कहावत है की न्याय में देरी हो परन्तु अन्याय में कमी न रहे। ऐसा ही कुछ बिहार के गया निवासी बनारस सिंह के साथ हुआ। बनारस सिंह 1980 में नाबालिग था और उसने अपने चचेरे भाई की मामूली कहा सुनी में हत्या कर दी। लेकिन हाईकोर्ट और निचली अदालत ने उसे नाबालिग नहीं माना।
बनारस सिंह 39 साल लंबी लड़ाई के बाद अब जाकर यह साबित कर पाया है कि हत्या के समय वह नाबालिग था। जबकि ये जीत आरोपी के लिए मायने नहीं रखती, क्योंकि वो 10 साल तक जेल में रह चुका है। नाबालिग होने की सूरत में ये सजा तीन गुना ज्यादा है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मुद्दे पर फैसला सुनते हुए कहा कि बनारस सिंह वारदात के समय नाबालिग था। आरोपी को जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मद्देनज़र तीन साल कैद की सजा सुनानी चाहिए। वह दस साल जेल में काट चुका है और ऐसे में उसे फ़ौरन रिहा करना चाहिए। 1980 में गिरफ्तारी के बाद गया जिला अदालत ने बनारस सिंह को उम्रकैद की सजा सुनाई थी।
इसके खिलाफ पटना हाईकोर्ट में बनारस सिंह ने अपील की थी। उसकी ये दलील थी कि अपराध के वक्त मेरी उम्र 17 साल 6 महीने थी,और मुझे नाबालिग की तरह सजा दी जाये। 1998 में हाईकोर्ट ने उसकी अपील ख़ारिज कर दी थी। 2009 में पटना हाईकाेर्ट के फैसले के खिलाफ बनारस सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल के बाद ट्रायल कोर्ट से जबाव मांगा है। 10 वीं के सर्टिफिकेट और बाकी रिकॉर्ड्स से ये साबित हो गया की अपराध के समय बनारस सिंह की उम्र 17 साल 6 महीने थी।