कृषि कानूनों की अग्नि परीक्षा - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

कृषि कानूनों की अग्नि परीक्षा

सर्वोच्च न्यायालय ने आज स्पष्ट कर दिया है कि किसानों के आन्दोलन को देखते हुए वर्तमान कृषि कानूनों को फिलहाल लागू होने से रोक दिया जाना चाहिए और इस बीच सरकार व किसानों के बीच किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए वार्ता समिति का गठन किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने आज स्पष्ट कर दिया है कि किसानों के आन्दोलन को देखते हुए वर्तमान कृषि कानूनों को फिलहाल लागू होने से रोक दिया जाना चाहिए और इस बीच सरकार व किसानों के बीच किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए वार्ता समिति का गठन किया जाना चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने इसके साथ यह भी स्पष्ट किया कि कानूनों पर अमल रोक देने का मतलब इन्हें रद्द करना नहीं होता है बल्कि स्थगन या मुअत्तल करना होता है।
विद्वान न्यायाधीशों की यह टिप्पणी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि यदि सरकार यह काम नहीं कर सकती तो उन्हें स्थगन आदेश देना पड़ेगा। यदि इस आंकलन का बेबाक विश्लेषण किया जाये तो निष्कर्ष यह निकलता है कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार और किसानों के बीच चल रही वार्ता से सन्तुष्ट नहीं है।
उसका यह कहना कि इस मामले में सरकार ‘तंगदिली’ से काम कर रही है, इसलिए चौंकाने वाला है क्योंकि वार्ताओं के नौ दौर होने के बावजूद दोनों पक्षों के रुख में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आया है। हालांकि किसानों की दो मांगें (पराली जलाने पर दंड व बिजली भुगतान के नियमों में संशोधन) सरकार ने मान ली हैं परन्तु इनका मुख्य मांग कृषि कानूनों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे के नेतृत्व में बनी तीन सदस्यीय पीठ द्रमुक सांसद त्रिचि शिवा व राजद सांसद मनोज कुमार झा द्वारा कृषि कानूनों को अवैध घोषित करने सम्बन्धी याचिका के साथ ही किसान आन्दोलन से सम्बन्धित कुछ अन्य याचिकाओं पर भी विचार कर रही है। इस सन्दर्भ में न्यायमूर्ति बोबडे का यह कहना कि सरकार व किसानों की वार्ता की कछुआ चाल को देख कर उन्हें बहुत निराशा हुई है।
उनका यह आंकलन कि विभिन्न राज्य सरकारें भी इन कृषि कानूनों के खिलाफ रोष प्रकट कर रही हैं, कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसलिए इन परिस्थितियों का यदि कानूनी नजरिये से आंकलन किया जाये तो सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों के आन्दोलन के प्रति सहृदयात्मकता दिखाते हुए चेतावनी दी है कि सरकार को जल्दी ही कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जो किसानों में असन्तोष को समाप्त कर सके इसी वजह से न्यायालय चाहता है कि उसके निर्देश पर ऐसी वार्ता समिति का गठन किया जाये जो ‘जिद’ को तोड़ने में कामयाब हो सके।
इस समिति में कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल होने चाहिए उनमें इस क्षेत्र के विशेषज्ञ पत्रकार श्री पी. सांईनाथ का नाम भी न्यायालय ने पिछली सुनवाई के दौरान सुझाया था। इससे आभास होता है कि न्यायालय जमीनी हकीकत की रोशनी में किसान समस्या का हल चाहता है और नये कृषि कानूनों की व्यावहारिक तसदीक चाहता है क्योंकि श्री सांईनाथ का पूरा पत्रकारिता जीवन कृषि व ग्रामीण क्षेत्र को समर्पित रहा है।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि 2007 में जिस स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी उसमें साफ लिखा था कि भारत के किसान के गरीब रहने की असली वजह यह है कि उसे उसकी मेहनत का उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाता है और जमीन का मालिक होने के बावजूद उसकी स्थिति किसी श्रमिक जैसी ही बनी रहती है इसीलिए उन्होंने उपज का मूल्य निर्धारित करते समय उसकी जमीन का मूल्यांकन करने की भी सिफारिश की थी जिसे सी-2 फार्मूला कहा गया था।
परन्तु नये कृषि कानूनों में किसान को बाजार की ताकतों पर छोड़ने का मतलब उसे व्यापारियों की भीड़ में अकेला छोड़ देने जैसा होगा जिसकी वजह से किसानों में इन कानूनों का कड़ा विरोध हो रहा है। यही वजह है कि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार बनाने की मांग कर रहे हैं क्योंकि उस स्थिति में उनके कृषि लागत खर्च का जो मूल्यांकन होगा वह खुले बाजार में उनकी उपज का आधार मूल्य माना जायेगा।
यदि हम भारत के कृषि इतिहास को खंगालें तो एक तथ्य निर्विवाद रूप से उभरता है कि स्वतन्त्र भारत में कृषि क्षेत्र को सरकारों ने अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी माना है और इस तरह माना है कि भारत के गरीब से गरीब आदमी को भी दो जून की रोटी सुलभ हो सके।
जिस तरह शिक्षा को हर भारतीय का अधिकार बनाया गया उसी प्रकार भोजन को भी अधिकार बनाया गया। ये पात्रता कानून हैं जो संसद ने संवैधानिक रूप से प्रत्येक भारतीय को दिये हैं। इसी वजह से सरकारी स्कूलों के सुविधा रहित होने के बावजूद हर गरीब व्यक्ति को अपने बालकों को इन स्कूलों में भेजने का अधिकार है जबकि इसके समानान्तर ऊंची फीस वाले अंग्रेजी स्कूल भी हैं जिनमें सम्पन्न व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ाते हैं।
इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में मंडी प्रणाली व न्यूनतम समर्थन मूल्य काम करते हैं। जिस किसी भी किसान को उसकी उपज का ऊ​िचत मूल्य बाजार में न मिल रहा हो उसके पास मंडी की मार्फत समर्थन मूल्य पर अपनी उपज बेचने का अधिकार सुरक्षित है। ऐसा नहीं है कि भारत में ठेके की खेती नहीं होती है। पंजाब व प. बंगाल में यह खेती होती है। पंजाब में तो नेस्ले व पेप्सी जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वर्षों से यह काम कर रही हैं इसके बावजूद किसानों की उपज को कई श्रेणियों में बांट कर उनका भुगतान किया जाता है।
मगर केवल जमीनी खेती की बात करने से ही बात नहीं बनेगी बल्कि बागवानी व दुग्ध उत्पादन की भी चर्चा होनी चाहिए। इनके उत्पादन में भारत दुनिया के पहले दो देशों में आता है इसके बावजूद भारत में विदेशी फल भी धड़ल्ले से बिकते हैं और दुग्ध व डेयरी उत्पादन भी सुलभ हैं।
इस क्षेत्र में जबकि कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली लागू नहीं है, बाजार मूलक मूल्य प्रतियोगिता का यह जीता जागता उदाहरण है। अतः हमें भारत की जमीनी हकीकत देख कर ही खेती के बारे में फैसले लेने होंगे और सर्वोच्च न्यायालय का मन्तव्य भी यही लगता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

fifteen + three =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।