रिजर्व बैंक द्वारा दो हजार रुपए के नोटों को बन्द करने के फैसले को आम जनता ने आश्चर्य के रूप में लिया है और 2016 की नोटबन्दी के समय इनके जारी करने के फैसले पर भी सवाल उठाया है। बेशक दो हजार के नोटों का प्रचलन खुले बाजार में बहुत कम संख्या में ही था मगर इनके प्रचलन से ही बाहर करने के फैसले की तार्किकता को आलोचक इस कसौटी पर कस कर रहे हैं कि बहुत कम समय के अन्तराल में ही मुद्रा के सबसे बड़े नोट को बन्द कर देने से लोगों में मुद्रा की विश्वसनीयता पर विपरीत असर पड़ सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि दो हजार के नोटों काे बन्द करने से अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा मगर यह सवाल अपनी जगह खड़ा रहेगा कि आखिरकार इसका असल उद्देश्य क्या है? रिजर्व बैंक ने जनता द्वारा इन नोटों को बदलने के लिए 30 सितम्बर तक का समय दिया है जिसके लिए कुछ नियम भी घोषित किये हैं। इनमें कोई भी व्यक्ति 20 हजार रुपए तक के दस नोट बैंकों में जाकर बदलवा सकता है। बैंक के अनुसार फिलहाल तीन लाख 72 हजार करोड़ रुपए के दो हजार के नोट बाजार में हैं जो विभिन्न धनराशियों में प्रचिलित नोटों की संख्या का 10.80 प्रतिशत के लगभग ही है। इसका मतलब यह हुआ कि कुल 31 लाख करोड़ रुपए के प्रचलन में नोटों की धनराशि 31 लाख करोड़ रुपए के लगभग है।
रिजर्व बैंक ने साथ में यह भी कहा है कि 30 सितम्बर के बाद इनका बाजार में प्रचलन बेशक बन्द हो जायेगा मगर यह वैध मुद्रा बनी रहेगी। इसका अर्थ यह है कि दो हजार के नोटों को 30 सितम्बर के बाद भी यदि कोई व्यक्ति अपने पास रखता है तो वह जुर्म नहीं होगा जबकि 8 नवम्बर 2016 को जब एक हजार व पांच सौ रुपए के नोट बन्द किये गये थे तो सरकार द्वारा इन्हें बदलवाने की समय-सीमा समाप्त होने के बाद इन्हें अपने पास रखना जुर्म की श्रेणी में आ गया था और यह वैध मुद्रा नहीं रही थी। इस फैसले से बिना शक आम जनता में अफरा- तफरी मच गई थी और नोट बदलवाने के लिए बैंकों के सामने लम्बी-लम्बी लाइनें लग गई थीं। जाहिर है कि रिजर्व बैंक का यह फैसला 8 नवम्बर जैसा नहीं है और यह किसी विशिष्ट शृंखला के नोट बन्द किये जाने के फैसले के समरूप ही है परन्तु अंतर मात्र इतना ही है कि सभी शृंखलाओं के दो हजार के नोट एक ही झटके में बाजार से बाहर किये जा रहे हैं। तर्क रखा जा रहा है कि दो हजार रुपए का नोट पिछले लगभग एक साल से भारत के बाजारों विशेष कर छोटे व मंझोले दूकानदारों के साथ होने वाले लेन-देन में देखा ही नहीं जा रहा है तो इसका असर सामान्य जनता पर नहीं पड़ेगा और केवल उन्हीं लोगों को फिक्र होगी जिन्होंने इन नोटों को जमा करके रखा हुआ है। इसका मतलब निकाला जा रहा है कि अधिसंख्य नोट कालेधन के रूप में पैसे वालों की तिजारियों में बन्द हैं। मगर यह तर्क पूर्णतः जायज इसलिए नहीं है क्योंकि कोई औसत दर्जे का नागरिक भी बड़े नोटों का संग्रह अपनी गाढ़ी बचत के रूप में सुविधामय मानते हुए कर सकता है।
यह भी कहा जा रहा है कि इससे डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा मिलेगा। यह भी एक पक्षीय तर्क है क्योंकि भारत की 140 करोड़ आबादी के बीच केवल 60 करोड़ ही स्मार्ट मोबाइल फोन हैं और भारत के बाजारों में 36 लाख करोड़ के नोट प्रचलन में हैं जो कि नोटबन्दी के समय प्रचिलित मुद्रा से डेढ़ गुना से भी बहुत ज्यादा है अतः नकद रोकड़ा लेन-देन भारत में कम नहीं हुआ है लेकिन इससे दो हजार रुपए के नोटों का कोई फिलहाल खास लेना-देना है, हां यह जरूर कहा जा सकता है कि समाज में इससे धनपतियों की मुश्किलों में कुछ लोग ईर्ष्या के चलते दिमागी खुशी पाने का सुख जरूर अनुभव कर सकते हैं क्योंकि 90 प्रतिशत जनता के पास दो हजार रुपए के नोट हैं ही नहीं।
2016 की नोटबन्दी का असर सामाजिक ताने-बाने पर इसी ‘पर दुखे परम सुखं’ मानसिकता की वजह से ही हा था। तब लोगों ने समझा था कि इस बहाने काला धन बाहर आ जायेगा और जिन लोगों ने काली कमाई करके अपनी कोठियां खड़ी की हैं और ऐश-ओ-इशरत का सामान जोड़ा है उनको हिसाब देना पड़ेगा। मगर काला धन फिर भी वापस नहीं आया और उतना ही धन वापस बैंकों में पहुंच गया जितनी की कुल मुद्रा प्रचलन में थी। दो हजार के नोट तो 30 सितम्बर के बाद भी वैध ही रहेंगे। हां इससे इतना जरूर होगा कि पुराने व कटे-फटे नोट बदलवाने वाले लोगों का धंधा फिर से थोड़ा उभार ले लेगा। 2013-14 में भी पांच-छह साल पहले छपी शृंखला के नोटों को बन्द कर दिया गया था। अतः रिजर्व बैंक का तर्क है कि दो हजार रुपए के नोट 2017 में भी आखिरी बार छापे गये थे अतः उनकी हालत खराब हो गई होगी इसलिए वो वापस लिये जा रहे हैं। मगर तर्क यह है कि जब ये नोट बाजार में प्रचलन में ही बहुत कम हैं और तिजोरियों में ही बन्द पड़े हैं तो इनकी हालत इतनी खराब कैसे हो सकती है ? यह तथ्य तो हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि 2016 की नोटबन्दी के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा को रिकार्ड तीन-चौथाई बहुमत मिला था मगर पंजाब राज्य में कांग्रेस विजयी रही थी। इसकी वजह उत्तर प्रदेश में जातिवादी प्रमुख समाज के चलते लोगों का अधिक गरीब होना भी माना गया था जबकि पंजाब में जातिवाद जैसी कोई समस्या नहीं रही है। जाति के आधार पर पंजाबी समाज में सामाजिक भेदभाव की परंपरा नाम मात्र की ही है। बड़े नोट राजनैतिक दल भी संभाल कर रखते हैं और चार राज्यों के विधानसभा चुनाव नवम्बर-दिसम्बर महीने में ही होंगे अतः रिजर्व बैंक के फैसले का प्रभाव राजनैतिक भी हो सकता है। खैर जो कुछ भी हो मगर इससे सामान्य नागरिक को चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। उसकी चिन्ता केवल यही हो सकती है कि दूर सफर पर जाते समय वह अपनी रकम दो हजार रुपए के नोटों में बदलवा कर ज्यादा सुरक्षित तरीके से ले जाया करता था। वैसे अमेरिका में भी सबसे बड़ा नोट एक सौ डालर का ही है।
आदित्य नारायण चोपड़ा