वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने आगामी वित्त वर्ष 2021-22 का बजट रख कर साफ कर दिया है कि भारत के अब ‘विनिवेश’ से ‘निजीकरण’ की तरफ कूच करने का समय आ गया है। निश्चित रूप से यह बजट उन असाधारण परिस्थितियों से उत्पन्न संकट पर पार करने के लिए बनाया गया है जो कोरोना संक्रमण की वजह से देश में पैदा हुई थीं। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह तीसरा मौका है जब आर्थिक मोर्चे पर इतनी विकट परिस्थितियां बनीं। 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद 1966-67 वर्ष के बजट को पेश करते हुए भी लगभग ऐसी ही स्थितियां बनी थीं और तब की इंदिरा गांधी सरकार ने पहली बार रुपये का अवमूल्यन करके संकट पर नियन्त्रण करने का प्रयास किया था तथा औद्योगिक व वाणिज्यिक गतिविधियों की रफ्तार को थामा था। दूसरी बार 1990 के बाद ऐसे हालात बने थे कि राजनैतिक अस्थायित्व की परिस्थितियों में 1991 के आते-आते अर्थव्यवस्था भरभराने लगी थी और तब पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने वित्तमन्त्री के रूप में रुपये के दूसरे अवमूल्यन के साथ भारतीय बाजारों को विदेशी कम्पनियों के लिए खोलकर व विनिवेश की प्रक्रिया प्रारम्भ करके अर्थव्यवस्था को पटरी पर डालने का प्रयोग किया था। यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा और फिर भारत ने इसी रास्ते पर आगे बढ़ने का फैसला करते हुए अपनी अार्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करके ‘बाजार मूलक अर्थव्यवस्था’ को अपना लिया। परन्तु कोरोना संक्रमण ने इन्हीं नीतियों के जारी रहते हुए ऐसा अभूतपूर्व संकट पैदा किया कि रोजगार से लेकर उत्पादन व सेवा क्षेत्र तक ने उल्टा घूमना शुरू कर दिया और देश मन्दी के चक्र में फंस गया।
अतः श्रीमती सीतारमन पर दोहरी जिम्मेदारी आ पड़ी कि वह अर्थव्यवस्था को मन्दी के दौर से बाहर निकाल कर हर सामाजिक व आर्थिक मोर्चे पर रौनक लौटाने के उपाय करें। इस कार्य में वह अपने नये बजट के माध्यम से अंशतः सफल भी रही हैं क्योंकि बजट के पेश होते ही शेयर बाजार पुरजोश होकर चहचहाने लगा और कुलांचे मार कर दो हजार अंक तक ऊपर उठ गया। परन्तु यह बजट की एक तस्वीर है जो बताती है कि उद्योग व वित्त जगत ने बजट का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया है। दूसरा पक्ष यह है कि बजट में पेट्रोल व डीजल को और महंगा बनाने का प्रावधान पेट्रोल पर ढाई रु. प्रति लीटर व डीजल पर चार रुपए प्रति लीटर ‘कृषि शुल्क’ लगा कर सामान्य व आम जनों की दिक्कतें बढ़ा दी गई हैं। जिसका असर निश्चित रूप से महंगाई की दर पर पड़ सकता है। बजट को देख कर कहा जा सकता है कि सरकार की वरीयता रोजगार बढ़ाने की तरफ रही है जिसकी वजह से कुल लगभग 35 लाख करोड़ रु. के बजट में से साढे़ पांच लाख करोड़ रुपए की धनराशि पूंजीगत मद में खर्च की जायेगी। साथ ही सबसे ज्यादा जोर आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में रहेगा।
आधारभूत विकास कोष बनाने की घोषणा करके वित्तमन्त्री ने साफ कर दिया है कि रोजगार बढ़ाने की तरफ प्रथम वरीयता दी जा रही है। यह कोष भविष्य में एक बैंक का रूप लेकर सत्त विकास की गारंटी दे सकता है । पहली बार वित्तमन्त्री ने स्वास्थ्य क्षेत्र में दुगनी से अधिक धनराशि खर्च करने की घोषणा की है परन्तु यह अगले पांच वर्षों में बंटेगी। कोरोना संक्रमण से चिकित्सा क्षेत्र में उभरी भारत की कमजोरी देख कर यह निर्णय किया गया लगता है। परन्तु इस धनराशि का उपयोग देशभर में प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को मजबूत करने के लिए किया जाना चाहिए। सड़क परिवहन मन्त्रालय को बजटीय मदद बढ़ाकर श्रीमती सीतारमन ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि राजमार्गों के निर्माण कार्य शुरू होने का असर चौतरफा होता है। इनके बनने से रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं और सकल विकास के रास्ते खुलते हैं जिनमें औद्योगिक विकास प्रमुख होता है। यह बात जरूर है कि उनका ध्यान आगामी महीनों में चुनाव होने वाले राज्यों पर अधिक रहा है जिनमें असम, प. बंगाल, केरल व तमिलनाडु शामिल हैं। इन चार राज्यों में एक लाख करोड़ रु. से अधिक की सड़क परियोजनाएं चालू की जायेंगी।
बजट देख कर कुछ अर्थ शास्त्री कह सकते हैं कि वित्तमन्त्री ने 1990 से पहले की आर्थिक संरक्षणात्मक नीतियों की तरफ भी मुड़ने का आंशिक प्रयास किया है क्योंकि उन्होंने घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात शुल्क में वृद्धि की है। परन्तु टैक्सटाइल उत्पादन के क्षेत्र में सात नये महाकेन्द्र बनाने के इरादे से साफ है कि सरकार भारत के इस ऐतिहासिक रूप से सबल क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनाने की राह पर ले जाना चाहती है क्योंकि कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार यही क्षेत्र देता है और निर्यात कारोबार में भी इसका हिस्सा उल्लेखनीय रहता है। किसानों के आंदोलन को देखते हुए वित्तमन्त्री ने इस क्षेत्र को ज्यादा नहीं छुआ है परन्तु उन्होंने कृषि विकास के लिए विशेष संस्थागत कोष बनाने का फैसला करके साफ कर दिया है कि उनकी नजर किसानों की आय बढ़ाने की तरफ है। इस सिलसिले में उन्होंने सरकार द्वारा कृषि उपज खरीदारी के वर्तमान आंकड़ों की तुलना पिछली मनमोहन सरकार के अन्तिम वर्ष में की गई खरीदारी के आंकड़ों से मूल्य आधार (वेल्यू वाइज) पर की, बेहतर होता वह यह तुलना वजन या मिकदार (वोल्यूम वाइज) आधार पर करतीं जिससे स्थिति और ज्यादा स्पष्ट होती। इस बजट की सबसे बड़ी विशेषता एक यह भी है कि रेलवे, परिवहन विभाग, उड्डयन विभाग व पावर कार्पोरेशन जैसी सरकारी कम्पनियों को अपनी जमीन-जायदाद (असेट्स) बेच कर धन उगाहने की छूट दे दी गई है और दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की घोषणा की गई है। यह पुरानी नीति से हट कर है जिसका राजनैतिक रूप से विरोध संभव है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि चालू वित्त वर्ष में 9.5 प्रतिशत का वित्तीय घाटा दर्ज हो रहा है और वित्तमन्त्री ने 2021-22 में इसे 6.8 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया जिसके लिए सरकार को कुल 12 लाख करोड़ रू. की बाजार उधारियां लेनी पड़ेंगी। यह धनराशि सरकारी सम्पत्तियां बेच कर या रिजर्व बैंक से ऋण लेकर ही प्राप्त होगी। राजस्व के मोर्चे पर सरकारी उगाही धीरे-धीरे बढ़ रही है। जनवरी महीने में जीएसटी प्राप्तियों में शानदार बढ़ोत्तरी हुई है जिसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे ठीक हो रही है। हालांकि शुल्क ढांचे मे श्रीमती सीतारमन ने बहुत ज्यादा फेरबदल नहीं किया है सिवाय इसके कि 75 वर्ष से ऊपर के वरिष्ठ पेंशनधारी नागरिकों को अब आयकर रिटर्न नहीं भरना पड़ेगा। वर्तमान निजी आयकर निर्धारण सीमा को भी उन्होंने अनछुआ छोड़ दिया है। कुल मिला कर यह बजट आर्थिक मोर्चे पर गतिशीलता को स्थायी भाव देने में सक्षम कहा जायेगा जिससे अगले तीन वर्षों में भारत आत्मनिर्भरता पाने की स्थिति में होने लगे।