आज से 70 वर्ष पूर्व नवम्बर के महीने में ही 26 तारीख को स्व. बाबा साहेब अम्बेडकर ने स्वतन्त्र भारत का संविधान लिख कर तैयार कर दिया था तब इसे लागू करने की अगले वर्ष 1950 की 26 जनवरी तारीख इसीलिए तय की गई थी क्योंकि स्वतन्त्रता का युद्ध लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी अंग्रेजों के शासन में इसी दिन को भारत की आजादी के दिवस के रूप में मनाती थी। अतः इस दिन भारत का संविधान लागू किया जिसके आमुख में यह लिखा गया था कि ‘हम भारत के लोग इस संविधान को स्वीकार करते हैं’। इसमें बिना किसी धार्मिक, लिंगगत व साम्प्रदायिक व क्षेत्रीय भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को बराबर के अधिकार दिये गये थे।
उस समय दुनिया के दो-तिहाई से ज्यादा देशों के लिए यह एक ऐसा क्रान्तिकारी कानूनी दस्तावेज था जो मानवाधिकारों के नये युग की सूत्रपात करने के साथ ही व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और निजी सम्मान को सर्वोपरि रख कर आम नागरिक को ही अपनी मनपसन्द सरकार चुनने का अधिकार देता था। सभी प्रकार के सामाजिक व धार्मिक आडम्बरों से सराबोर भारत के लोगों के लिए यह एक ऐसे वैज्ञानिक युग की शुरूआत थी जिसमें धर्म या मजहब को उसका निजी मामला घोषित किया गया था अतः संविधान में जिस धार्मिक स्वतन्त्रता की बात कही गई है उसका दायरा भी निजी रखा गया है।
इसके साथ बाबा साहेब ने इस संविधान में यह प्रावधान भारत के मिजाज को देख कर ही किया था कि सरकार का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नागरिकों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के उपाय करे। इसका मन्तव्य अंधविश्वासों और रुढ़िवादी परम्पराओं से बंधे भारतीय समाज को बाहर निकालने से ही था। परन्तु इसी संविधान में बाबा साहेब ने जो सबसे बड़ा उपाय भारतीयों को राजनीतिक आजादी देने के साथ किया वह यह था कि विभिन्न राजनीतिक दलों को जनता द्वारा दिये गये बहुमत से बनी लोकतान्त्रिक सरकारें केवल संविधान के अनुसार ही चलेंगी और शासन किसी दल का नहीं बल्कि संविधान का होगा।
संविधान के शासन की सत्ता देखने का अधिकार स्वतन्त्र न्यायपालिका को होगा और सर्वोच्च न्यायालय इसके संरक्षक के तौर पर काम करेगा। आगामी 13 से 15 नवम्बर के बीच दशकों पुराने अयोध्या विवाद का फैसला सर्वोच्च न्यायालय सुनायेगा जिसे लेकर देश में शान्तिपूर्ण वातावरण बनाये रखने की कोशिशें अभी से शुरू हो गई हैं। ये प्रयास इसलिए किये जा रहे हैं क्योंकि अयोध्या विवाद से दो प्रमुख सम्प्रदाय हिन्दू और मुसलमान जुड़े हुए हैं, परन्तु इस विवाद को इतिहास के कन्धों पर डालने की मुहीम ने ही संवेदनशील बनाने में केन्द्रीय भूमिका निभाई है, जबकि इतिहास की संवेदनशीलता उसके आगे आने वाली पीढि़यां किसी तौर पर तय नहीं कर सकतीं।
अतः अयोध्या विवाद न्यायालयों में जमीनी विवाद के तौर पर ही चलता रहा और इसमे संलिप्त दोनों पक्ष अपनी-अपनी दलीलें पेश करते रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके धार्मिक पक्ष को देखते हुए ही न्यायालय से बाहर मध्यस्थता के जरिये इसका हल निकालने की भी छूट दी मगर यह प्रयास भी सफल नहीं हो सका। अतः अब अंतिम फैसला उसे ही करना है। जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अंतिम होगा और वह सबूतों की रोशनी में जिसके पक्ष में भी निर्णय देगा उस पक्ष की जीत धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि कानूनी साक्ष्यों और ठोस दलीलों के आधार पर होगी अतः उसे मजहबी रंग देना पूरी तरह गैरकानूनी और संविधान के विरोध में होगा।
फैसला उस संविधान की कसौटी पर खरा उतर कर आयेगा जो पूरी तरह धर्म निरपेक्ष है अतः हार-जीत हिन्दू-मुसलमानों के बीच में नहीं बल्कि कानूनी नुक्तों के बीच होगी। अतः भारत में इस मुद्दे पर अशान्ति फैलाने की जो लोग कोशिश भी करते हैं उन्हें संविधान विरोधी अथवा राजद्रोही के कठघरे में खड़ा किये जाने के लिए कानून ही अधिकृत करता है। बेशक न्यायालय के फैसले की समीक्षा समालोचना के दायरे में करने की इजाजत है परन्तु उसके विरोध में न्यायिक संशोधन की गुहार लगाने के बजाये जन भावनाएं भड़काना संविधानेत्तर उपायों द्वारा सत्ता को चुनौती देने के समकक्ष ही आता है जिसके लिए समुचित राजदंड की व्यवस्था हमारे संविधान में है।
अतः केन्द्र से लेकर उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार इस सन्दर्भ में जो भी एहतियाती कदम उठा रही है वह संविधान की सत्ता को ही काबिज बनाये रखने की गरज से उठा रही हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान में शासन कर रही भाजपा पार्टी का अयोध्या मामले में निजी नजरिया क्या है। उसका जो भी नजरिया है वह उसके राजनीतिक विशेषाधिकारों में आता है परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर उसका दृष्टिकोण केवल संविधान परक ही होना चाहिए और इसी तरफ प्रधानमन्त्री ने स्पष्ट संकेत दे दिया है।
अपनी मन्त्रिमंडल की बैठक बुला कर उन्होंने साफ तौर पर कहा कि उनकी पार्टी के किसी भी नेता या मन्त्री को अयोध्या विवाद के फैसले के स्म्बन्ध में कोई भी वक्तव्य देने से बचना चाहिए और जो भी फैसला आये उसे सहर्ष और शान्ति के साथ स्वीकार करना चाहिए जाहिर है कि जब भाजपा में साक्षी महाराज जैसे सांसद हों और गिरिराज सिंह जैसे मन्त्री हों तो किस विषय पर उनका कैसा बयान किस फिसलती जुबान में आ जाये, इसके बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता।
हम अपने घरों में हिन्दू-मुसलमान हो सकते हैं परन्तु भारत में हमारी हैसियत एक भारतीय की है और संविधान का पालन ही हमारा धर्म है। अतः अय़ोध्या फैसले का हर सूरत में हर किसी के द्वारा ‘एहतराम’ होना चाहिए। क्या खूबसूरत उर्दू का लफ्ज है यह जिसमें ‘राम’ भी मौजूद हैं। हमें याद रखना चाहिए कि सन्त कबीर की यह बाणी भी कांशी में ही गूंजी थी।
‘‘हिन्दू कहे मोहे राम पियारा, तुरक कहे रहिमानी
आपस में द्वि लरि-लरि मुए, कोई मरम न जानि।’’