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भारत का चौखम्भा राज?

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भारत के लोकतन्त्र को जब ‘चौखम्भा राज’ कहा गया तो पश्चिम के विद्वानों तक ने आशंका प्रकट की कि गरीबी से जूझ रहे भारत में लोग अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता या प्रेस की आजादी का महत्व किस तरह समझ सकेंगे? मगर प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने सत्ता संभालने के बाद ही स्पष्ट कर दिया कि आजाद भारत में प्रैस की आजादी एक एेसे पवित्र अधिकार के रूप में संविधान में संरक्षित रहेगी जिससे लोगों के मत से चुनी हुई सरकार अपने कर्तव्य के पालन से विचलित न हो सके। समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने भारत की व्यवस्था को चौखम्भा राज कहकर संविधान के उस तन्त्र को विस्तार दिया जिसमें विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका की तो स्पष्ट व्याख्या की गई है परन्तु प्रेस की आजादी को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से जोड़ा हुआ है। डा. लोहिया ने कहा कि लोकतन्त्र के इन तीनों खम्भों पर चौकसी करने का काम प्रेस का होगा और इस प्रकार होगा कि जब इन तीनों खम्भों से किसी व्यक्ति को न्याय न मिल सके तो वह चौथे खम्भे प्रेस का दरवाजा खटखटा कर इन तीनों खम्भों की आंख खोल सके और न्याय पा सके।

दरअसल आजाद भारत में स्वतन्त्र प्रेस की असली भूमिका यही है। क्योंकि तीनों खम्भों के पास जाकर गुहार करने की विधिवत औपचारिकताओं का जाल भी होता है जबकि प्रेस के पास जाने में एेसा कोई अवरोध नहीं होता है। यही वजह थी कि डा. लोहिया ने इसे चौथा खम्भा कहा। इस खम्भे का काम बाकी तीनों खम्भों द्वारा न्याय देने में पैदा हुई विसंगतियों को उजागर करने का ही रहा है। ठीक एेसा ही मामला विशिष्ट पहचान प्रमाण प्राधिकरण (यूआईडी) के मामले में पैदा हुआ जिसकी विसंगतियों को अंग्रेजी अखबार ट्रिब्यून की एक संवाददाता ने उजागर करके साफ किया कि केवल पांच सौ रु. के एवज में किसी भी व्यक्ति के आधार कार्ड से जुड़ी सारी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यह वास्तव में चौंकाने वाला खुलासा था जिसकी बाकायदा सख्ती से जांच होनी चाहिए थी। पत्रकार ने इस खबर को प्रकाश में लाकर अपने उस कर्तव्य का पालन किया जो इस पेशे का धर्म है। इसमें प्राधिकरण को सचेत किया गया है कि वह अपने दायित्व को निभाने में लापरवाही बरत रहा है। पत्रकारिता का उद्देश्य भी यही होता है कि वह प्रशासन की खामियों की तरफ इशारा करता है जिससे शासन चुस्त होकर आम जनता की सेवा कर सके मगर प्राधिकरण ने इस मामले में विभिन्न अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के साथ ही पत्रकार के खिलाफ भी रिपोर्ट दर्ज करा दी। इसका मतलब यही हुआ कि पत्रकार ने एेसी खबर प्रकाशित करके कोई अपराध कर डाला।

सवाल यह नहीं है कि सरकार की प्रेस स्वतन्त्रता के बारे में क्या सोच है बल्कि असली सवाल यह है कि संसद द्वारा गठित स्वतन्त्र प्राधिकरण की क्या सोच है ? प्राधिकरण को संसद से ही ताकत मिलती है और संसद ने ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार इस देश के लोगों को दिया हुआ है अतः बहुत स्पष्ट है कि प्राधिकरण ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कुचेष्टा की है। वर्तमान केन्द्र सरकार प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यदि एेसा न होता तो किस प्रकार यह सरकार सत्ता में काबिज हो पाती क्योकि पिछली मनमोहन सरकार के विभिन्न कथित घोटालों का पर्दाफाश करने वाली भी यही स्वतन्त्र प्रेस ही थी। यह भी हकीकत है कि अंतरिक्ष घोटाला होते-होते केवल इसलिए रुक गया था क्योंकि उसी सारी उलझाव भरी वह कहानी अंग्रेजी अखबार ‘दि हिन्दू’ में छप गई थी कि किस प्रकार एक उपग्रह के वाणिज्यिक लाभ को एक निजी कम्पनी को बेचने की तैयारी कर ली गई थी। प्राधिकरण के मामले में केन्द्रीय कानून मन्त्री रविशंकर प्रसाद के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए कि सरकार प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए प्रतिबद्ध है। उनके इस बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए क्योकि उनकी पार्टी भाजपा को एक समय में उसके विरोधी दल अखबारी पार्टी तक कहा करते थे मगर श्री नरेन्द्र मोदी ने इस अफवाह को पूरी तरह झुठला दिया है और सिद्ध कर दिया है कि भाजपा शहरों के साथ ही गांवों की पार्टी बनने की क्षमता भी रखती है मगर निश्चित रूप से यह काम स्वतन्त्र प्रेस की अधिकारिता के बिना नहीं हो सकता था।

बेशक इसमें भी अब बहुत विसंगतियां आ गई हैं और प्रेस की स्वतन्त्रता अखबार मालिकों की स्वतन्त्रता के रूप में सिमटती जा रही है और यह पूर्ण रूपेण एक कारोबार बन चुकी है मगर इसके लिए हम सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। संसद के समाप्त शीतकालीन सत्र में ही प्रेस की स्वतन्त्रता का मामला समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल ने उठाया था और पत्रकारों की लेखनी को निर्भीक बनाये रखने के लिए इस क्षेत्र में जरूरी संशोधन करने के सुझाव भी दिये थे मगर यह मुद्दा इतना सरल नहीं बचा है कि इसे चुटकी बजाकर हल किया जा सके। आज सवाल नीति से ज्यादा नीयत का है और दलगत भावना से ऊपर उठकर एेसे वातावरण का निर्माण करने का है जिससे लोगों को सच के छपने या दिखाये जाने पर किसी प्रकार की शंका पैदा न हो सके लेकिन यह काम किसी भी तरीके से आसान नहीं होगा क्योंकि बाजारमूलक अर्थव्यवस्था ने मीडिया और पत्रकारिता को भी अपने नियामकों से चलाने की ठान रखी है जिसकी वजह से सच की चमक धुंधली पड़ सकती है मगर लोकतन्त्र का सीधा सम्बन्ध पत्रकारिता या मीडिया से है और इसका सम्बन्ध सीधे तौर पर राजनीति से है। वास्तव में पत्रकारिता और राजनीति दोनों सगी मौसेरी बहनें जैसी ही होती हैं। अतः श्री रविशंकर प्रसाद को उस एफआईआर को खारिज कराने में पहल करनी चाहिए जो एक पत्रकार की पाकीजगी पर हमला बोल रही है।

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