आखिरकार 17 दिन के कड़े संघर्ष के बाद उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यमुनोत्री-राजमार्ग पर बनाई जा रही 57 मीटर लम्बी सुरंग के बीच में फंसे 41 मजदूरों को बचा लिया गया। निश्चित रूप से इस बचाव अभियान के अन्तिम चरण में जिस तरह भारतीय सेना के जवानों ने अपना विशेषज्ञ योगदान दिया उससे यही सिद्ध हुआ कि भारत की सेना युद्ध और शान्तिकाल दोनों समय में केवल मानवों को बचाने के लिए ही कार्य करती है। बेशक मजदूरों के बचाव अभियान में कई बड़ी बाधाएं इस हकीकत के बावजूद आयीं कि विदेशों तक से विशेषज्ञों को बुलाकर उनका सहयोग लेने पर एक समय एेसा भी आ गया था जब एक आधुनिकतम पर्वतों को भेदने वाली मशीन अपना कार्य करते समय ही सुरंग के बीच एक मजबूत चट्टान से टकरा कर टूट गई थी और सर्वत्र निराशा व्याप्त होने लगी थी तभी सेना के जवानों ने आकर मोर्चा संभाला और अन्य कार्यरत बचाव एजेंसियों के साथ तालमेल बैठाकर सुरंग के ऊपर के पहाड़ाें को खोदने के लिए पुरानी व पारंपरिक तकनीक का सहारा लेकर मजदूरों की जान बचाने में सफलता हासिल की।
मगर इससे राहत व बचाव कार्य में लगी अन्य लगभग एक दर्जन केन्द्रीय व राज्य सरकार की एजेंसियों के हौसले ही बढे़ और उन्होंने दुगने उत्साह से काम किया। जब लम्बाई में सुरंग में गिरे मलबे को हटाने में नाकामयाबी मिली तो सुरंग के ऊपर से पहाड़ों को खोदने की कार्रवाई शुरू करने के बारे में भी सोचा गया परन्तु उसमें भी बहुत व्यवधान आ रहे थे और सुरंग के ऊपर मार्ग बनाकर उस स्थान तक भारी मशीनों को पहुंचाना मुश्किल हो रहा था जहां से ऊपर से नीचे की ओर खुदाई की जाये। एेसे माहौल में सेना व अन्य बचाव एजेंसियों ने पुरानी व पारंपरिक तकनीक अपनाने का फैसला किया जिसे 'रैट होल माइनिंग' कहा जाता है। इसके तहत छोटे-छोटे छेद काटकर पूरे बड़े हिस्से को ढहा दिया जाता है। ऊपर से पहाड़ काटकर नीचे जाने पर सुरंग में मलबा गिर जाने की आशंका रहती है जिससे मजदूरों को नुकसान पहुंच सकता था। मजदूरों को बचाने का जो अभियान सफल हुआ है उसके दो नतीजे हम निकाल सकते हैं। एक तो भारत के श्रमिकों की हिम्मत का कोई सानी नहीं है और दूसरे हमारे सैनिकों के हौसले का कोई मुकाबला नहीं है। इसके साथ ही जितनी भी आपदा प्रबन्धन एजेंसियां हैं उनके पास संसाधनों की अब कोई कमी नहीं है। क्योंकि हमने उत्तरकाशी के यमुनोत्री राजमार्ग में हुए सुरंग हादसे में देखा कि मौके पर किस तरह एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनें मुहैया रहीं।
आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में हम मुस्तैद हो रहे हैं मगर इसके साथ यह भी सत्य है कि हिमालय पर्वत के विभिन्न अंचलों में चल रहे विकास कार्यों के प्रति हम लापरवाही भी बरत रहे हैं। पर्यावरण व पारिस्थितिकी विशेषज्ञ अब बता रहे हैं कि सुरंग बनाने से पहले इस क्षेत्र के आसपास के वातावरण का वैज्ञानिक विश्लेषण कायदे से नहीं किया गया। वास्तव में विकास की अभिलाषा में हमें हिमालय के प्राकृतिक स्वरूप का ध्यान भी रखना चाहिए जिससे हमारा विकास स्थायी हो सके और हम अपने पर्वतीय क्षेत्रों की सुरक्षा करने में भी सक्षम हो सकें। हिमालय के पहाड़ सबसे युवा और कच्चे माने जाते हैं जो अभी भी सृजन के चक्र में माने जाते हैं। अतः इन सब तथ्यों को देखकर ही हमें अपनी विकास योजनाएं बनानी चाहिए।
हाल ही में जिस तरह जोशीमठ में दरारें पड़ने और इसके नीचे धंसने की घटनाएं हुई थीं उनसे हमें सबक सीखने की सख्त जरूरत है। परन्तु सुरंग में फंसे 41 मजदूरों की अगर हम क्षेत्रीय विभिन्नता को देखें तो एेसा लगता है जैसे 'मिनी भारत' इसके निर्माण में लगा हुआ था। इनमें 15 मजदूर झारखंड से, आठ उत्तर प्रदेश से, ओडिशा और बिहार से पांच-पांच, प. बंगाल से तीन, उत्तराखंड व असम से दो-दो और हिमाचल से एक। ये सभी 41 मजदूर विगत 12 नवम्बर को रात्रि पारी में काम कर रहे थे जब ऊपर से मलबा गिरने से यह बन्द हो गई। उस स्थिति में मजदूरों ने जिस हिम्मत से काम पूरे 17 दिन तक लिया वह उन्हीं के बस की बात थी।
बड़े-बड़े शहरों में एशो-इशरत व आराम की जिन्दगी जी रहे शहरी तो इसकी कल्पना करने मात्र से ही उखड़ जायेंगे। मगर भारत के आठ राज्यों के ये मजदूर हिम्मत से मुसीबत का सामना करते रहे और एक-दूसरे को ढांढस बंधाते रहे। ये सभी आठों राज्य भारत के अपेक्षाकृत पिछड़े राज्य माने जाते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो भारत पिछड़ा हुआ है वह हिम्मत के मामले में सबसे आगे हैं। इसलिए भारत का भविष्य उज्जवल है क्योंकि भारत से ही पिछली सदियों में हजारों श्रमिकों ने दुनिया के कई भागों में जाकर वहां के कई देशों का नव निर्माण किया है। ये सभी देश आज तरक्की कर रहे हैं। इनमें फिजी, मारीशस व गुयाना से लेकर त्रिनिदाद व टोबैगो तक शामिल हंै।
मजदूरों के बचाव कार्य का संचालन करने में उत्तराखंड के मुख्यमन्त्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने जिस प्रकार की तत्परता दिखाई है उसकी बेबाकी के साथ प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्होंने ही मजदूरों के बचाव के बाद उनकी देखभाल का काम स्वयं अपने निरीक्षण में किया और इस काम के लिए पूरे सरकारी अमले को दो टांग पर खड़ा रखा। लोकतन्त्र में मुख्यमन्त्री लोगों का पहला नौकर और सेवादार होता है। इसकी मिसाल भी उन्होंने पेश की। अंत में यही कहा जा सकता है कि भारत के श्रमिक और सैनिक जब मिलकर कोई काम करने का बीड़ा उठा लेते हैं तो सफलता पूरे समाज के चरण चूमने लगती है। सैनिक इंसान की हिफाजत करते हैं और श्रमिक इंसान के लिए पहाड़ खोदकर भी रास्ता बनाते हैं। मगर तक्नीशियन मानवता के हित में आगे नवोचार करते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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