और रावण फिर फुंक गया! - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

और रावण फिर फुंक गया!

विजयदशमी या दशहरे पर पूरे भारत के विभिन्न असंख्य स्थानों पर रावण फूंक दिया गया। हर वर्ष की भांति इस बार भी यह परंपरा निभा दी गई कि दशहरा ‘बुराई पर अच्छाई’ की विजय का प्रतीक है।

विजयदशमी या दशहरे पर पूरे भारत के विभिन्न असंख्य स्थानों पर रावण फूंक दिया गया। हर वर्ष की भांति इस बार भी यह परंपरा निभा दी गई कि दशहरा ‘बुराई पर अच्छाई’ की विजय का प्रतीक है। परन्तु इसके समानान्तर हम यह भी रोज देखते हैं कि अच्छाई कहीं एक कोने में दुबक कर सुबक-सुबक कर कराहती रहती है। भौतिक विकास की दौड़ में मानवीय सम्बन्ध जिस प्रकार तार-तार हो रहे हैं उनकी चपेट में ग्रामीण परिवार तक आ रहे हैं। दशहरे का सबसे बड़ा सन्देश समाज में नैतिक मर्यादाओं का पालन करते हुए उसे आमजन के लिए सुरम्य स्थान बनाने का है। भारतीय संस्कृति में जन मूलक शासन की व्यवस्था का विधान आदिकाल से ही इस प्रकार रहा है कि राजा और रंक के अधिकारों में समानता का भाव रहे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण हमें राम-रावण युद्ध में ही मिलता है और इस युद्ध का कारण भी आमजनों के अधिकारों का हनन ही है। भारतीय संस्कृति का यह पहला जन युद्ध भी कहा जा सकता है जिसमें सप्तद्वीप पति लंकेश रावण की सर्वभांति सुसज्जित सेना का मुकाबला श्री राम ने आदिवासी बानरों व भालुओं (प्रतीक स्वरूप) की सेना से किया और विजयश्री का वरण किया। रावण ने वन में विहार करते दो वनवासी भाइयों के साथ छल-कपट करते हुए द्रोह किया और श्री राम की पत्नी सीता जी का हरण करके एक सामान्य व्यक्ति के अधिकारों को रौंदा। रावण बहुत बलशाली और महापंडित था और शास्त्रों का महाज्ञाता था इसके बावजूद उसमें अपने राजा होने का अभिमान भरा हुआ था। यही अभिमान उसके सारे ज्ञान को खा गया और उसने दो वनवासी भाइयों के साथ न्याय करने पर कोई ध्यान नहीं दिया।  रावण चाहता तो उसके लिए सीता को लौटाना बहुत साधारण घटना हो सकती थी परन्तु उसने एक पराई स्त्री के साथ अपने पूरे राज्यशासन की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया। उसका यह कृत्य नीति शास्त्र के पूर्णतः विरुद्ध था परन्तु फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ा रहा और स्वयं को नीति निपुण भी कहलाता रहा। अंत में अभिमान ही उसके विनाश का कारण बना और भारत में यह रावण का अभिमान लोकोक्ति बन गई। 
वर्तमान भारत में हम स्वतन्त्र नागरिक हैं मगर अपने ही समाज के कुछ लोगों को उनकी जाति के कारण निम्न या ‘दास संज्ञा’ तक में देखने की घृष्टता करते हैं। आजादी के 75 वर्ष बाद भी यदि भारत से जाति प्रथा में कहीं कोई फर्क देखने को नहीं मिल रहा है तो उसके केवल सामाजिक कारण नहीं है बल्कि एक नया राजनैतिक कारण भी जुड़ चुका है। लोकतन्त्र की व्यवस्था में जनता का ही शासन होता है। सामाजिक व आर्थिक गैर बराबरी को समाप्त करना इसका अन्तर्निहित लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य को पाने के लिए हमें सत्तामूलक राजनीति के रास्ते को चुनना पड़ता है। यह रास्ता हमें समाज में  दबे-कुचले व पिछड़े समाज के लोगों को सत्ता में भागीदारी देने की प्रेरणा देता है जिससे संपूर्ण समाज सामयिक रूप से आगे बढ़ता हुआ गैर बराबरी की भावना को समाप्त करे परन्तु इसका सम्बन्ध मानसिकता से भी जाकर जुड़ता है । जातिगत मानसिकता हमें समाज के इस विकास क्रम को स्वीकार नहीं करने देती और हम लौट-लौट कर पुनः जाति मूल के अभिमान में फंसते रहते हैं। क्या यह प्रश्न आज तक राजनैतिक स्तर पर उठाने का गंभीर प्रयास किया गया है कि भारत में अन्तर्जातीय विवाहों के क्या आंकड़े हैं जबकि संविधान में जातिविहीन समाज की संरचना के लिए समाज अधिकारिता मन्त्रालय को एेसे विवाहों को प्रोत्साहन देने की व्यवस्था की गई है। 
इस तरफ कोई राजनैतिक दल बात नहीं करना चाहता क्योंकि इसमें वोट बैंक की राजनीति चौपट होती दिखाई पड़ती है। जब अन्तर्जातीय विवाहों के बारे में हम संवेदनहीन हैं तो अंतर्धार्मिक विवाहों के बारे में सोचना भी आसमान से तारे तोड़ने के बराबर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्लाम धर्म की कट्टर मुल्ला- मौलवी ब्रिगेड इस कार्य में एेतिहासिक काल से ही हिन्दू धर्म के अनुयायियों के प्रति असहिष्णु रही है और एेसे विवाहों को केवल इस्लामी रस्मोरिवाज के अनुसार कराये जाने पर ही वैध मानती है अर्थात धर्म परिवर्तन उनका लक्ष्य रहा है जबकि हिन्दू समाज में इसके विपरीत अवधारणा रही है। इसका कारण भी हिन्दू धर्म का उदात्त व सर्वग्राही दर्शन है जिसमें मानवता वाद को केन्द्र में रखते हुए ‘अहम् ब्रहास्मि’ का अभीष्ट है। यह तथ्य हमें स्वीकार करना चाहिए कि अकबर के बाद जहांगीर के शासन तक में अन्तरधार्मिक हिन्दू-मुस्लिम विवाहों का प्रचलन हो चुका था जिसे समाज में मान्यता भी मिल चुकी थी, मगर शाहजहां के शासनकाल में मुल्ला-मौलवियों और काजियों की तूती बोलने लगी तो उन्होंने शाहजहां से कह कर हिन्दू-मुस्लिम विवाहों पर प्रतिबन्ध लगाने का फरमान जारी करा दिया। इसके बाद औरंगजेब ने तो शरीया के मुताबिक अपनी सल्तनत चलाने की तरकीबें निकालनी शुरू कीं जिसमें उसे सफलता नहीं मिल सकी मगर इसके बाद 1947 के आते-आते भारत मजहब के नाम पर ही बंट गया और पाकिस्तान तक बन गया। लेकिन आज का हिन्दोस्तान भी जिस तरह से हिन्दू-मुस्लिम खेमों में बंट रहा है वह भारतीय संस्कृति की अवमानना का ही प्रतिफल कहा जा सकता है। 
भारत के मुसलमान मूलतः भारतीय हैं और उनकी जन्म स्थली भारत ही है। अतः इसकी रवायतों व परंपराओं में उनका भी रमा होना स्वाभाविक है जो मुल्ला-मौलवियों को जरा भी रास नहीं आता है और उन्हें अपना दीन खतरे में नजर आने लगता है जबकि इसमें भारत की संस्कृति का ही मान ऊंचा होता है और प्रत्येक नागरिक का भारत की धरती से जुड़ाव झलकता है। अतः जरूरी है कि हम दशहरे पर साम्प्रदायिकता का रावण फूंकने का भी प्रण लें और भारतीय संस्कृति का उसी प्रकार सम्मान करें जिस तरह कभी बादशाह अकबर ने किया था। जब अकबर से ईरान के शहंशाह ने पूछा था कि वह बतायें कि वह सुन्नी मुसलमान हैं या शिया मुसलमान हैं, तो उसने उत्तर लिखवा कर भिजवाया था वह ‘हिन्दोस्तानी मुसलमान’ हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

11 + 5 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।