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कृषि कानून, किसान और संसद

कृषि कानूनों के मुद्दे पर सरकार और किसान संगठनों के बीच जो गतिरोध बना हुआ है उसे तोड़ने के लिए गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने जो प्रयास किये उसके तहत ही आज सरकार ने इन कानूनों में कुछ संशोधन के प्रस्ताव किये जिन्हें किसान संगठनों ने ठुकराते हुए अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाने की घोषणा कर दी।

कृषि कानूनों के मुद्दे पर सरकार और किसान संगठनों के बीच जो गतिरोध बना हुआ है उसे तोड़ने के लिए गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने जो प्रयास किये उसके तहत ही आज सरकार ने इन कानूनों में कुछ संशोधन के प्रस्ताव किये जिन्हें किसान संगठनों ने ठुकराते हुए अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाने की घोषणा कर दी।
दूसरी तरफ आज देश के तमाम विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से भेट करके उन्हें एक ज्ञापन देकर मांग की कि मौजूदा कानूनों के स्थान पर एेसे नये कानून लाये जाए जिनसे किसानों में रोष खत्म हो सके। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्वयं सरकार इन कानूनों में परिवर्तन करने पर सहमत है।
भारत में संसदीय प्रणाली के जानकारों की कमी नहीं है। सत्ता और विपक्ष दोनों ही खेमों में एक से बढ़ कर एक संसदीय विशेषज्ञ बैठे हुए हैं। उन्हें मालूम होगा कि तीनों कृषि कानून संसद के दोनों सदनों की मंजूरी के बाद ही बने हैं।
यह सत्य है कि विगत जून महीने में मोदी सरकार इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लायी थी जिन्हें बाद में संसद के सत्र में पेश किया गया और उसमें इन अध्यादेशों के विधेयकों के रूप में पारित होने के बाद उन्हें राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा गया।
राष्ट्रपति भवन की मुहर लगने के बाद ये विधेयक कानून के रूप में पूरे देश में लागू हो गये। अब कानूनों में किसानों के आंदोलन को देखते हुए सरकार कुछ ऐसे संशोधन करना चाहती है जिससे किसान सन्तुष्ट हो सकें। मगर किसानों ने  ये संशोधन मानने से इन्कार कर दिया है।
मूल सवाल यह है कि यदि सरकार संशोधन भी करना चाहती है तो भी वह संसद द्वारा पारित इन कानूनों में तभी संशोधन कर सकती है जब संसद में पेश करके इन पर उसकी अनुमति ले ली जाये।  अतः बहुत स्पष्ट है कि वर्तमान कानूनों में एक अक्षर तक बदलने के लिए भी संसद की मंजूरी जरूर लेनी पड़ेगी। अतः संसदीय तर्क कहता है कि सरकार को संसद का सत्र बुला कर इस मामले का सदा के लिए निपटारा कर देना चाहिए।
संसदीय प्रणाली में ऐसे भी मौके आते हैं जब सरकार स्वयं ही अपने रखे गये विधेयकों को वापस ले लेती है।  ऐसा मौजूदा सरकार के कार्यकाल के दौरान भी हुआ है। जाहिर है कि जब गृहमन्त्री ने कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव  किसान नेताओं के पास भेजा तो उनके मस्तिष्क में यह तथ्य जरूर होगा कि इन संशोधनों को पारित करने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी होगी। इसी वजह से पहले मीडिया में खबरें आयी थी कि सरकार कृषि कानूनों के मुद्दे पर संसद का संक्षिप्त सत्र बुलाने पर विचार कर रही है।
बेशक संसद में इस मुद्दे पर पुनः बहस हो सकती है मगर इससे विपक्ष को यह सन्तोष हो जायेगा कि सरकार किसानों के मामले में अड़ियल नहीं है। लोकतन्त्र में यह मालूम होते हुए भी कि जिस सरकार का  संसद में पूर्ण बहुमत है, उसके द्वारा रखे गये विधेयक अन्ततः पारित ही होंगे। तब भी बहस और चर्चा होती है। इसकी वजह यही होती है कि संसद में बैठने वाले सत्ता और विपक्ष के सांसद आम लोगों द्वारा ही चुन कर भेजे जाते हैं।
वे अपने तर्कों को सदन में प्रस्तुत करके सरकार को उन पर सहमत करने का प्रयास करते हैं परन्तु अन्त में सरकार की ही इच्छा चलती है। इसके साथ संसदीय प्रणाली मे सरकार के पास एक और अस्त्र भी होता है कि वह अपने ही बनाये गये कानून को निरस्त करके उसे उसी नाम से पुनः पुरस्थापित कर दे। क्योंकि हमें यह ध्यान रखना होगा कि संसद का काम किसी अन्य संस्था को किसी भी तौर पर नहीं दिया जा सकता है।
अन्ना हजारे के कथित आन्दोलन के समय तत्कालीन मनमोहन सरकार ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी थी कि उसने लोकपाल विधेयक बनाने के काम में आन्दोलकारियों को ही शामिल कर लिया था।  सरकार को इस बात को ध्यान में रखते हुए हुए कुछ अराजकतावादी तत्वों की नीयत पर भी निगाह रखनी होगी।
दूसरे यह भी लोकतन्त्र का ही सिद्धांत है कि जब कोई आन्दोलन बहुत लम्बा खिंचता है तो उसमें अराजकतावादी तत्व भी प्रवेश कर जाते हैं। देश के किसान अन्नदाता कहलाते हैं उनकी शंकाओं का निवारण किया जाना भी बहुत जरूरी है जो कि गृहमन्त्री ने करने का प्रयास किया है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण कानून के मुद्दे पर भी कुछ एेसा ही माहौल बन गया था जिसे मोदी सरकार ने ही कुशलतापूर्वक सुलझा लिया था।
वर्तमान कृषि कानूनों के बारे में एक हकीकत यह है कि ये बदलती अर्थव्यवस्था की तर्ज पर समय के साथ आगे बढ़ने की मंशा से लाये गये हैं क्योंकि लगभग हर प्रमुख विपक्षी दल इस बात पर राजी है कि कृषि क्षेत्र में सुधार होने चाहिएं।  इस बारे में किसानों में जो रोष व्याप्त हुआ है उसे केवल संसद ही समाप्त कर सकती है।

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