जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लम्बित हैं। बहुत से स्वर उठ रहे हैं। पाकिस्तान की बौखलाहट खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे जैसी हो गई है। चौतरफा फजीहत से उसकी बौखलाहट समझ में आ रही है। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं को 7 न्यायाधीशों की वृहद पीठ के पास भेजने के लिए याचिका दायर की गई थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि चुनौती याचिकाओं को वृहद पीठ के हवाले करने की कोई वजह नहीं, इस मामले की सुनवाई 5 जजों की पीठ ही करेगी। सुप्रीम कोर्ट की पीठ अनुच्छेद 370 हटाए जाने के मामले पर क्या फैसला देती है, इसका पता तो फैसला आने पर ही चलेगा।
मेरा व्यक्तिगत विचार है कि अस्थायी अनुच्छेद 370 हटाए जाने के मामले पर सुनवाई की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि यह अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए एक संवैधानिक संशोधन है। जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में सामरिक दृष्टि से उपज रहे राष्ट्र विरोध और आतंकवाद के खूनी खेल को खत्म करने के लिए यह जरूरी भी था। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद केन्द्र शासित जम्मू-कश्मीर में स्थिति लगातार सुधर रही है। शिक्षण संस्थान खुल चुके हैं और भविष्य में स्थिति में और सुधार आने की उम्मीद है। आतंकवादी घटनाओं पर भी काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1947 में एक खता कर दी थी कि कश्मीर का मामला वह खुद देखेंगे। उनकी इस भूल ने कश्मीर के मामले से सरदार पटेल को दूर कर दिया था। अगर यह मामला सरदार पटेल के पास होता तो उन्हीं 1947 के चंद लम्हों में यह मामला कब का सुलझ गया होता। सरदार पटेल के सामने महाराजा हरि सिंह और उनके वजीर कोई मायने नहीं रखते थे? जिस सरदार पटेल ने हैदराबाद के निजाम जैसे अकड़ू को आधी रात को पानी पिला िदया था, उनके सामने बड़ों-बड़ों का कद छोटा हो जाता था।
पंडित नेहरू ने कश्मीर का 2/5 हिस्सा पाकिस्तान को दे डाला। मामला संयुक्त राष्ट्र ले जाया गया और जनमत संग्रह तक की बात कर दी। अनुच्छेद 370 के चलते ही जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की धारणा पुख्ता हुई क्योंकि इससे वहां के लोगों को उन अधिकारों से वंचित रखा गया जो पूरे भारत के नागरिकों को मिलते हैं। मैं अब इतिहास में नहीं जाना चाहता।पिछले वर्ष 5 अगस्त को केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला किया था। गृहमंत्री अमित शाह ने एक झटके में वह कर दिखाया था जिसे करने की हिम्मत आजादी के बाद कोई भी गृहमंत्री नहीं कर पाया। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति से अधिसूचना जारी करने के बाद उन्होंने राज्य काे पुनर्गठित करने का विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किया थाजिसे 61 के मुकाबले 125 मतों से पारित कर दिया गया था।
अमित शाह ने चार घंटे तक चली चर्चा के उत्तर में सदन में बैठे विपक्ष के दिग्गज वकील सांसदों को भी यह कहकर चुनौती दी थी कि विशेष दर्जे से संबंधित अनुच्छेद 370 और 35-ए को समाप्त करने का फैसला न्यायालय की परीक्षा पर भी खरा उतरेगा क्योकि इसमें संवैधानिक तौर पर कहीं कोई बाधा नहीं है। यह फैसला उस परीक्षा में भी खरा ही उतरेगा क्योंकि जहां 35-ए कश्मीरी नागरिकता और नागरिकों के अधिकारों का निर्धारण करता है जिसके आधार पर इस राज्य का पृथक संविधान अनुच्छेद 370 के तहत लिखा गया था जिसे नवम्बर 1956 में लागू किया था, परन्तु अनुच्छेद 370 नवम्बर 1949 में ही भारतीय संविधान में जोड़ दिया गया था और उसे तत्कालीन संविधान सभा ने अनुमति दी थी जो 26 जनवरी, 1950 के बाद लोकसभा में परिवर्तित हो गई थी।
इसी प्रकार 1952 में हुए पहले चुनावों के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा भी 1954 में संविधान सभा में परिवर्तित कर दी गई थी। महबूबा की पीडीपी और भाजपा गठबंधन सरकार टूटने के बाद जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू है और अतः सारे अधिकार संसद के पास थे। अमित शाह ने पूरी तरह चाणक्य नीति पर अमल करते हुए कश्मीर समस्या को जड़ से समाप्त करने का फैसला किया। एक तरफ उन्होंने जम्मू-कश्मीर राज्य में पूरी तरह नागरिक शांति बनाए रखने के लिए प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं को घाटी में ही समेट दिया और अलगाववादियों काे गिरफ्तार किया।
अमित शाह ने ठीक उसी तरह कार्रवाई की जिस तरह आजादी के बाद जूनागढ़ रियासत को देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने भारतीय संघ में मिलाने के लिए की थी। जम्मू-कश्मीर को दो राज्यों में बांटकर पाकिस्तान परस्त सियासतदानों के हाथ से स्वायत्तता और रायशुमारी कराने का हथियार हमेशा के लिए छीन लिया। अनुच्छेद 370 हटाने का काम तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था जो पिछले वर्ष हुआ। लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर संसद है और संसद को अपने देश के भीतर कानून बनाने का अधिकार है, फिर कुछ संगठन बेवजह शोर-शराबा क्यों मचा रहे हैं?