भारत सरकार, असम सरकार और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के बीच दिल्ली में एक ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। इस समझौते के साथ पूर्वोत्तर क्षेत्र के सबसे बड़े विद्रोही समूहों में से एक उल्फा के एक गुट की लंबी लड़ाई अब खत्म हो गई है। हालांकि परेश बरुआ के नेतृत्व वाला उल्फा (स्वतंत्र) गुट अभी भी बातचीत के खिलाफ है।
शुरुआत में उल्फा को गरीबों-मजलूमों की मदद करने वाले संगठन के रूप में जाना जाता था, लेकिन जल्द ही इनके तौर तरीके बदल गए और यह शासन-सत्ता-व्यवस्था से टकराने लगे। अब यह उग्रवादी संगठन शांति के रास्ते पर चलने के लिए मान गया है, आइए इसके इतिहास पर एक नजर डालते हैं।
अप्रैल 1979 में उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान आज के बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन के बाद इस गुट का जन्म हुआ था। ऊपरी असम के जिलों के युवाओं के एक समूह ने 7 अप्रैल, 1979 को शिवसागर के ऐतिहासिक अहोम-युग के एम्फीथिएटर रंग घर में उल्फा ग्रुप की नींव रखी थी।
इस संगठन को बनाने वाले युवाओं में परेश बरुआ, अरबिंद राजखोवा और अनूप चेतिया नेता थे शामिल थे। गठन के बाद से इस संगठन ने 'संप्रभु असम' की मांग शुरू कर दी। इसके लिए संगठन के सदस्यों ने जून, 1979 में मोरान में एक बैठक की, जिसका उद्देश्य था संगठन का नाम, प्रतीक, झंडा और संविधान को तय करना।
उल्फा संगठन को शुरूआत में गरीबों की मदद के लिए बनाया गये संगठन के रूप में पहचाना जाता था लेकिन जल्द ही ग्रुप की ये पहचान बदल गई और बाद में यह विध्वंसक गतिविधियों में शामिल हो गया। बता दें, उल्फा ने सरकार के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई शुरू कर दी। साल 1980 में उल्फा ने कांग्रेस के नेताओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यही नहीं, राज्य के बाहर के व्यापारिक घरानों, चाय बागानों और सरकारी कंपनियों, खासकर तेल और गैस की कंपनियों पर हमला करना शुरू कर दिया। इससे संगठन की हथियारों के बल पर ताकत बढ़ने लगी।
इतना ही नहीं, सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने के अलावा इस संगठन ने लोगों को अपना निशाना बनाना भी शुरू कर दिया। जिस कारण केंद्र सरकार ने 1990 में इसे प्रतिबंधित संगठन घोषित किया था। दरअसल, 1985 से 1990 के दौरान असम में प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली असम गण परिषद की सरकार के कार्यकाल में तो उल्फा ने पूरे राज्य में हंगामा कर दिया था।
यहां तक की 1990 में उल्फा ने ब्रिटेन में भारतीय मूल के व्यवसायी लॉर्ड स्वराज पॉल के भाई चाय बागान मालिक सुरेंद्र पॉल की हत्या कर दी। यह आतंक यहां भी नहीं रूका और 1991 में रूसी इंजीनियर सर्गेई का अपहरण कर उल्फा ने बाद में उसकी भी हत्या कर दी थी।
इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी हुई और दुनिया के दूसरे देशों का भारत पर दबाव भी बढ़ने लगा। उधर, उल्फा ने जबरन वसूली, अपहरण और हत्या जैसी वारदातों का सिलसिला शुरू कर दिया. इसको देखते हुए 1990 में ही भारत सरकार ने उल्फा को प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया.
इस बीच भारत सरकार ने कई बार उल्फा से बातचीत करनी चाही, लेकिन उल्फा में आपस में टकराव से इस कोशिश में बाधा पैदा होती रही। बता दें, 28 नवंबर 1990 को सेना ने उल्फा के खिलाफ ऑपरेशन बजरंग शुरू भी किया था जिसे 31 जनवरी 1991 को बंद कर दिया गया। इस ऑपरेशन की अगुवाई जीओसी 4 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अजय सिंह ने की थी।
हालांकि तमाम घटनाओं के बीच 2004 में उल्फा सरकार से बातचीत को राजी हुआ और सितंबर 2005 में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखिका इंदिरा रायसोम गोस्वामी की अगुवाई में केंद्र सरकार के साथ तीन दौर की चर्चा हुई पर इसका इसका कोई नतीजा नहीं निकला। भूटान और बांग्लादेश तक अपनी गतिविधियों में लिप्त उल्फा के अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा और उल्फा के दूसरे नेताओं को दिसंबर 2009 में बांग्लादेश में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें भारत लाकर गुवाहाटी की जेल में रखा गया। ये नेता 2011 में रिहा किए गए।
केंद्र सरकार की बढ़ती कोशिशों और दबावों के चलते अरबिंद राजखोवा ने बातचीत शुरू कर दी जो संगठन के कमांडर परेश बरुआ को बिल्कुल पसंद नहीं आया। आखिरकार 2010 में आपस में टकराव के कारण उल्फा दो हिस्सों में बंट गया। सरकार से बातचीत के समर्थक अरबिंद राजखोवा के साथ रहे, जिनके धड़े ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर भी कर दिया है। वहीं, दूसरे गठन का नेतृत्व बरुआ ने किया जो सराकर से बातचीते के विरोध में थे।
बता दें, केंद्र-राज्य सरकारों और उल्फा के बीच हुए सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) समझौते के बाद राजखोवा गुट ने 3 सितंबर, 2011 को सरकार के साथ शांति वार्ता शुरू की थी। हालांकि उम्मीद है कि संगठन का दूसरा गुट यानी परेश बरुआ का गुट जल्द ही शांति के मार्ग पर आ जाएगा।