भारत में राज्यसभा चुनाव लगातार परोक्ष सौदेबाजी का खेल बनते जा रहे हैं। लोकतन्त्र के लिए यह स्थिति चिन्ताजनक इसलिए है कि किसी भी चुनाव में अब धनतन्त्र का प्रत्यक्ष प्रभाव इस प्रकार दिखने लगा है कि ग्राम प्रधान का चुनाव भी इस बीमारी से अछूता नहीं रहा है। भारत में द्विसदनीय संसद की स्थापना हमारे संविधान निर्माताओं ने इसलिए की थी जिससे भारत की विशाल सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता का प्रतिनिधित्व इसमें विभिन्न राज्यों की राजनीतिक स्थिति के अनुसार हो सके। प्रत्यक्ष रूप से आम मतदाताओं द्वारा चुने गये सदन लोकसभा को सरकार के गठन व पतन की जिम्मेदारी देते हुए स्वतन्त्र भारत में राज्यसभा के गठन का उद्देश्य यही था कि विभिन्न राज्यों की आवाज को संसद में समुचित स्थान दिया जाये और उन्हीं राज्यों के चुने गये विधायक इन राज्यसभा सांसदों का चुनाव करें।
जाहिर है कि विधानसभा में दलगत आधार पर ही विधायक चुन कर आते हैं। अतः उनके द्वारा चुने गये राज्यसभा सांसदों की जय-पराजय का आधार भी यही राजनीतिक दलगत बल होगा किन्तु एक नया ‘इस्तीफा फार्मूला’ इजाद हुआ है जो जनमत और जनादेश दोनों की धज्जियां इस तरह उड़ा रहा है कि लोकतन्त्र स्वयं हक्का-बक्का होकर सिर्फ ‘तन्त्र’ बन कर रह गया है। इस तकनीक का इस्तेमाल कर्नाटक में पिछले साल इतनी सफाई से हुआ था कि वहां की कांग्रेस-जनता दल (एस) की कुमारस्वामी सरकार के नीचे से गलीचा खिसक कर ‘अलादीन का उड़ने वाला जादुई कालीन’ बन गया और नये मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा उस पर हवा में ही सवार हो गये और आराम से विधानसभा में उतर गये। इसी तरह हाल ही में विगत मार्च महीने में मध्यप्रदेश में कांग्रेसी मुख्यमन्त्री कमलनाथ को इस्तीफा तकनीक से ही गद्दी से उतार दिया गया और जनाब शिवराज सिंह चौहान फिर से गद्दीनशीं हो गये। यह चमत्कारी यन्त्र अब गुजरात में भी कमाल कर रहा है। हालांकि इसका उद्देश्य दूसरा है। यहां की चार राज्यसभा सीटों का चुनाव आगामी 19 जून को होना है और इससे पहले ही कांग्रेस के सात विधायक इस्तीफा देकर यह कहते हुए चले गये हैं कि उनका पार्टी में दम घुट रहा है या उनकी बात अनसुनी की जा रही है। इससे यह होगा कि कांग्रेस का केवल एक प्रत्याशी ही राज्यसभा में चुन कर जा सकेगा। जनता द्वारा विधानसभा में कांग्रेस के 70 से ज्यादा विधायक जिता कर भेजे गये थे जो अब घट कर 66 रह गये हैं 173 सदस्य शक्ति वाली विधानसभा में भाजपा के 103 सदस्य हैं । अतः नियमानुसार जिस प्रत्याशी को प्रथम वरीयता के 35 वोट मिल जायेंगे वही विजयी घोषित होगा। इस हिसाब से कांग्रेस का एक व भाजपा के दो सदस्य सीधे जीतेंगे जबकि चौथे के ले दोनों पार्टियों में कशमकश होगी। इसमें भी भाजपा का पलड़ा ऊंचा रहेगा क्योंकि उसे सिर्फ दो वोटों की जरूरत होगी जबकि कांग्रेस को चार वोटों की जरूरत होगी। मार्च से लेकर अब तक कांग्रेस के सात सदस्य इस्तीफा दे चुके हैं इसलिए गणित सीधा-सादा है कि विधानसभा के चार छोटे दलों के विधायकों के वोट लेने की कोशिश दोनों ही पार्टियां करेंगी। इसमें सत्तारूढ़ दल होने की वजह से भाजपा का पलड़ा ही भारी रहेगा। इस प्रकार भाजपा कांग्रेस से एक सीट बैठे-बिठाये छीन लेगी। गुजरात में तो गनीमत है कि दो किस्तों में सात विधायक इस्तीफा देकर अपनी पार्टी की आलोचना करते हुए घर बैठे हैं और उन्हें किसी होटल या पर्यटन स्थल पर मौज-मस्ती नहीं कराई जा रही है वरना कर्नाटक और मध्यप्रदेश में इस्तीफा देने वाले विधायक तो ‘ईद का चांद’ बना दिये गये थे और उन्हें देखना तक दूभर हो गया था। इस्तीफा देने का जो समीकरण राजनीति में पैदा हो रहा है वह लोकतन्त्र को किसी मंडी में ही तब्दील करके चैन ले सकता है। अतः सबसे बड़ा खतरा यही है कि चुनावी प्रत्याशियों में राजनीतिक प्रतिबद्धता होनी चाहिए मगर गुजरात ने शंकर सिंह वाघेला जैसे सूरमा पैदा किये हैं जिन्होंने 90 के दशक में राज्य की राजनीति में एेसा ‘पर्यटन दौर’ शुरू किया कि उसका अनुकरण अब हर उस राज्य में हो रहा है जहां भी जनादेश के खिलाफ हुकूमत काबिज करनी होती है। हुजूर ने तब भाजपा छोड़ कर अपनी राष्ट्रीय जनता पार्टी बनाई थी और भाजपा की केशूभाई पटेल सरकार गिरा कर अपनी सरकार बनाई थी। बाद में हुजूर कांग्रेस में शामिल हो गये फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस में चले गये और अब फिर से किस पार्टी में जायेंगे कुछ नहीं पता।
दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने िवगत मार्च महीने में ही कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का जब दामन पकड़ा तो उनके साथ 22 कांग्रेसी विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। तब जम कर इन विधायकों ने पर्यटन का मजा लिया और कमलनाथ सरकार को गिरा दिया मगर श्रीमान सिन्धिया ने राज्य के अतिथि शिक्षकों को पक्का कराने का जो वादा किया था वह शिवराज सिंह ने पूरा करने से मना कर दिया और ये शिक्षक अब लाॅकडाऊन के खत्म होते ही श्री कमलनाथ को ज्ञापन देकर आये कि वह अपने अधूरे छोड़े गये काम को पूरा करने के लिए शिवराज सिंह पर दबाव डालें। यह उदाहरण है कि इस्तीफे की राजनीति किस प्रकार आम जनता के विश्वास को तोड़ती है और लोकतन्त्र को लंगड़ा बनाती है।