पटना : डा. श्रीकृष्ण सिंह की प्रतिभा विलक्षण एवं युग के अनुरूप एक जन्मजात क्रांतिकारी की प्रतिभाषक्ति थी। भयंकर राजनीतिक उथल-पुथल के युग में बिहार में स्वतंत्रता संग्राम को उनकी भूमिका ने न केवल प्रखरता प्रदान की, बल्कि युवा पीढ़ी को प्रगाढ़ राष्ट्र प्रेम और क्रांतिकारी जोश से भरकर उत्प्रेरित किया।
राष्ट्र प्रेम से उन्होंने यथार्थत: अपने को उद्भासित किया और यहां तक कि राष्ट्र प्रेम में अन्य राजनीतिज्ञों से भिन्न उन्हें किसी स्वर्गिक पुरस्कार के लिए इन्तजार नहीं करना पड़ा, बल्कि उन्होंने इसी गौरवमयी और कृतज्ञ पृथ्वी पर प्रचुर उपलब्धियां हासिल कर लीं। अपने जीवनकाल में देश के सबसे अच्छे प्रशासक, सर्वाधिक प्रतिष्ठित मुख्यमंत्री और उद्भट विद्वान् के रूप में वे जाने-माने गयेे। उक्त बातें पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र ने कही। डा. सिंह से अधिक सक्रिय युवाकाल विरले ही हो सकता है।
कांग्रेस के विशेष सत्र के वर्ष 1917 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा और महात्मा गांधी के आदर्शो से लबालब भरे नेता के रूप में पहचान बना ली। राजनेता के संपूर्ण जीवन में आने के पूर्व ही उन्होंने अपने को प्रखर वक्ता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली थी। श्रीबाबू सच्चे अर्थ में बिहार के निर्माता थे। वह चाहते थे कि देष जल्द-से-जल्द समाजवादी समाज-व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त कर सके और सबको सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त हो,
सबको जीविकोपार्जन की समान सुविधाएं मिलें तथा भौतिक साधनों पर अधिकार एवं नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था हो, जिससे सबको अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त हो सकें। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘आजादी के बाद हिन्दुस्तान में हमारे और आपके ऊपर एक बड़ी जवाबदेही आयी है।
आजादी के पहले हमने एक स्वप्न देखा था। वह स्वप्न था दुनिया के और देशों की तरह इस देश में भी एक ऐसे समाज का निर्माण करने का, जिसके भीतर एक-एक आदमी का व्यक्तित्व समान रूप से पवित्र समझा जाय, और ऐसा समझकर समाज के भीतर ऐसी व्यवस्था की जाय, ऐसा इंतजाम किया जाय कि प्रत्येक मनुष्य को जीवन की सुविधा के मिलने के बाद उसको ऐसी इजाजत मिले, उसको ऐसा हक प्राप्त हो कि वह अपने ढंग से अपने जीवन को चलाने में समर्थ हो।