मानवीय त्रासदी की ओर बढ़ता असम - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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मानवीय त्रासदी की ओर बढ़ता असम

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असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराने की डेडलाइन 31 दिसम्बर, 2018 को खत्म हो चुकी है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में अपना नाम शामिल कराने के लिए 30 लाख लोगों ने आवेदन किया है। इससे पहले जब पांच महीने पहले एनआरसी तैयार किया गया था तो इसमें लाखों लोगों के नाम शामिल नहीं थे। जिनपर लोगों ने इस पर आपत्ति जताई थी, जिसके बाद लोगों को अपना नाम इसमें शामिल कराने का मौका दिया गया था। इस दौरान 600 आपत्तियां दर्ज कराई गईं, जिसमें लोगों ने दूसरों की नागरिकता पर सवाल खड़े किए थे। एनआरसी को 30 जुलाई, 2018 को प्रकाशित किया गया था जिसमें लगभग 40 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं थे लेकिन अब 30 लाख लोगों ने अपने नाम शामिल करने के लिए आवेदन किया है।

आवेदन में किसी भी तरह की गलती को सुधारने के लिए भी 2 जनवरी से 31 जनवरी तक का समय दिया गया है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में शामिल नहीं किए गए 40 लाख लोगों में अधिकांश बंगलादेशी हिन्दू बताए जाते हैं। दुनियाभर के लोग 31 दिसम्बर की रात नववर्ष के अभिनंदन में जश्न मनाने में जुटे रहे लेकिन असम के लाखों लोग अपनी नागरिकता बचाने के डर से जूझते रहे। उन्हें डर लग रहा है कि कहीं उनकी नागरिकता छिन नहीं जाए या उन्हें नजरबंद न कर दिया जाए। नागरिक रजिस्टर बनाने का काम जिस ढंग से हुआ है, उसका प्रमाण इस बात से लगता है कि इसमें भारतीय सेना में अफसर रह चुके और देश की सेवा कर चुके लोगों के नाम नहीं हैं। कई राजनीतिज्ञों और जनप्रतिनिधियों के नाम नहीं हैं। किसी का खुद का नाम रजिस्टर में शामिल है लेकिन उसकी बीवी का नहीं। किसी महिला का नाम शामिल है तो उसके परिवार का नाम शामिल नहीं है।

1947 के देश विभाजन की महान मानवीय त्रासदी के बाद धीरे-धीरे दिलों पर लगे जख्म धुंधले हो गए ले​िकन उसने जिन समस्याओं को जन्म दिया था वो आज तक समाप्त होने का नाम नहीं ले रही। वैसी ही एक समस्या है भारत में अवैध प्रवासन की। देश विभाजन से पहले सभी भारतीय थे। विभाजित हुए देश से बंगलादेश से गैर-कानूनी तौर पर भारत में घुसपैठ होती रही। यह समस्या राजनीतिक समस्या है और असम व पूर्वोत्तर के मूल निवासियों के लिए एक बड़ी सामाजिक समस्या भी है। अनेक लोग कहते हैं कि वे असली भारतीय नागरिक हैं। जब बंगलादेश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था और वे वहां से भाग कर लाखों लोग भारत आ गए थे। जो लोग 1971 के बाद पैदा हुए उन्हें यह साबित करना है कि उनके मां-बाप दादा-दादी या नाना-नानी 1971 के पहले से भारत में रहे थे।

ऐसे राज्य में जहां बहुत से लोग अनपढ़ हैं, जिनके पास बुनियादी कागजात भी नहीं हैं उनके लिए यह साबित करना मुश्किल है। अनेक परिवारों ने गांव के प्रमुख से मिला प्रमाणपत्र भी पेश किए लेकिन उनके दावे खारिज कर दिए गए जो बच्चे कभी स्कूल नहीं गए वे कोई दस्तावेज पेश नहीं कर सके। असम ने इतिहास में कई बार बड़ी संख्या में लोगों को आते देखा है। इसकी शुरूआत शायद तब हुई थी जब ब्रिटेन के औपनिवेशक शासकों ने यहां चाय के बागानों के काम करने के लिए बंगाली मजदूरों को लाना शुरू किया। आज असम की 3.1 करोड़ की आबादी है और इस आबादी में 30 फीसदी लोग बांग्ला बोलने वाले हैं। बंगालियों में दो तिहाई मुस्लिम है आैर बाकी हिन्दू। दूसरी तरफ राज्य की बहुसंख्यक जनता असमी बोलती है। आपत्ति यह है कि नागरिक रजिस्टर में असली बंगाली हिन्दुओं को बाहर रखा गया है।

अब फरवरी में दावों के पुष्टिकरण की प्रक्रिया शुरू होगी, जो लोग सूची में शामिल नहीं हो पा रहे उनका क्या होगा यह साफ नहीं है। असम के कुछ कट्टरपं​थी संगठन अवैध प्रवासियों को बाहर करने की मांग कर रहे हैं। 31 बच्चों और 1,037 लोगों को पहले ही राज्य में बने 6 कैम्पों में भेज दिया गया। अवैध प्रवासियों की पहचान का मुद्दा एक बड़ी मानवीय त्रासदी का रूप लेने लगा है। अवैध बंगलादेशियों के मुद्दे पर असम हिंसा की आग में कई बार झुलस चुका है। 1983 में तो एक ही दिन 2000 बांग्ला भाषियों की हत्या कर दी गई थी। असम में स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए दबाव काफी ज्यादा था। असम में नागरिकों की पहचान की पहली नाकाम कोशिश 1951 में हुई थी। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने एनआरसी की प्रक्रिया पर शुरू से ही सवाल उठाए थे। उनका कहना है कि छूटे हुए लोगों में अधिसंख्य बंगाली और बिहारी हैं और राज्य सरकार उन्हें अवैध नागरिक बता रही है। ये सभी भारतीय हैं। इन्हें हिन्दू मुस्लिम के रूप में पेश नहीं किया जाना चाहिए।

पड़ोसी बंगलादेश हमारा ऐसा मित्र राष्ट्र है जिसकी सीमाओं से सटे पं. बंगाल में रहने वाले ग्रामीणों के खेत सीमापार हैं आैर वे रहते भारत की सीमा में थे। हमने जिस तरह सीमा के आर-पार बसे हुए इलाकों की अदला-बदली की है वह भी इंदिरा-शेख समझौते का ही हिस्सा थी। यह कार्य इस तरह से हुआ कि सभी देशवासियों ने इसे दोनों देशों के हितों को समझा और खुले दिल से स्वीकार किया। बंगाली हिन्दुओं और बिहारियों को भारत का नागरिक माना ही जाना चाहिए। 1971 के बाद घुसपैठ करने वालों की पहचान पुख्ता ढंग से होनी ही चाहिए। एनआरसी की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए कि वैध लोगों के साथ अन्याय नहीं हो।

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