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आजादः आ अब लौट चलें !

भारत की राजनीति में पिछले तीन दशक पहले सांझा सरकारें बनने के साथ जो सबसे बड़ा बदलाव आया उसमें राजनैतिक अवसरवाद प्रमुखता के साथ उभार पर रहा जिसके नतीजे में हमने देखा कि केवल सत्ता के लिए राजनैतिक गठजोड़ बनने शुरू हुए जिसमें सैद्धान्तिक पक्ष विलुप्त सा होता गया।

भारत की राजनीति में पिछले तीन दशक पहले सांझा सरकारें बनने के साथ जो सबसे बड़ा बदलाव आया उसमें राजनैतिक अवसरवाद प्रमुखता के साथ उभार पर रहा जिसके नतीजे में हमने देखा कि केवल सत्ता के लिए राजनैतिक गठजोड़ बनने शुरू हुए जिसमें सैद्धान्तिक पक्ष विलुप्त सा होता गया। बेशक राजनैतिक दलों का अंतिम लक्ष्य सत्ता प्राप्ति ही होता है मगर इसके लिए राजनैतिक दर्शन और विचारधारा को तिलांजलि देना अराजकतावाद की तरफ बढ़ने की शुरूआत ही मानी जाती है। स्वतन्त्रता के बाद पिछले 75 वर्षों के दौरान कांग्रेस पार्टी से टूट कर कम से कम एक दर्जन से ज्यादा नई पार्टियों का गठन हुआ है और इन्ही सब पार्टियों का 1967 के समय में ध्येय गैर- कांग्रेसवाद भी रहा जिसमें कम्युनिस्टों व हिन्दुत्ववादी विचारधारा पार्टी जनसंघ का भी सहयोग रहा। परन्तु यह प्रयोग इसलिए सफल नहीं हो सका क्योंकि इसमें वैचारिक पक्ष इस कदर हाशिये पर चला गया था कि विभिन्न राजनैतिक दल अपने वजूद को कायम रखने के लिए आपस में ही एक-दूसरे की जड़ें काटने लगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1977 में बनी जनता पार्टी थी।
 पिछले तीन दशकों में देश में जिस हिन्दुत्व परक राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाई है उसका जवाब केवल गैर भाजपावाद नहीं हो सकता क्योंकि यह सैद्धान्तिक पक्ष की कुर्बानी देने के बाद बना पंचमेल समागम होगा। इस सन्दर्भ में हमें कांग्रेस की राष्ट्रीय भूमिका के बारे में सोचना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि कांग्रेस पार्टी की विचारधारा उदारवादी मध्यमार्गी सिद्धान्तों पर टिकी हुई है। यह संविधान मूलक उपायों से देश में गांधीवादी समाजवाद की पोषक भी मानी जाती है और इसी विचार के सहारे इसके नेताओं ने स्वतन्त्रता के बाद से 1991 तक देश का विकास भी किया। परन्तु 1991 में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था अपनाये जाने के बाद राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में बदलाव आना शुरू हुआ और बाजार की ताकतों ने भी राजनीति को प्रभावित करना शुरू किया। सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि राजनीति का व्यापारीकरण शुरू हुआ और इस सिद्धान्त के चलते वही चीज ज्यादा बिकने लगी जो ज्यादा चमकती दिखाई देती हो। राजनैतिक दल भी बाजार के इस सिद्धांत से अछूते नहीं रह सके और जिस राजनैतिक दल ने स्वयं को ज्यादा से खूबसूरत व चमकदार तरीके से पेश किया उसी की तूती बोलने लगी। कांग्रेस पार्टी अपनी पुरानी लीक पर ही चलती रही और इसने स्वयं को बाहर से नये आकर्षक रूप में पेश करने की जुगत नहीं लगाई।
 सोने में सुहागा यह हुआ कि यह पार्टी नेतृत्व के मोर्चे पर ऐसी गफलत में फंसी कि इसका पूरा आवरण ही प्रभावहीन दिखाई देने लगा। लेकिन कांग्रेस ने भी बाजारवाद के सिद्धान्त को अपनाया हालांकि इसमें यह गुंजाइश रखी कि सत्ता का स्वरूप संविधान के निर्देशानुसार लोक कल्याणकारी राज ही रहे। इसके चलते भी की गलतफहमियों ने जन्म लिया जिसकी वजह से इसका नेतृत्व लगातार निस्तेज होता चला गया। इसके चलते यह पार्टी सबसे पहले 2014 में एेतिहासिक रूप से चुनाव हारी और उसके बाद 2019 में भी यह कोई खास कमाल नहीं कर सकी। जिसके चलते पार्टी नेतृत्व पर पार्टी के भीतर से ही सवाल होने लगे। ऐसे ही सवाल उठाने वाले कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस छोड़ कर अपनी नई पार्टी बनाने का फैसला किया। उन्होंने सवाल उठाया कि 2019 में चुनावी पराजय के बाद पार्टी नेतृत्व सुप्त पड़ा हुआ है और कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए कोई गंभीर प्रयास जमीन पर नजर नहीं आ रहा है। 
आजाद साहब जम्मू-कश्मीर के नेता हैं और इस राज्य के मुख्यमन्त्री भी रह चुके हैं। उनका यह सवाल उठाना बताता था कि वह कांग्रेस में एेसी हलचल देखना चाहते हैं जिससे जमीन पर पार्टी सक्रिय नजर आये। इसे वाजिब सवाल समझा जा सकता था। उन्होंने इस बारे में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष रही श्रीमती सोनिया गांधी को पत्र लिखा जिस पर कांग्रेस के ही 22 अन्य नेताओं के दस्तखत भी थे। अब सवाल पैदा होता है कि यदि आजाद साहब को पार्टी की चिन्ता थी तो वह कांग्रेस छोड़ने का फैसला न लेते और अपनी अलग पार्टी न बनाते। क्या उन्हें विश्वास था कि जिस कांग्रेस पार्टी ने उन्हें 1974 के बाद जर्रे से आफताब बनाया था उसका तेज पूर्णतः विलुप्त हो चुका है? कांग्रेस छोड़ने से पहले आजाद साहब राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता थे और उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त था। अपने इस दर्जे की भी कोई अहमियत न समझते हुए उन्होंने कांग्रेस पार्टी को छोड़ने का फैसला किया और जम्मू-कश्मीर के अधिसंख्या कांग्रेसी नेताओं के साथ अलग पार्टी का गठन कर लिया। जाहिर तौर पर आजाद साहब जमीनी संघर्ष करते हुए नेता नहीं बने थे। पहले श्रीमती इदिरा गांधी की उन पर कृपा रही और बाद में स्व. राजीव गांधी के भी वह कृपा पात्र रहे और कांग्रेस के भीतर स्वयं को पार्टी का मुस्लिम चेहरा बनने की कोशिशें भी करते रहे जिसमें उन्हें आंशिक सफलता ही मिल पाई।  लेकिन कांग्रेस की राजनीति में ही पिछले दिनों भारी परिवर्तन आया और इसके नेता राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा निकालने का फैसला किया जिसे जमीनी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं समेत आम जनता का भारी समर्थन हासिल किया। कांग्रेस के बारे में यह दीवार पर लिखी इबारत है कि नेहरू-गांधी परिवार इस पार्टी की मूल पहचान है। 
भारत की जनता भी यह समझती है कि कांग्रेस को जोड़े रखने में इस परिवार की प्रमुख भूमिका रही है। अतः आजाद साहब के साथ जो कांग्रेसी चले गये थे वे अब अपने घर में वापसी करने की मुहीम पर हैं और देखते-देखते ही जम्मू-कश्मीर के पूर्व उपमुख्यमन्त्री तारा चन्द से लेकर सभी अन्य छोटे-बड़े कांग्रेसी अपनी मूल पार्टी में शामिल हो गये हैं। आजाद साहब अब अकेले पड़ चुके हैं। जाहिर है कि वे गहरी सोच में भी होंगे और विचार कर रहे होंगे कि उनकी पार्टी का अब क्या होगा क्योंकि जो लोग उनके साथ चले थे वे तो अपने पुराने घर में लौट चुके हैं। बिना किसी वैचारिक मंथन के केवल बाजारवाद के असर में आजाद साहब कांग्रेस से गये थे तो कौन कह सकता है कि दिन फिरते देख वह भी कल को घर वापसी का फैसला कर लें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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