आज दिल्ली में मतदान है जिसमें ‘मिनी इंडिया’ कहे जाने वाले इस महानगर के मतदाता अपने बुद्धि चातुर्य और राजनीतिक सजगता का परिचय देते हुए नई सरकार का गठन करेंगे। सर्व प्रथम यह समझा जाना जरूरी है कि दिल्ली वाले कभी भी लकीर के फकीर नहीं बने हैं और अपने लोकतान्त्रिक अधिकार का प्रयोग इस तरह करते रहे हैं कि सियासत के सूरमा सर पकड़ कर बैठ जाते हैं। हैरत नहीं होनी चाहिए कि इनकी वरियताएं राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर बदलती रहती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन्हें अपने वोट की कीमत का बखूबी अन्दाजा है।
जब दिल्ली में पहली बार 1967 में स्थानीय सरकार (महानगर परिषद) के चुनावों में भारतीय जनसंघ को सफलता मिली और श्री विजय कुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद चुने गये तो राजधानी की बिगड़ती सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) के समानान्तर निजी क्षेत्र का प्रवेश इसमें किया गया और इसे ‘किलोमीटर स्कीम’ का नाम दिया गया जिसमें निजी मालिकों की बसों का भुगतान दिल्ली सरकार कुल सफर दूरी के आधार पर करती थी।
परिणामतः दिल्ली में बसों की संख्या बढ़ी और उनके चक्कर भी बढे़ मगर डीटीसी की हालत जर्जर होती गई। दिल्ली में यह एक प्रयोग था जिसका लाभ बाद में राजनीति में ही घुसे बस माफिया ने जम कर उठाया परन्तु 1971 के लोकसभा चुनावों में जब जनसंघ ने यह नारा दिया कि ‘हमने दिल्ली बदली है अब देश बदलना है’ तो मतदाताओं ने जनसंघ को बुरी तरह पराजित कर दिया और यहां की सभी लोकसभा सीटें कांग्रेस पार्टी को दे दीं। तब कांग्रेस की नेता स्व. इन्दिरा गांधी की तूती पूरे देश में बोलती थी। उन्होंने इसका जो उत्तर दिया वह काफी रोचक था।
श्रीमती गांधी ने कहा कि जनसंघियों ने दिल्ली के इतिहास को ही बदलने का काम किया है और इसके लिए उन्होंने पुराने स्थानों के नाम भर बदल डाले हैं जिससे इसकी ऐतिहासिक पहचान ही खतरे में पड़ गई है। यह वह दौर था जब चांदनी चौक के ‘फव्वारे’ का नाम बदल कर ‘भाई मतिदास चौक’ कर दिया गया था और कई सड़कों के नाम भी बदले गये थे। परिणामतः 1972 के महानगर परिषद चुनावों में जनसंघ बुरी तरह परास्त हुई और कांग्रेस के दादा राधारमण मुख्य कार्यकारी पार्षद चुने गये। इमरजेंसी के बाद जब 1977 में चुनाव हुए तो जनसंघ (जनता पार्टी) भारी मतों से बहुमत में आई और स्व. केदारनाथ साहनी मुख्य कार्यकारी पार्षद बने। दिल्ली में जनसंघ का विधानसभा बनने तक यह अन्तिम शासन था।
इसके बाद के चुनाव में इस महानगर का शासन कांग्रेस के हाथ में ही रहा जो 1993 में विधानसभा बनने पर भाजपा के हाथ में गया। 1998 के चुनावों में कांग्रेस ने अपनी फतेह के झंडे गाढ़े जो लगातार 15 वर्ष तक लहराते रहे और 2013 में वर्तमान मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने इसे इस तरह अपने कब्जे में लिया कि पुरानी सत्तारूढ़ पार्टियां भाजपा व कांग्रेस पूरी तरह हाशिये पर खिसक गईं। ऐसा बिल्कुल न होता अगर दिल्ली वालों को नये प्रयोग करने का शौक न होता। यह पूरा इतिहास लिखने का मकसद सिर्फ इतना सा है कि राजधानी के मतदाताओं का मन जानने का सलीका किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। इसका कारण यह है कि इस ‘मिनी इंडिया’ के मतदाता जबानी लंतरानियों या लच्छेबाजी के चक्कर में नहीं पड़ते बल्कि ‘काम’ की मजदूरी मेहनत देख कर देते हैं।
दिल्ली वालों का यह अनोखा गुण है जिसे लगभग सभी राजनीतिक दल भीतर से स्वीकार करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रयोग दिल्ली में वर्तमान दौर में जो हुआ है वह इस बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में सार्वजनिक सुविधा प्रणाली को नया अन्दाज देने का हुआ है। दिल्ली के मतदाता इस प्रयोग का मूल्यांकन करके ही अपनी राय को व्यक्त करेंगे क्योंकि पुराना इतिहास यही बताता है। यह प्रयोग निजीकरण की घोषित नीतियों के विरुद्ध है और निजीकरण कांग्रेस व भाजपा दोनों की ही आर्थिक नीतियों का मूल अंग है। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अन्तर नहीं है।
अतः 1967 में दिल्ली की परिवहन व्यवस्था में निजीकरण का प्रवेश करा कर भाजपा ने प्रयोग किया था और 2015 में सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत करने और इसे सरकारी अमले की मदद से सफल बनाने का प्रयोग अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने किया है जो स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में किया गया है। अतः अर्ध राज्य दिल्ली के चुनावों का मुद्दा आम जनता के बीच यही बना रहा। बेशक और भी मुद्दे बीच-बीच में उठते और गिरते रहे परन्तु आम जनता के बीच ये ही मसले गरमाते रहे जिन पर कांग्रेस, भाजपा व आम आदमी पार्टी अपनी-अपनी नुक्ताचीनी करते रहे। अतः इन चुनावों का महत्व राष्ट्रीय स्तर पर है क्योंकि इसमें राष्ट्रपति भी मतदान करते हैं और एक झुग्गी में रहने वाला चौकीदार भी मतदान करता है।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दिल्ली में चुनावों में मतदान प्रतिशत भी पूरे देश में सबसे ज्यादा होना चाहिए जिससे पूरे देश में यह सन्देश जाये कि लोकतन्त्र के इस पर्व को दिल्लीवासी उसी जोश से मनाते हैं जिस जोश से स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस को मनाते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान जो कशीदगी पैदा हुई उसका जिक्र करना जरूरी नहीं है क्योंकि हम उस दौर में हैं जिसमें जुबान संभाल कर बोलना लगातार दुश्वार होता जा रहा है, लेकिन यह राजनीति के व्यापार बनने का सबसे बड़ा लक्षण भी है क्योंकि बाजार में ‘विचार’ की जगह जायकेदार चटपटा अचार बेचने की जुगत में राजनीतिक दल लग जाते हैं मगर भारत के मतदाता इतने बुद्धिमान हैं कि हर मौके पर राजनीतिज्ञों को ही नई दिशा दिखा देते हैं। अतः लोकतन्त्र की जय!
आदित्य नारायण चोपड़ा
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