भारत की महान संसद का स्वतन्त्रता के बाद से इतिहास रहा है कि इसने हर उस विभूति का सम्मान और स्वागत किया है जिसका नामांकन संविधान के विशिष्ट निर्देश के अनुसार राज्यसभा या लोकसभा में किया है। संसद के उच्च सदन राज्यसभा में 12 सदस्यों का नामांकन राष्ट्रपति महोदय समाज के विभिन्न क्षेत्राें में उनकी विशिष्ट योग्यता व योगदान को ध्यान में रख कर करते हैं।
संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के स्व विवेक से किये गये इस निर्णय को संवैधानिक सभाएं शिरोधार्य करती हैं और कार्य को अधिक दक्ष व परिणाममूलक बनाने का प्रयास करती हैं जिससे देश के समग्र विकास में समयानुसार परिपक्वता आ सके। इनमें वैज्ञानिक से लेकर साहित्य व सांस्कृतिक जगत से जुड़ी प्रतिभाएं तक शामिल होती हैं।
बेशक ये नामांकन ‘अपनी’ सरकार की सलाह पर ही करते हैं जिससे उसके नजरिये का पता चलता है। चार महीने पहले तक देश के मुख्य न्यायाधीश पद की शोभा बढ़ा रहे श्री रंजन गोगोई का आज राज्यसभा में शपथ लेने के लिए पहुंचने पर जिस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी सदस्यों ने ‘शर्म-शर्म’ के नारे के साथ विरोध किया उसे स्वयं में ‘शर्मनाक’ कहा जा सकता है।
श्री गोगोई द्वारा मुख्य न्यायाधीश पद से दिये गये फैसलों से कांग्रेस के नेताओं के मतभेद हो सकते हैं परन्तु राष्ट्रपति के फैसले से उनका मतभेद कैसे हो सकता है जिसे उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए किया है? अतः परोक्ष रूप से कांग्रेस का श्री गोगोई का विरोध राष्ट्रपति का विरोध ही समझा जायेगा। क्या कभी सोचा गया है कि पिछली मनमोहन सरकार के दौर में फिल्म अभिनेत्री रेखा की नामजदगी क्या सोच कर की गई थी?
पं. जवाहर लाल नेहरू ने जब 1952 में प्रख्यात वैज्ञानिक आइनस्टाइन के सहयोगी रहे भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के साथ फिल्म अभिनेता पृथ्वी राज कपूर और हिन्दी के मूर्धन्य कवि मैथिली शरण गुप्त को भी राज्यसभा में नामांकित कराया था तो पूरे भारत को लगा था कि संसद में नवरत्नों की बहार आ गई है, परन्तु कालान्तर में इस तरह पतन की राह पर चले कि एक तरफ दारा सिंह मनोनीत किये गये और दूसरी तरफ रेखा।
पतन की इस कहानी की तह में जाने का मेरा कोई इरादा नहीं है मगर इतना निवेदन करना चाहता हूं कि योग्यता को नकारने की नीयत लोकतन्त्र में कदापि स्वीकार नहीं की जा सकती। अतः श्री गोगोई के शपथ ग्रहण के दौरान शर्म-शर्म के नारे लगाये जाने से हमने राज्यसभा की गरिमा को गिराने का कार्य ही किया है। इससे बचा जा सकता था क्योंकि श्री गगोई आगामी 2026 तक इस सदन के सदस्य रहेंगे और इस दौरान उनके साथ नुक्ताचीनी के बहुत मौके आयेंगे।
श्री गोगोई सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए व्यक्ति न होकर संस्थान रहे हैं, हो सकता है कि उनके कुछ फैसलों से देश के कुछ लोगों को लगा हो कि न्याय में कहीं कमी रह गई है मगर फैसला तो सर्वोच्च न्यायालय का था जिसका सम्मान करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य था। श्री गोगोई की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार प्रधान न्यायाधीश पद पर की गई थी और इस पद पर बैठने के बाद उन्होंने जो भी न्याय किया वही ‘न्याय’ माना गया।
उनके अवकाश प्राप्त करने पर जिस तरह एक विशेष वर्ग उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है उसी से सिद्ध होता है कि इन लोगों की दृष्टि केवल एक पक्ष को ही सोचती है। रामजन्म भूमि विवाद पर दिये गये फैसले को लेकर श्री गोगोई की आलोचना करने में यह वर्ग पीछे नहीं रहता। उसकी राय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का विवादास्पद भूमि को तीन भागों में बांटा जाना ज्यादा बेहतर फैसला था।
इसका तात्पर्य निकलता है कि ये लोग राम जन्मभूमि विवाद को अगली सदियों तक कायम रखना चाहते थे और भारत की आने वाली पीढि़यों को साम्प्रदायिक आधार पर बांटे रखना चाहते थे। इस विवाद को हमेशा के लिए जड़ से निपटा कर श्री गोगोई ने जिस दूरदृष्टि का परिचय देते हुए न्याय किया वह इतिहास के पन्नों में बन्द हो चुका है क्योंकि मजहब का प्रचार-प्रसार किसी भी देश के पूर्वजों का फैसला नहीं कर सकता।
बेशक इस विचार से मतभेद रखा जा सकता है और कहा जा सकता है कि इतिहास समय-काल के अनुसार अपने निशान छोड़ता है जिस तरह स्पेन जैसे राष्ट्र में उस्मानिया सल्तनत (ओटोमन इम्पायर) की समाप्ति के बाद सैकड़ों मस्जिदों को गिरिजाघरों में बदल दिया गया था, परन्तु भारत का इतिहास तो मजहब की बुनियाद पर इसके दो टुकड़े होने का है और इस देश के धर्मनिरपेक्ष होने का है। जिसमें अदालत का फैसला आखिरी फैसला होता है इसलिए श्री गोगोई का राज्यसभा में गर्मजोशी के साथ स्वागत होना चाहिए था मगर ऐसा नहीं हो सका। काश! हमारे सांसद राष्ट्रपति के फैसले पर शर्म-शर्म न करते तो उनका क्या बिगड़ जाता।