सज्जन कुमार के खिलाफ सिख विरोधी दंगा मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा
राउज एवेन्यू कोर्ट ने शुक्रवार को कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार के खिलाफ सिख विरोधी दंगा मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा। कोर्ट ने मामले को 29 नवंबर को फैसले के लिए सूचीबद्ध किया है।
यह मामला 1 नवंबर, 1984 को सरस्वती विहार इलाके में जसवंत सिंह और उसके बेटे तरुणदीप सिंह की हत्या से संबंधित है।
विशेष न्यायाधीश कावेरी बावेजा ने सज्जन कुमार की ओर से अधिवक्ता अनिल शर्मा और अतिरिक्त लोक अभियोजक मनीष रावत की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रखा।
कोर्ट ने शिकायतकर्ता की वकील कामना वोहरा को दो दिनों के भीतर लिखित दलीलें दाखिल करने का निर्देश दिया है।
वकील अनिल शर्मा, अधिवक्ता एस ए हाशमी और अनुज शर्मा सज्जन कुमार की ओर से पेश हुए।
उन्होंने कहा कि सज्जन कुमार का नाम शुरू से ही नहीं था, इस मामले में विदेशी भूमि का कानून लागू नहीं होता और गवाह द्वारा सज्जन कुमार का नाम लेने में 16 साल की देरी हुई। यह भी कहा गया कि सज्जन कुमार को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने का मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। अधिवक्ता अनिल शर्मा ने वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फुल्का द्वारा उद्धृत मामले का भी हवाला दिया। उन्होंने कहा कि असाधारण परिस्थितियों में भी देश का कानून ही प्रभावी होगा, न कि अंतरराष्ट्रीय कानून।
अतिरिक्त लोक अभियोजक मनीष रावत ने प्रतिवाद में कहा कि आरोपी को पीड़िता नहीं जानती थी। जब उसे पता चला कि सज्जन कुमार कौन है, तो उसने अपने बयान में उसका नाम लिया। पिछली तारीख पर वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फुल्का दंगा पीड़ितों की ओर से पेश हुए और उन्होंने तर्क दिया कि सिख दंगों के मामलों में पुलिस जांच में हेराफेरी की गई। पुलिस जांच धीमी थी और आरोपियों को बचाने के लिए ऐसा किया गया। तर्क दिया गया कि दंगों के दौरान स्थिति असाधारण थी। इसलिए इन मामलों को इसी संदर्भ में निपटाया जाना चाहिए।
यह एक बड़े नरसंहार का हिस्सा है
बहस के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फुल्का ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह कोई अलग मामला नहीं है, यह एक बड़े नरसंहार का हिस्सा है और यह नरसंहार का ही हिस्सा है। आगे दलील दी गई कि आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1984 में दिल्ली में 2700 सिखों की हत्या की गई थी।वरिष्ठ अधिवक्ता फुल्का ने 1984 के दिल्ली कैंट मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने दंगों को मानवता के खिलाफ अपराध कहा था।
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