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बाबरी गाथा: राष्ट्र की उथल-पुथल में शहाबुद्दीन की विवादास्पद भूमिका का खुलासा

Desk Team

भारत में एक प्रमुख राजनीतिक शख्सियत सैयद शहाबुद्दीन ने बाबरी आंदोलन में उल्लेखनीय भूमिका निभाई, जिसके कारण अंततः 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। 1935 में जन्मे, शहाबुद्दीन ने एक राजनयिक के रूप में अपना करियर शुरू किया, लेकिन बाद में राजनीति में प्रवेश किया और एक प्रमुख बन गए। मुस्लिम मुद्दों के प्रतिनिधि। बाबरी आंदोलन के संदर्भ में शहाबुद्दीन का प्रभाव महत्वपूर्ण था। वह मुस्लिम अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक मुखर वकील के रूप में उभरे और धार्मिक स्थलों की यथास्थिति को बदलने के किसी भी प्रयास का विरोध किया। राम जन्मभूमि आंदोलन, जिसका उद्देश्य अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण करना था, के प्रति उनके विरोध के कारण राजनीतिक परिदृश्य में मतभेद पैदा हो गया।

हालाँकि शहाबुद्दीन मुसलमानों के बीच एक प्रभावशाली नेता थे, लेकिन बाबरी मस्जिद मुद्दे पर उनके रुख को समुदाय के भीतर सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था। टकराव वाले आंदोलनों में शामिल होने के बजाय मौजूदा धार्मिक संरचनाओं की रक्षा करने पर उनके जोर देने से विचारों में विभाजन हो गया। कुछ लोगों का मानना था कि उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक था, बातचीत और कानूनी रास्ते की वकालत करते हुए, जबकि अन्य ने इसे निष्क्रिय माना और अधिक मुखर रुख के लिए तर्क दिया। बीच का रास्ता निकालने और सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ने से रोकने के शहाबुद्दीन के प्रयासों के परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के भीतर दरार पैदा हो गई। एक वर्ग ने शांतिपूर्ण समाधान और कानून के शासन के सम्मान की आवश्यकता पर बल देते हुए उनके राजनयिक दृष्टिकोण का समर्थन किया। दूसरी ओर, एक अधिक कट्टरपंथी गुट ने टकराव की रणनीति को प्राथमिकता दी और मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग की।

राजीव गांधी के ताला खुलवाने के फैसले का किया विरोध

विदेश सेवा की नौकरी छोड़ राजनीति में आए सैय्यद शहाबुद्दीन की अयोध्या कांड में एंट्री 1986 में हुई थी। शहाबुद्दीन उस वक्त जनता पार्टी के सांसद थे। राजीव गांधी के ताला खुलवाने के फैसले के खिलाफ शहाबुद्दीन ने चौतरफा मोर्चेबंदी कर दी थी। बाबरी मस्जिद बचाए रखने के लिए उन्होंने पहली बार मुसलमानों को संगठित किया और बाबरी एक्शन प्लान कमेटी का गठन किया। जानकारों का कहना है कि शहाबुद्दीन की वजह से ही बाबरी का मुद्दा अयोध्या से दिल्ली पहुंचा। हालांकि, शहाबुद्दीन का मुखर होना मुसलमानो के हित में नहीं रहा। इसकी 2 मुख्य वजहें भी थी-

  • शहाबुद्दीन जितने मुखर हो रहे थे, उतनी ही मुखर विश्व हिंदू परिषद हो रही थी। राजनीतिक अंकगणित नहीं होने की वजह मुस्लिम संगठन पिछड़ते चले गए, जबकि हिंदू संगठन आगे बढ़ गए।
  •  वरिष्ठ पत्रकार फरजंद अहमद के एक लेख के मुताबिक, शहाबुद्दीन मुसलमानों के सबसे बड़े नेता बनना चाहते थे। इसलिए वे बाबरी आंदोलन को भी इसी तरह से चलाना चाहते थे, जो कई मुस्लिम नेताओं को मंजूर नहीं था। यही वजह थी कि बाबरी आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर होता गया।

गणतंत्र खत्म हो गया है, क्यों मनाएं रिपब्लिक डे?

23 दिसंबर 1986 को बाबरी एक्शन प्लान कमेटी का गठन हुआ। जनता पार्टी के नेता और सांसद सैय्यद शहाबुद्दीन को इसका मुखिया बनाया गया। शहाबुद्दीन ने पहले दिन ही मंच से बड़ा ऐलान कर दिया। शहाबुद्दीन ने कहा कि भारत में जब संविधान ही नहीं बचा है, जब गणतंत्र ही खत्म हो गया है, तो फिर रिपब्लिक डे सेलिब्रेशन मनाने का क्या मतलब है?शहाबुद्दीन ने मुसलमानों से कहा कि वे रिपब्लिक डे को सेलिब्रेट न करें।

इंडिया टुडे मैगजीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक शहाबुद्दीन ने बायकॉट के पीछे 2 अहम तर्क दिए

  • बाबरी मस्जिद का अधिग्रहण हिंदू अंधराष्ट्रवादी ताकतों की इच्छा है, जो इतिहास का हिसाब मुसलमानों के साथ बराबर करना चाहते हैं। इसे रोकने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है। सरकार संविधान की रक्षा करने की हिम्मत नहीं कर रही है, इसलिए संविधान का जश्न मनाना ढोंग के समान होगा।
  • इस्लाम में सभी मस्जिदों की पवित्रता एक समान है। ऐसे में बाबरी पर आंख मूंद लेना, गलत होगा, बाबरी को सरकार राष्ट्रव्यापी चिंता बनाने में विफल रही है। फिर धर्मनिरपेक्षता का क्या मतलब है?

इंडिया गेट पर मुसलमानों के साथ पढ़ा नमाज

1986 में बाबरी का ताला खुल गया, जिसके बाद मुस्लिम पक्ष ने वहां नमाज पढ़ने की इजाजत मांगी। जिला प्रशासन से अनुमति नहीं मिलने के बाद बाबरी एक्शन प्लान कमेटी ने दिल्ली में एक बड़ी रैली का आह्वान किया। मार्च 1987 में राजपथ पर शहाबुद्दीन के नेतृत्व में करीब 1 लाख मुसलमान जुटे. सभी मुसलमान दिल्ली से अयोध्या जाना चाहते थे। भीड़ को देखकर सरकार की मुश्किलें बढ़ गई। आनन-फानन में सरकार के बड़े मंत्रियों ने मुस्लिम पक्षों से बातचीत शुरू की। समझौता हुआ कि मुस्लिम पक्ष की बात भी सरकार बाबरी मामले में सुनेगी। इसके बाद शहाबुद्दीन और जामा मस्जिद के इमाम बुखारी के नेतृत्व में सभी मुसलमानों ने राजपथ पर ही नमाज पढ़ी। भारत के इतिहास में राजपथ पर एक साथ इतने लोगों का नमाज पढ़ना अपने आप में एक रिकॉर्ड बन गया।

बुखारी से झड़प हुई, बाबरी एक्शन कमेटी टूट गई

रिपब्लिक डे के बायकॉट का आह्वान कर शहाबुद्दीन मुसलमानों के बड़े नेता बन गए थे। उन्होंने मुस्लिम मुद्दों को लेकर 30 मार्च 1987 को बाबरी एक्शन कमेटी के बैनर तले मुस्लिम नेताओं, धर्मगुरुओं और देश के अकीदतमंद लोगों को दिल्ली में बुलाया। इस रैली का मुख्य मकसद राजीव गांधी की सरकार पर प्रेशर बनाना था, लेकिन बैठक शुरू होते ही बवाल हो गया। शोधकर्ता हिलाल अहमद 'स्मारक के रूप में मस्जिद' में लिखते हैं- सबसे पहला बवाल भाषण देने को लेकर हुआ। मीटिंग में जामा मस्जिद के तत्कालीन इमाम मरहूम अब्दुल्ला बुखारी भी मौजूद थे। बुखारी की कोशिश रैली को हाइजैक करने की थी। हिलाल अहमद के मुताबिक रैली शुरू होते ही बुखारी ने न्यायपालिका पर जोरदार हमला किया। उन्होंने मुसलमानों से अपील करते हुए कहा कि न्यायपालिका को मानने की जरूरत नहीं है। बुखारी ने अल्लाह का नाम लेकर कई इमोशनल बयान भी दिए। कहा जाता है कि बुखारी के भाषण को रोकने के लिए जैसे ही शहाबुद्दीन ने कोशिश की, बुखारी विफर पड़े। बुखारी ने शहाबुद्दीन को अपने बेंत से मारने की कोशिश भी की। हालांकि, कई लोग बीच-बचाव में आ गए। इस घटना के 18 महीने बाद बाबरी एक्शन कमेटी में भी टूट हो गई। दरअसल, अक्टूबर 1988 में कमेटी ने सर्वसम्मति से अयोध्या में नमाज पढ़ने का आह्वान किया था, लेकिन ऐन वक्त पर शहाबुद्दीन वहां जाने से मुकर गए। शहाबुद्दीन के मुकरते ही आजम खान, जफरयाब जिलानी और अब्दुल्ला बुखारी ने बाबरी एक्शन कमेटी से इस्तीफा दे दिया। इन नेताओं ने बाद में ऑल इंडिया बाबरी मस्जिद मूवमेंट एक्शन कमेटी का गठन किया। उस दिन अयोध्या क्यों नहीं गए? इस सवाल का जवाब शहाबुद्दीन ने 2012 में अरब न्यूज़ में लिखे अपने एक लेख में विस्तार से बताया। शहाबुद्दीन के मुताबिक उस वक्त सरकार से मस्जिद को लेकर बातचीत चल रही थी, जिस वजह से उन्होंने सभी से फैसला टालने के लिए कहा था।

बाबरी गिरने पर कहा- पुलिस को पीटने से न्याय नहीं होगा

6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। उस वक्त केंद्र में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। बाबरी विध्वंस के बाद मुस्लिम पक्ष भी बवाल करने पर अमादा हो गया। बुखारी ने सरेआम आंदोलन और सबक सिखाने की बात कही। मुस्लिम पक्षकारों के साथ-साथ विपक्ष के भी कई नेता केंद्र के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया। इन नेताओं में पूर्व पीएम वीपी सिंह का नाम भी शामिल था। बवाल बढ़ता देख शहाबुद्दीन ने राव की तरफदारी शुरू कर दी। संसद के बाहर पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि चोर भाग गया है और अब अगर पुलिस को पीटा भी जाए, तो क्या उससे न्याय मिल जाएगा?

बयान देने के बाद शहाबुद्दीन प्रधानमंत्री राव से मिले. उन्होंने बाबरी विध्वंस के बाद 4 प्रमुख मांगे रखी, जो निम्नलिखित था-

  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीएचपी और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाया जाए
  • बाबरी विध्वंस की जगह पर ही भव्य मस्जिद का निर्माण कराया जाए
  • दंगे के दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाए और उसे सजा दिलाई जाए
  • कल्याण सिंह की सरकार को तुरंत प्रभाव से बर्खास्त किया जाए

राव ने मस्जिद निर्माण की बात को छोड़कर शहाबुद्दीन की बाकी 3 मांगे मान ली। हालांकि, राव ने शहाबुद्दीन को यह आश्वासन जरूर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद वहां पर मस्जिद निर्माण कराया जाएगा।

कांग्रेस में शामिल हुए, नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी

2004 लोकसभा चुनाव से पहले शहाबुद्दीन ने सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस का दामन थाम लिया। हालांकि, 3 साल के भीतर ही ओल्ड ग्रांड पार्टी से उनका मन उचट गया। 2007 में यूपी चुनाव के बाद उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। 2012 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को शहाबुद्दीन ने एक चिट्ठी लिखी थी। यह लेटर खूब वायरल हुआ। शहाबुद्दीन ने अपने पत्र में लिखा- मोदी के प्रति मुसलमानों की भावनाओं में कुछ बदलाव आ रहा है। मैं उनसे चाहूंगा कि वे इस 10 सूत्री मांगों पर विचार करें। शहाबुद्दीन की 10 सूत्री मांगों में प्रमुख रूप से गोधरा कांड के लिए माफी, मुआवजा आदि शामिल था।

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