दिल्ली विधानसभा के एक दिवसीय विशेष सत्र के बाद अरविन्द केजरीवाल ने नैतिक और संवैधानिक रूप से मुख्यमन्त्री पद पर बने रहने का अधिकार खो दिया है। विधानसभा में जिस तरह ‘फर्जी’ ईवीएम मशीन का प्रदर्शन करके देश की संवैधानिक और स्वतन्त्र संस्था चुनाव आयोग का मजाक बनाया गया है उससे आम आदमी पार्टी की घबराहट ही सामने आयी है और सिद्ध हो गया है कि इस पार्टी का मुख्यमन्त्री भ्रष्टाचार की दल-दल में ऊपर से लेकर नीचे तक पूरी तरह धंस चुका है। 2010 में भी ऐसा ही एक प्रदर्शन किया गया था जिसे पूरी तरह निर्मूल पाया गया था। विधानसभा के बाहर जब सड़कों पर केजरीवाल और उनके मन्त्रियों के खिलाफ वित्तीय धांधलियों से लेकर पद का दुरुपयोग करने का कोहराम मचा हो तो विधानसभा के भीतर लोकतन्त्र की पवित्रता का राग नहीं गाया जा सकता। लोकतन्त्र की पहली शर्त यह होती है कि सत्ता पर बैठे हुए लोग पूरी तरह अपने आचरण में पवित्र हों। अत: कुछ ‘बेइमान’ लोग सदन के भीतर बैठकर ‘ईमानदारी’ पर भाषण नहीं दे सकते। विधानसभा में जो कुछ भी हुआ वह लोकतन्त्र के उस बुनियादी सिद्धान्त के खिलाफ हुआ कि चुने हुए प्रतिनिधियों की पहली जिम्मेदारी जनता के प्रति जवाबदेही की होती है अत: ‘विशेष’ सत्र को विशेष नाटक मंचन के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। केजरीवाल यदि यह समझते हैं कि इस प्रकार का ‘फरेब’ खड़ा करके वह जनता को गुमराह कर सकते हैं तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला देकर कि चुनाव आयोग सभी मशीनों के साथ ‘कागजी रसीद’ देने वाली मशीनें लगाकर चुनाव कराये, इस विवाद को हमेशा के लिए निपटा दिया है मगर जिस तरह केजरीवाल अपने ही मन्त्री सत्येन्द्र जैन से अपने घर में ‘दो करोड़ रुपए’ नकद रिश्वत लेने के आरोप को ‘ईवीएम’ से ढकने की कोशिश कर रहे हैं उससे यह शक और पक्का हो गया है कि उन्होंने ‘रिश्वत’ कबूल की है। यदि उनके गुरु कहे जाने वाले ‘अन्ना हजारे’ यह सलाह दे रहे हैं कि आरोपों की निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए और केजरीवाल को स्वयं आगे आकर ऐसी जांच के प्रति नतमस्तक होना चाहिए तो समझा जा सकता है कि आरोपों में कितना दम हो सकता है? इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि केजरीवाल पर रिश्वत लेने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप किसी राजनीतिक प्रतिद्वन्दी ने नहीं लगाये बल्कि उनके मन्त्रिमंडल में शामिल संविधान की शपथ उठाने वाले उनके एक साथी कपिल मिश्रा ने तब लगाये जब वह मन्त्री पद पर था। केजरीवाल घोटाले में यदि कोई सबसे बड़ा संवैधानिक तौर पर तकनीकी पेंच है तो वह यही है कि मन्त्री पद पर रहते ही मिश्रा ने ‘भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो’ को खत लिख दिया था कि केजरीवाल ने दो करोड़ रुपए की रिश्वत उनकी आंखों के सामने कबूल की है, बेशक इसकी सार्वजनिक घोषणा उन्होंने मन्त्री पद से बर्खास्त होने के बाद की। संयोग से मीडिया की नजर में यह तथ्य प्रभावी तौर पर नहीं रहा मगर प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की इस पर पैनी निगाह है इसी वजह से भाजपा ने उपराज्यपाल को दिये गये अपने ज्ञापन में दिल्ली सरकार को बर्खास्त करने की मांग नहीं की है बल्कि ‘केजरीवाल’ और उनको रिश्वत देने वाले मन्त्री ‘सत्येन्द्र जैन’ को पद से हटाने की मांग की है मगर राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता के खेल में दिल्ली की प्रमुख पार्टियां केजरीवाल को और समय इसलिए देना चाहती हैं जिससे उनके सभी ‘राजनीतिक अस्त्र’ बाहर आ सकें क्योंकि असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने में केजरीवाल एंड पार्टी माहिर मानी जाती है। अत: राजनीतिक तौर पर भी माकूल जवाब देकर केजरीवाल को निहत्था किया जा सके वरना केजरीवाल और सत्येन्द्र जैन को बर्खास्त करने का उपराज्यपाल के पास वाजिब संवैधानिक कारण है जिसका जिक्र मैं दो दिन पहले कर चुका हूं। इसकी एक वजह और भी है कि पिछले दो साल में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को इस तरह छला है कि बड़े से बड़ा कपटी भी दांतों तले अंगुली दबा जाये। क्या ‘गुलछर्रे’ उड़ाये गये हैं दिल्ली की जनता से वसूले गये धन पर कि केजरीवाल एंड पार्टी के ‘पांच कारकुन’ विदेश यात्रा का शौक पूरा करते रहे और ‘ग्लोब’ को देख-देख कर ‘देशों’ का चयन करते रहे। क्या गजब का मन्त्री है सत्येन्द्र जैन कि दिल्ली के पांच गांवों की करीब 200 बीघा जमीन बेनामी तौर पर खरीद कर करोड़ों रुपये बनाने की तिकड़म भिड़ाता है और जब इसका हवाला मय सबूत के विधानसभा में विपक्ष के नेता बिजेन्द्र गुप्ता देते हैं तो अध्यक्ष उन्हें सदन से बाहर कर देते हैं। दिल्ली की सरकार ‘अली बाबा-चालीस चोर’ की तर्ज पर किसी सूरत में नहीं चलाई जा सकती। जिस ईवीएम के बूते पर दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की पार्टी के 67 सदस्य पहुंचने में सफल रहे वे आज सभी उसी ईवीएम को ‘चोर’ ठहरा रहे थे? अगर केजरीवाल में हिम्मत है तो वह अपनी सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों को अपनी ही पार्टी की ‘मुहल्ला समितियों’ में लेकर जायें और लोगों से पूछें कि उन्हें विधानसभा के सुरक्षित माहौल में ईवीएम बहाने के साये में सिर छुपाना चाहिए या जनता के सवालों का जवाब देना चाहिए। अगर केजरीवाल की अलीबाबा मंडली में हिम्मत है तो उन्हें इसी दिल्ली में पुन: चुनाव लड़कर विधानसभा में पहुंचने का जज्बा दिखाना चाहिए। इतना भी यदि नहीं किया जा सकता तो केजरीवाल कपिल मिश्रा की उस चुनौती को स्वीकार करें कि वह अपनी ‘मनपसन्द’ सीट का चुनाव करके पुन: अपने ‘मनपसन्द’ तरीके की मत प्रणाली से चुनाव लड़ें। दिल्ली सरकार के कामकाज पर ‘शुंगलू कमेटी’ की रिपोर्ट चीख-चीख कर कह रही है कि दिल्ली को लूटने दूसरा ‘अहमद शाह अब्दाली’ नमूदार हो चुका है जिसके साथी ‘लूट-खसोट’ में नये-नये ‘रोजनामचे’ लिख रहे हैं!