही दर्जनों देशों के विश्वविद्यालयों में रूसी भाषा के अल्पकालीन कोर्स पढ़ाती रही हैं। रूसी भाषा पर उनकी लिखी पुस्तकें उन सब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। पर अभी हाल ही में उन्होंने भाषा विज्ञान के अपने विषय से हट कर निकोलस रेरिख की रूसी कविताओं का अंग्रेज़ी व हिन्दी अनुवाद उनके बनाये चित्रों के साथ एक आकर्षक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। तब मुझे रेरिख के विषय में पूरी जानकारी मिली। जो काफ़ी रोचक है। सोचा आपसे भी साझा करूं। वैसे बॉलीवुड में रुचि रखने वालों को शायद ये पता हो कि रेरिख के बेटे सेवेटोस्लाव रेरिख की शादी अपने समय की मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री व दादा साहिब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देविका रानी से हुई थी। वो दोनों भी नग्गर (कुल्लू) के उसी सुंदर पहाड़ी आवास में रहते थे। जहां आज उनका संग्रहालय है।
आम धारणा के विरुद्ध सभी रूसी लोग वामपंथी नहीं होते। अध्यात्म, विशेषकर भारत के आध्यात्मिक ज्ञान में उनकी गहरी रुचि होती है। इसी रुचि के कारण एक संपन्न परिवार में जन्में रेरिख रूस छोड़ कुल्लू के एक छोटे से क़स्बे में आ बसे। रेरिख को आमतौर पर उनकी अत्यंत मनभावनी व गहरी चित्रकला के लिए जाना जाता रहा है।अपनी इन पैंटिंग्स में रेरिख ने हिमालय की पर्वत शृंखला का अद्भुत चित्रण किया है। इसके साथ ही बुद्ध धर्म और वैदिक धर्म के गहरे भावों को भी इन चित्रों में देखा जा सकता है। पर उनकी कविताओं को लेकर उतनी जिज्ञासा नहीं रही जितनी चित्रों के प्रति रही है। मीता जी ने उनके चित्रों और उनकी कविताओं को आमने सामने प्रकाशित करके दोनों के बीच के अंतर संबंधों को उजागर करने का सफल प्रयास किया है। इसलिए ये पुस्तक प्रकाशित होते ही रूसियों और भारतीयों के बीच एकदम लोकप्रिय हो गयी और एक ही महीने में इसके पुनः मुद्रण की नौबत आ गयी।
निकोलस रेरिख ने रूस, यूरोप, मध्य एशिया, मंगोलिया, तिब्बत, चीन, जापान और भारत की यात्राएं कीं। 1928 से वह हिमालय के संपर्क में आए। इसके अनुपम सौंदर्य से वह इतने प्रभावित हुए कि इन्होंने अपने जीवन के बीस वर्ष कुल्लू घाटी में व्यतीत किए। 73 वर्ष के अपने जीवन काल में इन्होंने विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अपार ज्ञान प्राप्त किया लेकिन प्रमुख रूप से यह अमर चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके सम्मान में अमरीका में 1929 में 29 मंजिला विशाल भवन बनवाया गया। यहां इनकी चित्रकारियां संग्रहित हैं।
अपनी आध्यात्मिक समझ व सात्विक जीवन शैली के चलते वे महर्षि के नाम से प्रसिद्ध थे। वे हिमालय में एक इंस्टीट्यूट स्थापित करना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने राजा मण्डी से 1928 में 'हॉल एस्टेंट नग्गर' खरीदा। बचपन में अपनी प्राथमिक पेंटिंग्स में, रेरिख ने रूस की आध्यात्मिक संस्कृति को दर्शाने के लिए, अपनी मातृभूमि और अपने लोगों के इतिहास को चित्रित करने का प्रयास किया। यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद, पेरिस और बर्लिन के संग्रहालयों और प्रदर्शनियों का दौरा करने के लिए रेरिख एक वर्ष के लिए यूरोप चले गए। फ्रांस में उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार एफ. कॉर्मन से चित्रकला भी सीखी। यूरोप जाने से ठीक पहले, रूस के त्वेर प्रांत में एक पुरातात्विक शोध के दौरान, उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी येलेना से हुई, जो सेंट पीटर्सबर्ग के प्रसिद्ध वास्तुकार, इवान इवानोविच शापोशनिकोव की पुत्री थी। 1902 में, निकोलाय और येलेना रेरिख के घर में एक बेटे का जन्म हुआ, यूरी, जो आगे चलकर एक प्राच्यविद् वैज्ञानिक बने और 1904 में उनके दूसरे बेटे स्वेतोस्लाव का जन्म हुआ, जो अपने पिता की तरह एक कलाकार और एक सार्वजनिक व्यक्ति बन गया। 1903 और 1904 की गर्मियों में, ऐलेना और निकोलाई ने रूस के चालीस से अधिक प्राचीन शहरों की लंबी यात्रा की। निकोलस ने प्रकृति के कई रेखाचित्र बनाए और येलेना ने कई प्राचीन स्मारकों की तस्वीरें खींचीं।
रेरिख बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिनके हुनर, विभिन्न क्षेत्रों में देखें जा सकते हैं। वह एक विद्वान संपादक, उत्कृष्ट पुरातत्वविद्, अद्भुत कलाकार, प्रतिभाशाली सज्जाकार और सेट डिजाइनर और ग्राफिक्स के भी मास्टर थे। अपने पूरे जीवन में, रेरिख ने इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, अमेरिका, भारत आदि जैसे विभिन्न देशों और महाद्वीपों में विभिन्न प्रदर्शनियों का दौरा किया, कई हजार पेंटिंग, भित्तिचित्रों के रेखाचित्र बनाए, ओपेरा और बैले के लिए नाटकीय सेट और वेशभूषाएं बनाईं और सार्वजनिक इमारतों और चर्चों के लिए मोज़ाइक और स्मारकीय भित्ति चित्र भी बनाए।
1921 में, न्यूयॉर्क में, रेरिख ने ने मास्टर इंस्टीट्यूट ऑफ यूनाइटेड आर्ट्स की स्थापना की। उनका मानना था कि कला, ज्ञान और सौंदर्य वे महान आध्यात्मिक शक्तियां हैं जो मानवता के भविष्य को एक नई राह दिखाएंगीं। न्यूयॉर्क में, रेरिख और उनकी पत्नी ने एक अंतर्राष्ट्रीय कला केंद्र की भी स्थापना की, जहाँ विभिन्न देशों के कलाकार अपनी प्रदर्शनियां प्रस्तुत कर सकते थे। एशिया और विशेष रूप से भारत, रेरिख के दिल के बहुत करीब था। रेरिख ने मानवता को संस्कृति की एक नई परिभाषा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके लिए, संस्कृति मानव जाति के अस्तित्व का आधार है, जो लौकिक स्तर पर मानव जाति के विकास की अवधारणा से जुड़ी है। रेरिख के अनुसार, संस्कृति व्यक्ति के प्रति प्रेम है। संस्कृति जीवन और सौंदर्य का संयोजन है। केवल संस्कृति के माध्यम से ही एक व्यक्ति सुधर सकता है और अपने अस्तित्व के नए स्तर पर पहुंच सकता है।
1928 में मध्य एशिया का अपना भव्य खोज यात्रा पूरी करने के बाद, उन्होंने संपूर्ण मानवता की सांस्कृतिक संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए रेरिख संधि नामक संधि तैयार की। उन्होंने वेदों और भगवद गीता का भी अध्ययन किया और उनसे बहुत प्रभावित हुए। रेरिख का काव्य अत्यंत आध्यात्मिक और मानवतावादी है, जो अंतरतम अर्थात आत्मा के जीवन के बारे में बात करता है।
– विनीत नारायण