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फौज, चुनाव और डा. लोहिया !

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चुनावी मौसम में जब सत्ताधारी और विपक्षी दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलाते हैं तो भूल जाते हैं कि जनता पिछले पांच साल का हिसाब-किताब भी देख रही है और संसद से लेकर सड़क तक सभी दलों का आचार-व्यवहार भी जांच रही है। यह हकीकत है कि पिछले पांच सालों में राजनीति का स्तर इस कदर गिरा है कि वर्तमान चुनावी वातावरण में कोई मुद्दा कहीं ठहर ही नहीं रहा है। भारत के महान लोकतन्त्र के लिए इससे बड़ी शर्म की बात कुछ और नहीं हो सकती कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मतदाताओं को हिन्दू और मुसलमान में बांट कर चुनावी वैतरणी पार कर जाना चाहते हैं। मगर ये लोग भूल रहे हैं कि 1947 में मजहब के आधार पर पाकिस्तान के बन जाने के बावजूद भारत ने स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था और नये गणतान्त्रिक संविधान लिखने का अधिकतम कार्य आजादी मिलने के बाद ही पूरा किया गया था।

यह महत्वपूर्ण कार्य बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही किया था जिसमें हर हिन्दू-मुसलमान को बराबर के हक दिये गये थे। अतः सत्तर साल बाद यदि हम फिर से हिन्दू-मुसलमान की राजनीति पर उतर जाते हैं तो इसके परिणाम क्या हो सकते हैं ? इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। अतः आज सबसे बड़ी जरूरत ऐसे ही राजनीतिज्ञों को रास्ते पर लाने की है जो वोट की खातिर किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार बैठे हैं। असल सत्य यह है कि कोई भी देश फौज के बूते पर अपनी एकता कायम नहीं रख सकता बल्कि लोगों के बूते पर ही इसकी एकता कायम रहती है और इसी एकता को कायम रखते हुए पिछले सत्तर सालों में भारत ने तरक्की के विभिन्न रास्तों को नापने में सफलता प्राप्त की है। समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया अक्सर एक बात कहा करते थे कि ‘देश वह मजबूत होता है जिसके लोग मजबूत होते हैं और उनमें आपसी भाईचारा मजबूत होता है।

वह देश कभी मजबूत नहीं हो सकता जिसके लोग आपस में एक-दूसरे को आशंका की नजर से देखते हों। ऐसे देश में राजनीति कभी भी लोगों के हाथ में नहीं रह सकती और उस पर चन्द पूंजीपतियों का कब्जा होना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है क्योंकि राजनीतिज्ञों के मन से जनता का डर निकल जाता है जबकि लोकतन्त्र में राजनीतिज्ञों में जनता का डर हमेशा समाया रहना चाहिए जिससे वे अपने काम को न्यायपूर्वक कर सकें। इसके लिए जरूरी शर्त लोगों की आपसी एकता की मजबूती ही होती है जिससे वे अपने संवैधानिक अधिकारों को जायज तरीकों से हासिल कर सकें’ परन्तु हम देख रहे हैं कि चुनावी प्रचार में अचानक फौज की चर्चा सबसे ज्यादा हो रहा है। राजनैतिक व्यवस्था के तहत जब हम फौज की कार्रवाई को मुद्दा बनाते हैं तो स्वाभाविक रूप से राजनैतिक मोर्चे पर ही अपनी कमजोरी का परिचय दे देते हैं क्योंकि इस मोर्चे पर हमारे पास या तो कहने के लिए कुछ नहीं होता अथवा हमारा राजनैतिक विमर्श इतना कमजोर होता है कि लोग उस तरफ ध्यान देने को तैयार ही नहीं होते।

देश की रक्षा करना केवल राजधर्म होता है जिसे हर पार्टी की सरकार को सत्ता में रहते निभाना पड़ता है परन्तु इसके साये में हम लोगों की मूल समस्याओं से ध्यान नहीं भटका सकते। इसका प्रमाण भी डा. लोहिया ने 1963 में लोकसभा में प्रवेश करते ही दिया था। भारत 1962 में चीन से युद्ध हार चुका था और इसके बाद हुए उपचुनाव में वह जीत कर जब लोकसभा में पहुंचे तो उन्होंने सबसे पहले यह प्रश्न उठाया कि भारत के प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू पर एक दिन में 25 हजार रुपये का खर्चा आता है जबकि सामान्य भारतीय अपना जीवन तीन आने रोज पर गुजारता है, हालांकि डा. लोहिया ने एक पर्चा छाप कर यह दावा किया था मगर इससे संसद में एक नई बहस चल गई जिसे तीन आना बरक्स 12 आने कहा गया क्योंकि योजना आयोग ने प्रत्येक भारतीय की आय 12 आने रोज बताई थी। प. नेहरू जैसा दूरदृष्टा राजनेता इससे विचलित न होता यह संभव नहीं था।

अतः उन्होंने योजना आयोग का पुनर्गठन किया और प्रख्यात समाजवादी चिन्तक स्व. अशोक मेहता को इसका उपाध्यक्ष बनाया। चीन से युद्ध हार जाने के बाद भी डा. लोहिया का जोर आम आदमी को ही मजबूत बनाने पर था। इसकी वजह यही थी कि मजबूत लोगों के देश में ही मजबूत फौज तैयार हो सकती है। अतः आज असल मुद्दा यही है कि बेरोजगार युवकों को रोजगार मिले और औसत भारतीय की आमदनी खासकर किसान की आमदनी में वृद्धि हो और शिक्षा पर सर्वाधिक जोर दिया जाये जिससे भविष्य में गुरबत व दकियानूसीपन समाप्त हो सके और भारत एक वैज्ञानिक सोच वाला देश बन सके। मगर कयामत है कि कोई टीवी चैनल भी इस मुद्दे पर बहस करने को तैयार नहीं है कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में क्या सोचकर सकल विकास उत्पादन का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का ऐलान किया है?

क्या भारत में ऐसी ही शिक्षा पद्धति जारी रहेगी जिसमंे केवल अमीरों के बच्चे ही लाखों रुपये खर्च करके उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें और गरीब चपरासी का मेधावी बेटा पढ़-लिखकर भी चपरासी बनने को मजबूर हो। यह आरक्षण जो हमने बहुत ही सुविधाजनक तरीके से धनाड्यों के हक में बिना लिखे ही कर दिया है इसे कौन समाप्त करेगा? बिना शक इसका जिक्र संसद में वर्तमान समाजवादी नेता श्री शरद यादव प्रायः करते रहते थे और इसके साथ ही घर में ‘मां’ को अधिकार सम्पन्न व मजबूत बनाने की बात करते थे जिससे समाज को बदलने में आसानी हो सके।

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