देश में शिक्षा व्यवस्था, परीक्षा प्रणाली को लेकर चल रही गम्भीर बहस के बीच बच्चों के नर्सरी प्रवेश से लेकर परीक्षा परिणामों के नियमों में अदालतों द्वारा हस्तक्षेप किया जाना शिक्षा व्यवस्था की खामियों को ही उजागर करता है। पिछले कुछ वर्षों से अदालतें लगातार फैसले देती आ रही हैं लेकिन व्यवस्था और प्रक्रियाएं दोषपूर्ण होती जा रही हैं। सवाल सीबीएसई की कार्यप्रणाली को लेकर उठ रहे हैं। पहले परीक्षा होने के बाद सीबीएसई ने ग्रेस माक्र्स देने की नीति खत्म करने का फैसला कर डाला तो मामला अदालत में पहुंच गया। अदालत ने इस वर्ष ग्रेस माक्र्स नीति जारी रखने का आदेश दिया। अब आंसर शीट का दोबारा मूल्यांकन करने के मामले में भी सीबीएसई को हार का सामना करना पड़ा है। समझ में नहीं आ रहा कि सीबीएसई में बैठे शिक्षाविद् किस ढंग से सोचते हैं, किस ढंग से काम करते हैं, किस ढंग से मनमाने फैसले लेते हैं। कभी-कभी संदेह होता है सीबीएसई में पदों पर बैठे लोगों की योग्यता और क्षमता पर।
दिल्ली हाईकोर्ट ने सीबीएसई को आदेश दिया है कि वह 12वीं के छात्र द्वारा उत्तर-पुस्तिका की दोबारा जांच के आवेदन पर पुन: उत्तर-पुस्तिका का मूल्यांकन करे। सीबीएसई द्वारा इस सम्बन्ध में लगाई गई रोक को दरकिनार करते हुए कहा है कि उसका आदेश याचिकाकर्ता तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि ऐसे सभी छात्रों के लिए यह रिलीफ होगा जो उत्तर-पुस्तिकाएं जांच कराना चाहते हैं। सीबीएसई ने इस सम्बन्ध में अदालत को गुमराह भी किया। 23 जून की सुनवाई में सीबीएसई ने हाईकोर्ट में कहा था कि अगर छात्र समझता है कि 12वीं की परीक्षा में उत्तर-पुस्तिका मार्किंग स्कीम के तहत सही तरह से नहीं आंकी गई तो वह बोर्ड को दोबारा जांच के लिए सम्पर्क कर सकता है। कोर्ट ने भी सीबीएसई की दलील स्वीकार कर ली और छात्रों से कहा कि वे इसके लिए बोर्ड से सम्पर्क करें। हैरानी की बात तो यह है कि जब याचिकाकर्ता ने बोर्ड से सम्पर्क किया तो बोर्ड ने जवाब दिया कि उसने 28 जून को एक नोटिस जारी कर तमाम रिस्ट्रिक्शन लगा दिए हैं। नोटिस में सिर्फ कुछ बड़े विषयों की ही दोबारा जांच की बात कही गई।
इसके अलावा दोबारा जांच के लिए 10 सवालों तक की सीमा तय की गई। प्रति सवाल 100 रुपए फीस देनी होगी और अगर दोबारा जांच में 5 नम्बर या उससे ज्यादा अंक आए तभी नए नम्बर जोड़े जाएंगे। याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में फिर सम्पर्क किया तो उसने आदेश दिया। सीबीएसई ने पहले कहा था कि उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच में काफी कम गलतियां पाई गई थीं और इस कारण दोबारा मूल्यांकन को खत्म कर दिया गया लेकिन उसकी दलील से कोई कैसे सहमत हो सकता है। आज के दौर में एक-एक नम्बर का और कम से कम अंक का फर्क भी मायने रखता है। एक-एक अंक के कारण छात्रों को मनमाफिक कॉलेज और कोर्स में दाखिला नहीं मिल पाता है। कट ऑफ लिस्ट काफी ऊंची जा रही है। अंक कम आने पर छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं या अवसाद का शिकार हो रहे हैं।
वैसे जिस देश में नर्सरी में प्रवेश लेते ही बच्चों से अन्याय होने लगता है, वहां क्या उम्मीद की जा सकती है। इसके लिए शिक्षा का व्यवसायीकरण जिम्मेदार है। अमीर तो अपने बच्चों को एयरकंडीशंड शॉपिंग मॉलनुमा भव्य स्कूलों में दाखिला दिलाने में सक्षम होता है। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को अपने बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए संग्राम लडऩा पड़ता है। उन्हें कई-कई दिन एक स्कूल से दूसरे स्कूल तक चप्पल घिसानी पड़ती है। नई शिक्षा नीति में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि देश के किसी बच्चे के साथ अन्याय नहीं हो। अगर दोबारा मूल्यांकन में 5 अंक बढऩे की सम्भावना को सीबीएसई स्वीकार करता है तो फिर स्पष्ट है कि उत्तर-पुस्तिका की चैङ्क्षकग में त्रुटि हो सकती है तो फिर बोर्ड शर्तें क्यों लगा रहा है? बोर्ड को छात्रों को संतुष्ट करने के लिए दोबारा मूल्यांकन में आपत्ति क्यों है? बोर्ड दोबारा मूल्यांकन से क्यों बचना चाहता है। माक्र्स की गलती से छात्रों का भविष्य दांव पर लग सकता है। मूल्यांकन में गलती हो सकती है तो फिर बोर्ड मनमानी क्यों कर रहा है। मानव संसाधन मंत्रालय को चाहिए कि सीबीएसई का ही दोबारा मूल्यांकन हो और योग्य लोगों को ही पद पर बिठाए ताकि किसी भी बच्चे के भविष्य से खिलवाड़ न हो सके। छात्र ही इस देश का भविष्य हैं, व्यवस्था को उनके प्रति ईमानदार रवैया अपनाना ही होगा।