सीबीआई : चांद पर दाग - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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सीबीआई : चांद पर दाग

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देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई के सर्वोच्च प्रमुख अफसर श्री आलोक वर्मा और कथित रूप से दूसरे नम्बर के कहे जाने वाले अफसर राकेश अस्थाना के बीच चले झगड़े के सार्वजनिक हो जाने से इस संस्था की प्रतिष्ठा को जो व्यापक नुकसान होना था वह हो चुका है, जिसकी भरपाई निकट भविष्य में तब तक संभव नहीं हो सकती जब तक कि सत्ता की सर्वोच्च संरचना स्वयं को पूरी तरह निरपेक्ष मुद्रा में लाकर इस संस्था की स्थापित परंपरा और नियमों के अनुसार इसे अपनी पुनर्संरचना करने की छूट इस प्रकार न दे कि भविष्य में इसके काम में परोक्ष हस्तक्षेप की गुंजाइश भी समाप्त की जा सके। भारतीय लोकतन्त्र की ‘सहज पावन’ परंपरा की स्थापना के लिए यह बहुत जरूरी है कि सीबीआई की खोई प्रतिष्ठा वापस आये जिससे आम जनता का विश्वास उस स्थापित प्रणाली में बना रहे जिसे ‘जांच’ कहा जाता है।

गौर से देखा जाये तो आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के बीच पैदा हुई रंजिश को समय रहते न सुलझा कर सत्ता के उच्च प्रतिष्ठानों ने अपनी ही भूमिका सन्देहास्पद बना डाली है और यह सन्देश अनचाहे ही चला गया है कि भारत में लोकतन्त्र की वे लोकशाखाएं दबाव में आ रही हैं जिन पर इसे लगातार जीवन्त रखने की जिम्मेदारी है। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है जिसका संज्ञान देश के आम नागरिक न लें। सीबीआई के पिछले 55 साल के इतिहास की यह पहली घटना है जब इसके प्रमुख पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लगाने की किसी ने जुर्रत की हो। एेसा होते ही इसकी प्रतिध्व​िन उस चयन मंडल पर पहुंचती है जिस पर उसके चयन की जिम्मेदारी होती है। हमंे नहीं भूलना चाहिए कि मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान नियुक्त किये गये केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त श्री पी. जे. थामस की नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय ने ही क्यों अवैध करार दिया था।

इसके बावजूद यदि सीबीआई में दूसरे नम्बर के अफसर कहे जाने वाले राकेश अस्थाना की नियुक्ति कुछ आरोपों के चलते हो जाती है तो इसे सीबीआई की पाकीजगी के साथ समझौता करने के सिवाय और क्या कहा जा सकता है लेकिन इसका असर सीमित नहीं रह सकता था क्योंकि एक बार ठहरे जल में कंकरी मारने पर उसकी लहरें किनारे तक पहुंचती हैं और इस मामले में ठीक एेसा ही हुआ है। पूरे जंजाल मंे सीबीआई प्रमुख के ही निशाने पर आ जाने से समूची संस्था की विश्वसनीयता ही दांव पर लग गई है। जिस पूरे मसले को एक अधिशासी आदेश द्वारा पूरी तरह शान्त माहौल में बिना कोई समझौता किये निपटाया जा सकता था वह आज चौराहे पर रख दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में आज श्री आलोक वर्मा की उन्हें जबरन सरकार द्वारा छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान विद्वान न्यायाधीशाें ने जिस तरह इस संस्था की प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए आदेश दिया कि श्री वर्मा के खिलाफ राकेश अस्थाना द्वारा लगाये गये आरोपों की सतर्कता आयुक्त द्वारा पूर्व न्यायाधीश श्री पटनायक की निगरानी में की गई जांच के कुछ बिन्दुओं पर आगे अन्वेषण की जरूरत हो सकती है।

अतः वह जांच रिपोर्ट की प्रति श्री वर्मा को देकर उनकी प्रतिक्रिया देखना चाहेंगे। इसके लिए बन्द लिफाफे में जांच रिपोर्ट की प्रति श्री वर्मा को न्यायालय ने दी जिससे वह अपना पक्ष उनके सामने रख सकें परन्तु न्यायालय में आरोपों-प्रत्यारोपों की जांच के चलते ‘चांद पर दाग’ लग चुका है जिसकी वजह से आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री चन्द्रबाबू नायडू ने फैसला कर लिया है कि वह अपने राज्य में सीबीआई को जांच करने के लिये खुली क्लीन चिट नहीं देंगे। उनका समर्थन प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने बहुत तेजी के साथ करते हुए घोषणा कर डाली है कि वह श्री नायडू का समर्थन करते हुए यह पता करेंगी कि सीबीआई को अपने राज्य में अधिकार देने से रोकने के लिए संविधान की क्या व्यवस्था है। ममता दी ने तो चुनाव आयोग संस्थान को भी प्रभावित करने की आशंका लगे हाथों जता डाली है। ये दोनों ही नेता जनता के चुने हुए हैं और अपने-अपने राज्य के शासन प्रमुख हैं । यह शासन भारतीय संविधान की उस सीमा के भीतर ही चलता है जो समूचे भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहता है।

अतः हमें बहुत गंभीरता के साथ अपनी सभी स्थापित संस्थाओं की साख को किसी भी शक से ऊपर रखना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि इस देश के हर वैध राजनीतिक दल की आस्था और विश्वास उनमें हो क्योंकि भारत में राज्य से लेकर केन्द्र स्तर तक राजनीतिक दलीय प्रणाली ही सत्ता पर काबिज होती है इसके बावजूद शासन ‘संविधान’ का ही होता है। यह बेशकीमती खूबसूरत निजाम हमारे हाथों में उस पीढ़ी के पुरोधाओं ने सौंपा है जिन्होंने अपना सर्वस्व इस देश की आजादी की लड़ाई मंे खपा दिया था। अतः यह विरासत इस मुल्क की हर आने वाली पीढ़ी की एेसी अमानत है जिसकी हिफाजत हमें हर दौर में करनी होगी। जाहिर तौर पर यह अमानत बेखौफ लोकतन्त्र की ही है जिसमें ‘राजा और रंक’ दोनों को एक ही तराजू पर तोलने का इंतजाम बांधा गया है।

1 अप्रैल 1963 को जब पं. जवाहर लाल नेहरू ने सीबीआई का गठन किया था तो यही एेलान किया था कि हुकूमत में आने वाले लोग यह न समझें कि वे कानून से ऊपर हो सकते हैं। उनके हर काम को कोई एेसी तीसरी आंख देखेगी जो उनकी करतूतों का हिसाब-किताब रखेगी और जिसकी ईमानदारी पर आम आदमी को भी यकीन होगा। यह राजनीति को स्वच्छ रखने के लिए ही किया गया था। अतः हमें सीबीआई की साख की महत्ता को समझना होगा और इसे केवल विशेष पुलिस समझने की भूल नहीं करनी होगी।

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