संपादकीय

दुनिया का सबसे महंगा चुनाव

Shera Rajput

यह बातें बहुत पुरानी भी नहीं हैं। तब राजनैतिक दलों की भाषा, घोषणापत्र, राजनीतिज्ञों के भाषण और ढेरों नीति-विषयक बातों के मसविदे तैयार करने वालों में हिंदी-कवि श्रीकांत वर्मा, जनार्दन द्विवेदी, गोविन्दाचार्य, मधु लिमये, एचवी कामथ, नाथपाई जैसे बुद्धिजीवी, राजनैतिक दलों की चाल, चरित्र और चेहरा तैयार करते थे। डॉ. लोहिया, हरकिशन सुरजीत, अन्ना दुराई, बीजू पटनायक, केसी पंत, नंदिनी सत्पथी, चंद्रशेखर सरीखे लोग वैचारिक धरातल पर देश की भावी राजनीति की बारीकियां तय करते थे।
मगर अब जो भी मसविदे तैयार होते हैं, एआई अर्थात 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता और 'गूगल' या फिर आक्रामक तेवर पहनाने वाले किराए पर लिए गए कथित बुद्धिजीवियों द्वारा तैयार किए जाते हैं। इनमें अक्सर मानवीय संवेदना, कला, संस्कृति या अदब का कोई 'इनपुट' नहीं होता। यह विज्ञापन बनाने वाली कम्पनियों का युग है जो 'दाग अच्छे हैं' सरीखे 'टैग लाइन' के आधार पर विज्ञापन तैयार करती हैं और जल्दी ही ऐसे बेतुके विज्ञापन उत्पादकों के मानस में बैठ जाते हैं। यानी उल्टा-सीधा कुछ भी उछालो, बशर्ते कि वह आम आदमी की ज़ुबान और ज़ेहन पर हावी हो जाए।
यही बात वर्तमान सियासतदानों और कुछ टीवी चैनलों के कड़ुवाहट भरे कार्यक्रमों पर लागू होती है। 'शर्म नहीं आती?', 'बेशर्म', 'हैवान', 'चोर', 'शैतान', 'दरिंदा' और 'नंगा नाच' सरीखे शब्द असभ्य माने जाते थे, अब उनके खुले प्रयोग के बिना बात नहीं बनती। गालियों, अभद्र भाषा के जुमलों और चंद अन्य ऐसी शाब्दिक-मिसायलों के बाद बस अश्लील गालियों का प्रयोग ही शेष है। कभी भी ऐसी बौछारों का मौसम शुरू हो सकता है। बाद में न्यायपालिका या चुनाव आयोग के अधिकारी क्या करते हैं, कौन परवाह करता है।
स्थितियां हर सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ ही सियाह पड़नी शुरू हो जाती हैं। महंगी रैलियां, अत्यंत महंगे 'रोड शो', 'सोशल मीडिया' पर उछाले जा रहे 'फेक न्यूज़' के बवंडर, पाठकगण। क्या आप महसूस नहीं करते कि ये माहौल आपकी मानसिकता को भी चिड़चिड़ाहट, आक्रोश व तनाव से भर रहा है? ऐसे माहौल में गत दिवस एक गज़ल कहीं पढ़ी थीं, आपसे बांटने का मन हो रहा है-
तुम में तो कुछ भी वाहियात नहीं
जाओ तुम आदमी की जात नहीं
दिल में जो है वही जुबान पे है
और कोई हम में खास बात नहीं
सब को दुतकारा दरकिनार किया
एक बस खुद ही से नजात नहीं
खुल के मिलते हैं जिससे मिलते हैं
ज़ेहन में कोई छूत-छात नहीं
हमारा कानूनी ढांचा हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, मगर अराजक होने की छूट नहीं देता। एक-दूसरे की कमियों पर कटाक्ष का यह श्रेष्ठ समय है और इसके प्रति नेताओं में सहनशीलता होनी चाहिए। चुनाव के समय कई कार्यकर्ता और छोटे नेताओं के गलत बयानों को तो लोग ही अपने स्तर पर नजरअंदाज कर देते हैं, पर जब कोई बड़ा नेता तल्खी के साथ मर्यादा की दहलीज लांघता है तो चर्चा या शिकायत से बचा नहीं जा सकता।
बहरहाल, इधर जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल प्रधानमंत्री के लिए किया जा रहा है उससे दुख भी होता है और चिंता भी। भाजपा ने राहुल गांधी पर चुनावी लाभ के लिए भारत के लोगों के मन में भाषायी और सांस्कृतिक विभाजन पैदा करने की कोशिश करने का आरोप लगाया तो कांग्रेस ने प्रधानमंत्री को सीधे 'झूठा' करार दिया है। यहां दोहराने की कतई जरूरत नहीं, पहले भी प्रधानमंत्री को ऐसा बहुत कुछ कहा गया है, जिसका परिणाम विपक्षी पार्टियां पिछले अनेक चुनावों में हार के साथ भुगत चुकी हैं। ध्यान रहे, दुनिया देखती और सुनती है जब देश के प्रधानमंत्री को कुछ कहा जाता है। राजनीति सेवा का क्षेत्र है, यहां एक-दूसरे को नीचा दिखाना नेताओं को शोभा नहीं देता। परिपक्वता आनी चाहिए, राजनीति वह नहीं जो गुमराह करके जीत दर्ज कर ले, राजनीति वह है जो देश को सही दिशा में ले जाए।
धीरे-धीरे भले ही अनजाने में हमारे देश के नेता ऐसे इंसान बनते जा रहे हैं जो 'परपीड़ा' से अपने भीतर सुख व आनंद लेते हैं। सबके घर कांच के बने हैं और सबके हाथों में पत्थर हैं। इस दौड़ में मानसिक सन्तुलन बिगड़ने का खतरा है और ऐसी स्थिति आत्मघाती भी होने लगती है।
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'सेंटर फार मीडिया स्टडीज' की एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि 2024 के भारत के चुनावों का खर्च 2019 में लोकसभा चुनावों की तुलना में दोगुना से अधिक होगा। जबकि 2019 के चुनाव में कुल खर्च लगभग 55 से 60 हजार करोड़ रुपए था। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगातार चुनाव का खर्च बढ़ रहा है। अमेरिकी चुनाव पर नजर रखने वाली एक वेबसाइट की रिपोर्ट का हवाला देते हुए सेंटर फार मीडिया स्टडीज के अध्यक्ष एन. भास्कर राव ने कहा कि यह 2020 के अमेरिकी चुनावों पर हुए खर्च के लगभग बराबर है जो 14.4 बिलियन डालर यानी एक लाख 20 करोड़ रुपए था। उन्होंने कहा कि दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में 2024 में दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव, अब तक का सबसे महंगा चुनाव साबित होगा।
हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में होने वाले वास्तविक खर्च और आधिकारिक तौर पर दिखाए गए खर्चे में काफी अंतर है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के 32 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा आधिकारिक तौर पर सिर्फ 2994 करोड़ रुपए का खर्च दिखाया। इनमें दिखाया गया है कि राजनीतिक दलों द्वारा निर्वाचन आयोग में पेश खर्च का ब्यौरा और वास्तविक खर्च के साथ-साथ उम्मीदवारों द्वारा अपने स्तर पर किए जा रहे खर्चे में काफी अंतर है।
रिपोर्ट के मुताबिक जहां इस चुनाव में एक लाख 20 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है, वहीं 2019 में लगभग 60 हजार करोड़, 2014 में 30 हज़ार करोड़ और 2009 में 20 हज़ार करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इनसे सबसे अधिक राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा प्रचार अभियान, रैली, यात्रा खर्च के साथ-साथ सीधे तौर पर गोपनीय रूप से मतदाताओं को सीधे नकदी भी वितरण शामिल है।

– डॉ चन्द्र त्रिखा