लद्दाख की गलवान घाटी में यदि चीनी सेनाएं 1.8 किलोमीटर पीछे हट गई हैं और अपने सैनिक साजो-सामान व तम्बू उखाड़ कर वापस चली गई हैं तो स्वीकार करना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लेह यात्रा का यह सफल परिणाम है जिसे सिरे चढ़ाने के काम में गृह मंत्री के रूप में अमित शाह की भूमिका भी टॉप पर रही है। हालांकि पृष्ठ भूमि में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी सूत्रधार रहे हैं। मोदी जी कमाल हैं। उन्होंने लेह के सैनिक शिविरों का दौरा करते समय चीन का नाम नहीं लिया था मगर साफ कर दिया था कि उसकी विस्तारवादी रणनीति सफल नहीं होगी और भारत की तरफ से माकूल जवाब दिया जायेगा। चीनी सेनाएं गलवान घाटी के उसी क्षेत्र से 1.8 कि.मी. पीछे हटी हैं जहां विगत 15 जून की रात्रि को उन्होंने भारत के बीस वीर सैनिकों को शहीद किया था। प्रत्युत्तर में भारतीय सेनाएं भी इतनी ही दूरी तक पीछे चली गई हैं।
जाहिर है कि भारत ने कूटनीतिक जरिये से एेसा करने में सफलता अर्जित की है जिसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ललकार, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के रणनीितक कौशल, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के मजबूर इरादों और गृह मंत्री अमित शाह के संकल्पों को दिया जाना चाहिए। दरअसल अमित शाह जी की हर मौके पर जो तैयारी है उसकी टाइमिंग बेहतर रहती है। यही वजह है कि ड्रैगन आज की तारीख में काबू है। इससे पहले एनएसए श्री डोभाल ने विगत रविवार को चीनी विदेश मन्त्री वाग-यी से बातचीत की थी और उसके बाद ही चीन ने यह फैसला किया। सारी रणनीति को लेकर मोदी जी अपने विश्वसनीय सहयोगी अमित शाह जी से पूरी बातचीत कर रहे थे और चीन की एक-एक चाल को लेकर पूरा फीड बैक लिया जा रहा था। उम्मीद की जानी चाहिए कि चीनी सेनाएं पेगोंग-सो झील और दौलतबेग ओल्डी के देपसंग पठारी क्षेत्र में भी ऐसा ही करेंगी और भारतीय क्षेत्र से पीछे हट जायेंगी। चीन का गलवान घाटी में पीछे हटना बताता है कि उसने अपना यह दावा वापस ले लिया है कि पूरी गलवान घाटी ही उसकी है। सैनिक रणनीति के लिहाज से चीनी नजरिये में यह गुणात्मक परिवर्तन कहा जायेगा जो इस मुद्दे पर भारतीय नजरिये को सही ठहराता है।
भारत शुरू से ही कह रहा है कि चीनी भारतीय क्षेत्र में घुस आये हैं जिसकी वजह से 15 जून का संघर्ष हुआ और हमारे बीस सैनिक शहीद हुए। ये सैनिक भारत भूमि की रक्षा करते हुए ही वीरगति को प्राप्त हुए थे। इनकी शहादत का जवाब चीन को देना ही पड़ता और 1.8 कि.मी. पीछे हट कर उसने मान लिया है कि वह गलत रास्ते पर था। हालांकि नियन्त्रण रेखा पर चीनी हरकतों का जवाब देने को लेकर भारत में सरकार की आलोचना भी हुई है और कई दीगर सवाल भी पूछे गये हैं मगर इन सभी सवालों का जवाब चीन को पीछे हटने के लिए मजबूर करके दे दिया गया है। यह प्रधानमन्त्री मोदी का अपना अन्दाज हो सकता है कि उन्होंने चीन को जवाब देने में कूटनीतिक रास्ते का इस्तेमाल इस ढंग से किया कि रणनीतिक मोर्चे पर हमारी सेना का मनोबल लगातार मजबूत बना रहे और गंभीर सैनिक संघर्ष को भी होने से टाला जा सके। निश्चित रूप से दुश्मन को देख कर ही पैंतरा तय करने को युद्ध नीति व रणनीति कहते हैं।
चीन के खिलाफ पूरे भारत के एक साथ उठ कर खड़ा होने का विश्वास ही राजनीतिक नेतृत्व में आत्मविश्वास भर रहा था जिससे आलोचना की परवाह न करते हुए श्री मोदी ने अपने पत्ते चले और सफलता पाई किन्तु निश्चित रूप से अभी यह शुरूआत है क्योंकि पेगोंग-सो व दौलतबेग ओल्डी इलाके में भी वही प्राप्त किया जाना है जो गलवान में किया गया, परन्तु इससे इतना तो तय हो ही गया है कि चीन ने सिद्धान्त रूप से स्वीकार कर लिया है कि उसने भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण किया था, जिसकी वजह से सीमा क्षेत्र में तनाव व हिंसा का वातावरण बन रहा था। कूटनीति में यह स्वीकारोक्ति बहुत महत्वपूर्ण होती है, चाहे बेशक यह सांकेतिक ही क्यों न हो और उसका असर रणनीति पर पड़े बिना नहीं रह सकता। भले ही श्री अमित शाह गृह मंत्री हों लेकिन कूटनीति को लेकर वह बराबर मोदी जी को समय-समय पर फीडबैक देते हैं। इसके बाद ही आगे की कूटनीतिक रणनीति तय होती है।
लद्दाख में नियन्त्रण रेखा का मामला स्थानीय नहीं था और इसका विस्तार सिक्किम से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक हो गया था। अतः श्री डोभाल का मोर्चा संभालना तार्किक कहा जा सकता है। इसकी एक वजह और भी थी जिस प्रकार चीन अपनी गतिविधियों की तार्किकता सिद्ध करने में लगा हुआ था, उससे उस वृहद वार्ता तन्त्र की सार्थकता को सिद्ध किया जा सकता था जिसका उद्देश्य सीमा विवाद हल करना ही है मगर यह भी जरूरी है कि चीन स्वीकार करे कि वह लद्दाख में खिंची मान्य नियन्त्रण रेखा को कहीं भी बदलने का प्रयास नहीं करेगा। गृह मंत्री अमित शाह और एनएसए डोभाल ने चीन के मोर्चे पर मोदी के धनुर्धर की भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है और इस तरह निभाई है कि भारत-चीन के सम्बन्धों में और ज्यादा खटास पैदा न हो सके। सवाल केवल यह है कि चीन पूरी नियंत्रण रेखा पर वैसा ही व्यवहार करे जैसा उसने गलवान में किया है। उसे यह सोचना होगा कि जिस तरह उसे अपने क्षेत्र में सैनिक निर्माण करने का अधिकार है और सीमा पर आधारभूत ढांचा मजबूत करने का हक है, ठीक वैसा ही अधिकार भारत को भी है। दोनों देशों के बीच में 1993 से लेकर अभी तक जितने भी पांच समझौते हुए हैं सबकी भावना यही है कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच किसी हालत में भी तनाव की स्थिति न बने और सीमा पर प्रेम व सौहार्द का वातावरण बना रहे। चीन को यह तो अब मानना ही होगा कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है! यह भारत आर्थिक तरक्की भी चाहता है और सामरिक सामर्थ्य भी चाहता है मगर अपने सम्मान को सर्वाधिक महत्व भी देता है क्योंकि यह एक जीवन्त लोकतन्त्र है जिसमें राष्ट्र की परिकल्पना आम लोगों की सामर्थ्य और शक्ति को केन्द्र में रख कर भौगोलिक सीमाओं की सुरक्षा करती है।