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बैंकों का ‘धनवान’ बनना

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भारत के विकास में बैंकिंग उद्योग का योगदान कितना महत्वपूर्ण रहा है इसका एक ही उदाहरण काफी है कि जब 2008-09 में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में घूम रही थी और अमरीका से लेकर यूरोपीय देशों तक के बैंकों की हालत दिवालियेपन के कगार पर पहुंच गई थी और उन देशों की सरकारें उन्हें संकट से उबारने के लिए भारी पूंजी का निवेश उनमें कर रही थीं तो भारत के किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक पर कोई असर नहीं पड़ा था और अधिसंख्य निजी बैंक भी अपने पैरों पर खड़े रहे थे। बेशक भारत में कार्यरत कुछ विदेशी बैंकों की साख जरूर गिर गई थी। 2008-09 में विकसित कहे जाने वाले देशों के बैंकों के पास रोकड़ा चुकाने के लिए धन की कमी हो गई थी और इनमें जमा चेकों को भुनाने वालों को भारी तंगी का सामना करना पड़ा था।

मगर भारत के किसी भी बैंक के सामने एेसा किसी प्रकार का संकट नहीं आया और हमारे बैंक अपनी ताकत के बूते पर लगातार खड़े रहे। दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था में जिस प्रकार समाजवादी और पूंजीवादी कदमों के मिश्रण से बैंकिंग उद्योग का विकास हुआ उसका अनुभव दुनिया के बहुत कम देशों के पास है। भारत के स्वतन्त्र होने पर हमने जिस कल्याणकारी राज की स्थापना की उसके मूल में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की अराजकता को थामने की ताकत सरकार के हाथ में देने की नीति थी जिससे केवल पूंजी के बूते पर ही समूची अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने की ताकत कभी भी एेसी ताकतों के हाथ में न पहुंच सके जिनका लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना हो और पूंजी के बूते पर श्रम को सस्ता रख कर उसका लगातार संचय हो। पं. नेहरू ने जो अर्थव्यवस्था शुरू की उसका लक्ष्य पूंजी का बंटवारा इस प्रकार समाज के गरीब तबकाें में करना था जिससे उनकी क्रय क्षमता में लगातार वृद्धि होती रहे और उनका श्रम आधुनिक औद्योगिक कल-कारखानों में लग कर महंगा हो सके। इसके लिए सरकार ने बड़े–बड़े पूंजी मूलक कारखाने खोलने की नीति पर चलना शुरू किया और पूरे देश में सहायक उद्योगों का जाल बिछाने की तरफ बढ़ना शुरू किया। इसमें बैंकों की भूमिका लगातार महत्वपूर्ण होती गई और वित्तीय साधनों की उपलब्धता सरल बनाने के उपाय निकाले जाने लगे। अतः जब 1969 में स्व. इंदिरा गांधी ने 14 निजी बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो वह इसी क्रम को आगे बढ़ाने की आवश्यक प्रक्रिया थी। उसका असर सबसे ज्यादा कृषि क्षेत्र और लघु उद्यम क्षेत्र पर पड़ा जिससे रोजगार के अवसरों में वृद्धि होने के साथ ही कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ी और यह अपेक्षाकृत लाभकारी धंधा बनता चला गया।

मगर एेसा नहीं है कि उस समय बैंकों के एनपीए या मृत ऋण नहीं होते थे। आश्चर्यजनक रूप से तब भी बड़े उद्योगपतियों को दिए गए ऋण ही मृत होते थे मगर इन ऋणों को चुकाने की उनकी नीयत पर सन्देह नहीं होता था क्योंकि ये ऋण प्रायः एेसे औद्योगिक इकाइयो में खप जाते थे जिनका परिचालन लाभप्रद तरीके से नहीं हो पाता था और एेसी इकाइयां प्रायः बीमार घोषित हो जाती थीं। इनको सुचारू बनाने के लिए पुनः बैंक ही मदद करते थे और अपने ऋणों की भरपाई का रास्ता खोजते थे किन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के शुरू होने पर भारत में बैंकिंग उद्योग के स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया और निजी बैंकों के खुलने की अनुमति सरल बनाये जाने और विदेशी बैंकों को काम करने की अनुमति देने के साथ ही जबर्दस्त प्रतियोगिता का माहौल बना और बैंकिंग सेवा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी संशोधन इसके चलते हुए। इसके बावजूद राष्ट्रीयकृत बैंकों की वरीयताएं नहीं बदली और वे अपेक्षाकृत कम लाभकारी वित्तीय पोषण के कारोबार में लगे रहे। अतः राष्ट्रीयकृत बैंकों में आगामी दो वर्षों में दो लाख करोड़ रु. से अधिक का निवेश करने का जो फैसला वित्तमंत्री अरुण जेतली ने किया है इससे यह लाभ जरूर होगा कि इन बैंकों के वरीयता क्षेत्र के वित्तीय कार्यक्रम को बल मिलेगा। दूसरी तरफ यह स्वीकारोक्ति भी होगी कि निजी बैंक मुनाफा कमाने की प्रतियोगिता में हैं। राष्ट्रीयकृत बैंकों को पीछे धकेल रहे थे मगर इस तर्क में कोई वजन नहीं है कि भारत में केवल बड़े–बड़े बैंकों का ही भविष्य रहेगा। यह समूची तस्वीर का एक पक्ष है इससे गैर बैंकिंग क्षेत्र की कम्पनियों की घोटालेबाजी के आगे बढ़ने का रास्ता भी खुल सकता है। भारत की सामाजिक विविधता ही नहीं बल्कि आर्थिक विविधता भी हमें सभी प्रकार के वित्तीय उत्पादों का बाजार उपलब्ध कराने की क्षमता रखती है। इस पहलू पर भी गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है।

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