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महाराष्ट्र के ‘तमाशे’ के बदलते मंच

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष केवल एकमात्र यही ऐसा व्यापक संवैधानिक शुचिता का प्रश्न है जिस पर राज्यपाल के फैसले को न्यायिक समीक्षा की शुद्धता के दायरे में लाया जा सकता है।

महाराष्ट्र के मामले में संवैधानिक पेंच सिर्फ यह है कि नवगठित फडणवीस सरकार को विधानसभा के भीतर अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया गया एक सप्ताह का समय क्या राज्य में चुने हुए सदन को किसी मंडी में तो तब्दील करने में सक्षम नहीं हो जायेगा जिसमें विधायकों की दलगत निष्ठा की बोली लगने लगेगी। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष केवल एकमात्र यही ऐसा व्यापक संवैधानिक शुचिता का प्रश्न है जिस पर राज्यपाल के फैसले को न्यायिक समीक्षा की शुद्धता के दायरे में लाया जा सकता है। 
अतः आज शिवसेना व राकांपा व कांग्रेस आदि की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने जो नोटिस केन्द्र सरकार व राज्यपाल को जारी किया है उसमें वे दस्तावेज तलब किये गये हैं जिनके आधार पर राज्यपाल ने प्रातःकाल में भाजपा के श्री फडणवीस को मुख्यमन्त्री व राकांपा के अजीत पवार को उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ दिलाकर चुनी हुई सरकार का गठन किया। न्यायालय में सब श्री कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे विद्वान कानूनविदाें की ओर से दलीलें दे रहे हों तो कल्पना की जा सकती है कि उनका एक-एक तर्क कितना वजनी होगा। 
संवैधानिक पेंचों के इन खिलाडि़यों के हाथों से कोई भी ऐसा ‘सिरा’ नहीं गिर सकता जिसमें प्रतिवादी को अपने लपेटे में लेने की जरा भी क्षमता हो। अतः स्पष्ट है कि राज्यपाल के फैसले को सीधी चुनौती न देकर इन्होंने वह रास्ता अख्तियार किया जिसमें राज्यपाल को गुमराह करने की संभावना छिपी हुई हो। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि विधि अनुसार महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन प्रातःकाल की वेला में समाप्त कर दिया गया था और उसके बाद जल्दी सवेरे पौने आठ बजे के लगभग फडणवीस सरकार को शपथ दिलाई गई। 
इस शपथ ग्रहण समारोह का दायित्व राज्यपाल का ही था क्योंकि राज्य में संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय का प्रतिनिधि होने के नाते उनका पहला कर्त्तव्य बनता था कि चुनावों के बाद उनके राज्य में जल्दी से जल्दी ऐसी स्थिर सरकार बने जिसके गठन में किसी भी प्रकार से अवैध उपायों का प्रयोग न किया गया हो। अर्थात लोभ-लालच या डर अथवा जोर-जबर्दस्ती जैसे हथकंडों को बहुमत हासिल करने के लिए न अपनाया गया हो। बहुमत का आंकड़ा आत्म प्रेरित स्वतःस्फूर्त राजनीतिक समीकरणों के तहत गढ़ा गया हो। 
इस पैमाने पर किये गये बहुमत के दावे को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को संवैधानिक तराजू पर तोलना था और 23 नवम्बर की प्रातःकाल को श्री फडणवीस द्वारा उनके समक्ष जो सबूत बहुमत के मुतल्लिक रखे गए उन्हें दूसरे प्रतिद्वन्दी गुट से कोई चुनौती नहीं थी। अतः चुनौती दायर करने वाले पक्ष की ओर से उन्ही सबूतों को पेश करने की मांग की गई है जिनके आधार पर श्री कोश्यारी ने नई सरकार बनवाई। इसकी पृष्ठभूमि में जाना भी जरूरी इसलिए है क्योंकि श्री कोश्यारी ने नई सरकार बनाने से पहले भाजपा, राकांपा व शिवसेना तीनों को ही सरकार बनाने के अपने-अपने दावे सिद्ध करने को कहा था मगर इन सभी ने बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिए अधिक समय की मांग की।
कांग्रेस पार्टी की ओर से अपने नेतृत्व में सरकार बनाने का कोई दावा नहीं किया गया। पिछले एक महीने से चुनाव परिणाम घोषित होने और उसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद से कांग्रेस पार्टी ने अपनी भूमिका भाजपा के विरोध में खड़े होने वाले किसी भी गठबन्धन के सहायक के रूप में ही सुनिश्चित की, परन्तु शिवसेना व राकांपा ने अग्रिम मोर्चे पर आकर भाजपा के विकल्प के रूप में स्थाई सरकार देने का दावा राज्यपाल से ​किया जिसे निभाने में स्वयं ही उन्होंने असमर्थता अपने व्यवहार से व्यक्त कर दी। 
ऐसी राजनीतिक असमंजस की स्थिति में यदि दो विरोधी दावेदारों के बीच से ही एक नये तीसरे गुट के समीकरण उभरे तो राज्यपाल उसे किस आधार पर निरस्त कर सकते थे? जबकि यह तीसरा विकल्प दिये गये समय (23 नवम्बर की प्रातःकाल को)  अपेक्षाकृत सुगम बहुमत व स्थायित्व का आंकड़ा पेश कर रहा था। इसमें नैतिक पक्ष को हमें इसलिए दरकिनार करना होगा क्योंकि शिवसेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़कर ही बहुमत का आंकड़ा प्राप्त करने के बावजूद इस गठबन्धन से अलग होने का फैसला केवल मुख्यमन्त्री के पद के लालच में किया। अतः नैतिकता का सवाल उठाने से पहले यह विचार कर लिया जाना चाहिए कि नैतिकता का मतलब क्या होता है? 
जब एक ही परिवार के समझे जाने वाले दो लोगों के बीच जंग शुरू हो गई तो जायज और नाजायज का फैसला कैसे होगा? भाजपा व शिवसेना की कहानी यही है। शिवसेना यदि महाराष्ट्र में भाजपा को अपना किराये का बालक (सरोगेटेड चाइल्ड) मानती है तो यह उसका अहंकार कहा जायेगा क्योंकि राज्य में भाजपा व कांग्रेस का युद्ध शिवसेना के जन्म से बहुत पहले का है। यह हकीकत है कि भाजपा का ग्राफ इस राज्य में शिवसेना का प्रभुत्व बढ़ने के बाद ही तेजी से फैला क्योंकि 1967 में भी पहली बार उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में अपनी विजय की पहचान बनाने वाले जनसंघ को महाराष्ट्र के लोगों ने खास तरजीह नहीं दी थी। 
शिवसेना ने ‘मराठी’ के नाम पर कांग्रेस पार्टी के जिस व्यापक जनाधार में दरार डाली उसका लाभ भाजपा ने उठाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी परन्तु आज मुद्दे की बात यह है कि श्री शरद पवार की राकांपा में अजीत पवार के साथ 54 में से कितने विधायक हैं इसका असल पता तभी चल पायेगा जब विधानसभा में शक्ति परीक्षण होगा। राकांपा के 54 विधायकों ने अजीत पवार को ही अपना विधानमंडल दल का नेता चुना था। बाद में 23 नवम्बर को उन्हें इस पद से हटाकर श्री संजय पाटिल को नेता चुन लिया गया जिस पर कुल 41 विधायकों ने सहमति दी। कानून के सामने उस कागज के मायने हैं जो राज्यपाल को श्री फडणवीस ने दिया। 
यदि उसके आधार पर सरकार गठित की गई तो श्री अजीत पवार राकांपा के सदस्य आज भी हैं और उन्हें विधानसभा के भीतर सभी शेष 53 विधायकों को शक्ति परीक्षण के समय वोट देने के लिए निर्देश जारी करने का कानूनन हक है। संजय पाटिल और उनके बीच के नेता पद का झगड़ा एक और कानूनी विवाद को जन्म देता है मगर विधानसभा में शक्ति परीक्षण होने से पहले अध्यक्ष का चुनाव होना जरूरी है और इससे पहले सभी विधायकों को शपथ दिलाये जाने की रस्म अदायगी भी जरूरी है। 
सदन के भीतर शक्ति परीक्षण तो तभी हो सकता है जबकि चुन कर आये सभी विधायक सबसे पहले विधायकी की शपथ लें। विधायकी की शपथ तो मुख्यमन्त्री व उपमुख्यमन्त्री को भी लेनी होगी। अतः अभी पेंच और भी कई बाकी हैं इसलिए महाराष्ट्र का ‘तमाशा’ अभी कई मंचों पर होना है।

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