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चुनावों का बदगुमां होता रंग

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चुनावों के दूसरे चरण के मतदान में अब कुछ घंटों का समय ही शेष है मगर राजनैतिक दलों के नेताओं के दिमाग में घंटे बजने बन्द नहीं हुए हैं और ये मतदाताओं को हिन्दू या मुसलमान में देखने से बाज नहीं आ रहे हैं। योगी आदित्यनाथ, मायावती, मेनका गांधी, आजम खां के बाद अब नवजोत सिंह सिद्धू का नम्बर है। दरअसल लोकतन्त्र में इनमें से किसी को भी जनप्रतिनिधि होने का अधिकार नहीं दिया जा सकता क्योंकि ये मतदाताओं को नागरिक की जगह हिन्दू या मुसलमान मानते हैं। ऐसे लोगों का किसी भी राजनैतिक दल से सम्बन्ध हो सकता है मगर इनका सम्बन्ध ‘राजनीति’ से नहीं हो सकता क्योंकि इन्हें उस चेतना से कोई लेना-देना नहीं है जो लोगों को लोकतन्त्र में अपनी सत्ता कायम करके इसमें अपनी सीधी भागीदारी का अधिकार मांगते हैं।

लोकतन्त्र लोगों को सत्ता से सीधे सवाल करने का अधिकार देकर हुकूमत को कटघरे में इस प्रकार खड़ा करता है कि वह पिछले पांच साल के दौरान किये गये हर कारनामें का हिसाब-किताब मांगे और पूछे कि उसके द्वारा सरकारी खजाने में जमा किये गये राजस्व की मार्फत देश का विकास किस दिशा में कितना हुआ है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े गरीब आदमी की हालत में कितना सुधार हुआ है? मगर गजब के राष्ट्रीय चुनाव हो रहे हैं जिनमें हिन्दोस्तान की जगह पाकिस्तान का नाम ज्यादा लिया जा रहा है और कहा जा रहा है कि भारत ने उसे छठी का दूध याद दिला दिया है। हमारी फौज के पास दुश्मन की कार्रवाई का माकूल जवाब देने का हक सर्वदा रहता है।

असली सवाल यह है कि हमारी सीमाओं के भीतर आतंकवादी कार्रवाइयों में कितनी कमी आयी है? दुनिया जानती है कि फौज ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर जवाबी कार्रवाई कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के जवाब में की थी जिसमें हमारे 40 जवान शहीद हुए थे। अतः यह स्वाभाविक था कि इस कार्रवाई का सम्पूर्ण राजनैतिक जगत दलगत भावना से ऊपर उठकर एक स्वर से समर्थन करता। ठीक ऐसा ही हुआ भी जब प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने इसका समर्थन किया और फौजी कार्रवाई पर बधाई दी परन्तु विवाद तब शुरू हुआ जब सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने अलग-अलग दावे किये। अतः फौजी कार्रवाई के राजनीतिकरण की शुरूआत हो गई और हालत यहां तक पहुंच गई कि चुनाव आयोग को निर्देश जारी करने पड़े कि चुनाव प्रचार में फौजी कार्रवाई में शहादत पाने वालों या वीरता दिखाने वालों की तस्वीरें लगा कर वोट न मांगे जायें।

विचारणीय मुद्दा यह है कि हमने लोकतन्त्र की हालत क्या कर दी है? मुद्दा तो यह होना चाहिए था कि सेना से लेकर सशस्त्र बलों में तैनात जवानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाओं में लगातार वृद्धि क्यों हो रही है और उन पर निर्भर परिवारों की स्थिति में सुधार के आंकड़ें क्या कह रहे हैं। राष्ट्रवाद केवल सैनिकों के नाम पर युद्धोन्माद पैदा करने का नाम नहीं होता बल्कि सीमा पर लड़ने वाले जवानों के परिवारों को पूर्ण सुरक्षा देने का नाम होता है। मगर सेना में भर्ती होने वाला जवान भी सामान्यतः किसान का बेटा होता है और इस देश में पिछले एक साल में हजारों किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इसी प्रकार यह भी चुनावों में मुख्य मुद्दा होना चाहिए कि किस प्रकार आज देश की 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर केवल एक प्रतिशत लोगों का अधिकार हो गया है जबकि 2014 तक यह केवल 4 प्रतिशत था। अतः विकास यदि हुआ है तो किसका हुआ है 99 प्रतिशत लोगों का या एक प्रतिशत चुनीन्दा परिवारों का।

जो भी सरकारी स्कीमें गरीबों के लिए होती हैं वे लोकतन्त्र में कभी भी हुकूमत की खैरात नहीं हो सकतीं। खैरात के तौर पर स्कीमें राजतन्त्र में राजा की कृपा पर निर्भर करती हैं। लोकतन्त्र में गरीबों को उनका हिस्सा संवैधानिक हक के तौर पर दिया जाता है। अतः शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य का अधिकार उनका कानूनी हक होता है और इसे गरीबों को मुहैया कराना लोकतान्त्रिक सरकारों की जिम्मेदारी होती है लेकिन क्या विकास का फार्मूला हम निकाल रहे हैं कि एक प्रतिशत लोगों के नाम देश की सम्पत्ति करके हम उनसे गरीबों के विकास करने की अपेक्षा कर रहे हैं। मुद्दे अनेक हैं लेकिन अंतिम फैसला देश की जागरूक जनता ही करेगी।

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