बैंकिंग व्यवस्था किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी होती है। अगर बैंकिंग व्यवस्था ही खोखली हो तो अर्थव्यवस्था का आकलन करना मुश्किल नहीं। चुनौती सरकार के सामने भी कम नहीं होती क्योंकि उसे सामाजिक सरोकारों को पूरा करना होता है। बैंकिंग व्यवस्था की मजबूती से ही सामाजिक सरोकार पूरे किये जा सकते हैं। सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने, महंगाई पर नियंत्रण पाने के साथ-साथ रोजगार सृजन में तेजी और विकास दर आदि में इजाफा चाहती है, इसके लिये बैंकों में आमूलचूल सुधार करने की आवश्यकता है। बैंक क्योंकि ऋण देते हैं इसलिये उनकी ऋण देने की क्षमता मजबूत रहनी चाहिए। इसके लिए उनमें पूंजी की पर्याप्तता जरूरी है। आम बजट पेश करने से पहले सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में 2.1 लाख करोड़ रुपये की नई पूंजी डालने की योजना अगले दो वित्त वर्षों में क्रियान्वित करने के रोडमैप का ऐलान कर दिया है।
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पूंजी की कमी से जूझ रहे सार्वजनिक क्षेत्र के 20 बैंकों में 88 हजार करोड़ के लगभग पूंजी डालने की बात की है। बैंकों की साख बचाने के लिये सरकार 80 हजार करोड़ के बाद जारी करेगी। इतनी बड़ी राशि डालने के बावजूद बैंकों की पूंजी की दिक्कत सिर्फ इस वित्त वर्ष के लिये ही दूर होगी। अगले वित्त वर्ष में इन बैंकों को सरकार से इससे ज्यादा राशि की दरकार होगी। योजना के साथ वित्त मंत्री अरुण जेटली काफी सतर्कता से काम ले रहे हैं। बैंकों के लिये जो वित्तीय इंजताम किये जा रहे हैं उसके बदले में उन्हें अपने कामकाज में सुधार करना होगा। कर्ज नहीं चुकाने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी होगी। सरकार 250 करोड़ से अधिक के कर्ज और वसूली पर कड़ी निगरानी खुद रखेगी। बड़े कर्जदारों और सरकारी बैंकों पर नकेल कसेगी और बैंक प्रबन्धकों की जवाबदेही भी बढ़ाई गई है। सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार बैंकों को अपना प्रदर्शन सुधारना होगा। सख्त हिदायतों के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, प्रबन्धन को सशक्त, पेशेवर और जवाबदेही बनाने पर जोर दिया गया। इन सभी कदमों की जरूरत इसलिये पड़ी क्योंकि बैंक फंसे कर्ज की समस्या को दूर नहीं कर पाये। अप्रैल 2015 में इन बैंकों का एनपीए 2.75 लाख करोड़ रुपये था जो जून 2017 में बढ़कर 7.33 लाख करोड़ हो गया है। मार्च 2018 तक इसके 9.50 लाख करोड़ होने के आसार हैं। इसी वजह से आरबीआई के नियमों के मुताबिक जोखिमों से बचने के लिये जितनी सुरक्षित राशि इनके पास होनी चाहिए उतनी भी नहीं है। पिछले कुछ दिनों से ऐसी अफवाहें सुनने को मिल रही थीं कि बैंकों में रखा लोगों का पैसा सुरक्षित नहीं है।
बैंक डूबेंगे तो लोगों को पैसा नहीं मिलेगा। आखिरकार वित्त मंत्री को आश्वस्त करना पड़ा कि सभी का पैसा सुरिक्षत है। सरकार की जिम्मेदारी है कि बैंकों की सेहत बनाये रखे जिससे सरकारी बैंक कभी दिवालिया नहीं होंगे। यह सही है कि एनपीए की समस्या मोदी सरकार को विरासत में मिली है। अब सरकार इस समस्या का हल खोज रही है। सरकार को इसके लिये संस्थागत तंत्र बनाने की जरूरत है जिससे यह सुनिश्चित हो कि जो अतीत में हुआ, वह दोहराया न जाये। अगस्त 2015 में इन्द्रधनुष योजना के तहत बैंकों में 70 हजार करोड़ की पूंजी डाली गई थी जो पर्याप्त नहीं रही। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बार-बार बैंकों में पूंजी डालने से समस्याओं से निजात मिल जायेगी? सरकारी बैंकों को बार-बार पूंजी उपलब्ध कराना समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। यद्यपि बैंकों के पुनर्पूंजीकरण को जीएसटी लागू होने के बाद सरकार का सकारात्मक कदम माना जा रहा है।
पुनर्पूंजीकरण की प्रक्रिया बिना शर्त नहीं होगी क्योंकि इस योजना का लाभ लेने के लिये अपना प्रदर्शन सुधारना होगा। बैंकों को पहले अपने फंसे कर्ज का कुछ हिस्सा बट्टे खाते में डालकर अपने बहीखाते को साफ-सुथरा करना होगा। बैंकों को खुदरा कर्ज, सूक्ष्म वित्त, आवास और सूक्ष्म और छोटे मंझोले उद्यम क्षेत्रों को आसानी से ऋण देना होगा। इससे उनके कर्ज के दुष्चक्र से फंसने की संभावना कम रहेगी। सरकारी बैंकों को भी चाहिए कि वे निजी क्षेत्र की तरह ऊर्जा, बुनियादी क्षेत्र और बड़ी परियोजनाओं को कर्ज देने की बजाय खुदरा कर्ज बाजार पर ध्यान केन्द्रित करें। सवाल उठ रहा है कि क्या सरकारी बैंकों के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिये वििशष्ट कौशल वाले पेशेवरों को लाना चाहिए? क्या निर्णय प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप को खत्म करने की जरूरत है? सुधारों के जरिए ही बैंकों का प्रदर्शन सुधारा जा सकता है। फिलहाल बैंकिंग सुधार की डगर आसान नहीं है।