भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार श्री अरविन्द सुब्रह्मण्यम ने अपना कार्यकाल पूरा होने से लगभग एक वर्ष पहले ही इस्तीफा देने की मंशा जाहिर करके साफ संकेत दे दिया है कि वह वर्तमान आर्थिक माहौल पर चालू चुनावी वर्ष में संभावित तीखी बहस से स्वयं को दूर रखना चाहते हैं। इसकी वजह उन्हीं के द्वारा चालू वित्त वर्ष के उस आर्थिक सर्वेक्षण में छुपी हुई है जो संसद के पिछले बजट सत्र में रखा गया था। इसमें उन्होंने भारत के ग्रामीण व कृषि क्षेत्र में उपजी बेचैनी का जिक्र करते हुए कारगर उपाय किये जाने की जरूरत भी बताई थी। भारतीय अर्थव्यवस्था की सकल विकास वृद्धि दर को लेकर जिस प्रकार के मतान्तरों से इसकी गति का निर्धारण किया जाता है उसे लेकर भी श्री सुब्रह्मण्यम के विचारों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है।
उनके इस मत का सभी आर्थिक विद्वानों ने स्वागत भी किया कि निजी निवेश में आयी कमी को दूर करने के लिए सार्वजनिक निवेश की गति को बढ़ाया जाये मगर रोजगार बढ़ने के अवसरों के मामले में उन्होंने अपने विचारों को छुपाना ठीक नहीं समझा और बजट के बाद अपनी प्रतिक्रिया में साफ किया कि इस मोर्चे पर अपेक्षित सफलता मिलने के आसार बहुत कम नजर आ रहे हैं। बेशक यह कहा जा सकता है कि जनधन बैंक खातों से लेकर आधार कार्ड योजना व जीएसटी आदि कार्यक्रमों को सफल बनाने मंे उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मगर वह भारत की संघीय अर्थव्यवस्था में राज्यों की प्रभावी हिस्सेदारी के भी समर्थक माने जाते थे। भारत की भौगोलिक व सामाजिक-आर्थिक विविधता को देखते हुए यह प्रश्न एेसा है जिसका सम्बन्ध राष्ट्रीय अखंडता से भी जुड़ा हुआ है। राज्यों की आर्थिक सक्षमता और सामर्थ्य सकल रूप से भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करने में योगदान करता है क्योंकि उसका अंशदान राष्ट्रीय वृद्धि में शामिल होता है।
अतः श्री सुब्रह्मण्यम का यह मत व्यक्त करना कि प्रत्येक राज्य में आर्थिक सलाहकार कार्यालय की स्थापना किया जाना आगे जाने वाला कदम होगा, वर्तमान संदर्भों से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। कुछ क्षेत्रों में यह चर्चा रही है कि सरकार के एक हजार और पांच सौ रु. के बड़े नोटों को बन्द करने के फैसले को उनका समर्थन नहीं था। वास्तव में यह फैसला एेसा आर्थिक निर्णय था कि जिसके ‘सामाजिक प्रभाव’ ज्यादा थे। भारत की सामाजिक-आर्थिक विषमता के चलते नोटबन्दी के फैसले को जिस तरह सामान्य जनता का फौरी समर्थन मिला था उसकी वजह समाज में फैली घनघोर आर्थिक विषमता थी परन्तु अर्थव्यवस्था पर इसके सकारात्मक प्रभावों की ठोस उम्मीद करना इसलिए उचित नहीं था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसकी वजह से पूरी तरह सूख गई थी। इसके पुनः हरा-भरा होने में जो लम्बा समय लग रहा है उससे छोटे उद्योग-धन्धों से लेकर रोजगार की हालत पर अब भी असर देखा जा सकता है।
जहां तक इलैक्ट्रानिक पद्धति या डिजिटल लेन-देन का सवाल है तो उसका सम्बन्ध सीधे आम आदमी के आर्थिक सशक्तीकरण से जुड़ा हुआ है। अतः अरविन्द सुब्रह्मण्यम इस मोर्चे पर ज्यादा उत्साहित कभी भी नजर नहीं आये और उन्होंने हमेशा नपे-तुले शब्दों में ही अपनी बात रखने की कोशिश की। बैंकों के कामकाज को लेकर उनकी मान्यता और रिजर्व बैंक की मान्यता में साफ फर्क नजर भी आया। भारत में बैंकिंग प्रणाली बहुत मजबूत रही है। बैंकों के 1969 में किये गये पहले राष्ट्रीयकरण के बाद यह साफ हो गया था कि बैंकों में जमा धन पर केवल कुछ बड़े उद्योगपतियों का अधिकार नहीं हो सकता है। इस धन का उपयोग सामान्य जन की उत्पादनशीलता और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए इस प्रकार होना चाहिए कि आम नागरिक में उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलने के साथ रोजगार के नये अवसर भी उपलब्ध हों। बैंकों पर आम नागरिकों का अटूट विश्वास हो जिससे छोटी बचतों में लगातार वृद्धि दर्ज होती रहे परन्तु इस मोर्चे पर अब पहिया उल्टा घूमने लगा है जिससे सर्वत्र आर्थिक माहौल लड़खड़ाने की तरफ बढ़ता नजर आ रहा है।
बैंकों में जिस तरह लाखों करोड़ रु. बट्टे खाते में डाले जा रहे हैं उसका अर्थ यही है कि एक तरफ कार्पोरेट जगत को बैंक भारी जोखिम उठा कर भी पाल-पोस रहे हैं और दूसरी तरफ सामान्य नागरिक के मन में उसकी छोटी बचतों के सुरक्षित रहने में संशय पैदा कर रहे हैं। यह स्थिति समूचे आर्थिक माहौल में नकारात्मकता को बढ़ावा दे रही है लेकिन इसके समानान्तर बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र को दिये जाने वाले ऋण में लचीला रुख नजर नहीं आता है। बेशक हर साल के बजट में इस मद में ऋण लक्ष्य में वृद्धि कर दी जाती है किन्तु धरातल पर किसानों की माली हालत में लगातार गिरावट ही दर्ज होना बताता है कि ‘आवरणीय’ परिवर्तनों से कृषि क्षेत्र की हालत में आवश्यक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है।
इसके साथ ही श्री सुब्रह्मण्यम पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य निर्धारण नीति से भी सहमति के मुद्दे पर अलग ही नजर आते थे। वह भारत की आर्थिक स्थिरता के लिए पेट्रोलियम मूल्य नीति को एक प्रमुख हिस्सेदार मानते थे। इसकी लगातार बढ़ती खपत सरकार के लिए आसान राजस्व वृद्धि (इजी मनी) का रास्ता अन्य उत्पादन मूलक रास्तों से राजस्व राशि बढ़ाने के मार्ग में परोक्ष रूप से अवरोधक का काम करती है। कोई भी सरकार अपने कुल बजट की धनराशि से आधे की राशि का पेट्रोलियम आयात पर ही खर्च देने से विकास की राह पर नहीं चल सकती। विदेशी मुद्रा की आय और खर्च का यह अनुपात समूचे अर्थतन्त्र को एेसे चौराहे पर लाकर पटकने की क्षमता रखता है जैसे बिना ‘सिग्नल’ के किसी चौराहे पर यातायात अवरुद्ध हो जाता है और वाहन चालक अपनी गाड़ी सबसे पहले निकालने की फिराक में रहकर दूसरी गाड़ी का रास्ता रुक जाने की परवाह नहीं करता।