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‘चीन है कि मानता ही नहीं’

भारत-चीन के सन्दर्भ में विचार करते हुए हमें पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री शिव शंकर मेनन की इस चेतावनी का ध्यान रखना चाहिए कि लद्दाख सीमा क्षेत्र से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक में चीन जिस प्रकार सैनिक हरकतें कर रहा है

भारत-चीन के सन्दर्भ में विचार करते हुए हमें पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री शिव शंकर मेनन की इस चेतावनी का ध्यान रखना चाहिए कि लद्दाख सीमा क्षेत्र से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक में चीन जिस प्रकार सैनिक हरकतें कर रहा है उससे यह आशंका होती है कि वह समूची सीमा रेखा की स्थिति बदल देना चाहता है। श्री मेनन ने यह चेतावनी डेढ़ साल पहले तब दी थी जब चीन ने लद्दाख की गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के साथ संघर्ष किया था और उसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। इसके बाद लद्दाख में सीमा विवाद को हल करने के लिए दोनों देशों के बीच सैनिक स्तर की वार्ताओं के 13 दौर हो चुके हैं। इन वार्ताओं का प्रतिफल यह निकला है कि गलवान घाटी वाले इलाके समेत इससे आगे के कुछ क्षेत्र में आपसी समझ से दोनों देशों की सेनाएं पूर्व स्थिति की तरफ लौटी हैं परन्तु इससे आगे हाट स्प्रिंग व देपसांग पठारी इलाके में चीन अपनी सेनाओं को पीछे हटाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है। हाल ही में समाप्त 13वें दौर की बातचीत के बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो जाने के बाद भारत की चिन्ता इसलिए बढ़ी है कि चीन डेढ़ साल पहले की स्थिति में जाने को तैयार नहीं है। इसमें अब कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि चीन ने भारतीय इलाकों में कब्जा जमाया हुआ है और वह दोनों देशों के बीच सीमा रेखा की सुरक्षा पर पूर्व में हुए किसी समझौते को मानने को तैयार नहीं है। 
चीन बार-बार 2005 में तत्कालीन मनमोहन सरकार के साथ हुए उस समझौते का उल्लंघन कर रहा है जिसमें कहा गया था कि दोनों देशों की सेनाएं वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर अपनी-अपनी तरफ पहरा देते हुए इस बात का ख्याल रखेंगी कि दोनों का आमना-सामना न हो परन्तु चीन ने डेढ़ साल पहले जो विस्तारवादी हरकत की थी उसके परिणामस्वरूप वह भारतीय नियन्त्रण की भूमि में जबरन घुस कर उस पर अपना दावा इस प्रकार ठोक रहा है कि सीमा की स्थिति ही बदल जाये। भारत में लाख राजनीतिक विवाद हो सकते हैं परन्तु देश की भौगोलिक सम्प्रभुता के बारे में कोई विवाद नहीं हो सकता। इस मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के बीच का अन्तर समाप्त हो जाता है और प्रत्येक नागरिक सबसे पहले भारतीय होकर सीमाओं की रक्षा के बारे में दृढ़ संकल्प हो जाता है।
 राष्ट्रीय अखंडता के मुद्दे पर किसी प्रकार की राजनीति नहीं हो सकती क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल का विषय नहीं बल्कि भारत का विषय है। इसलिए राष्ट्रीय अखंडता का सीधा सम्बन्ध राजनीतिक इच्छा शक्ति से जाकर जुड़ जाता है क्योंकि अन्तिम फैसला उसे लेकर ही देश की वीर सेनाओं को अपना कर्त्तव्य निभाने का आदेश देना होता है। भारत की महान सेना ने आज तक किसी भी मोर्चे पर मात नहीं खायी है, यहां तक कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भी सीमित साधनों के बावजूद भारत के रणबांकुरों ने अपने जौहर दिखाये थे। इस युद्ध में सूबेदार जोगिन्दर सिंह की कुर्बानी को कोई भारतीय नहीं भूल सकता है, जिन्होंने अपनी छोटी सी सैनिक टुकड़ी के बल पर भारी चीनी सैन्य बल को रोके रखा था परन्तु इस बार चीन की निगाहें भारत के दौलतबेग ओल्डी सैनिक अड्डे को अपनी जद में रखने की दिखाई पड़ रही है। 
डेढ़ वर्ष पहले शुरू हुए विवाद से ही चीनी सेनाएं इसके समीपवर्ती देपसांग पठारी इलाके में 14 कि.मी. आगे तक बढ़ आयी थी और अब पीछे हटने का नाम नहीं ले रही हैं। दौलतबेग ओल्डी तक भारत ने लद्दाख क्षेत्र में सड़क का निर्माण कर अपनी सैनिक स्थिति मजबूत बनाई है। चीन से यह बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है और वह इस मार्ग की निर्बाधता को समाप्त करने के उपाय सीमा रेखा को बदल कर ढूंढना चाहता है। इसी वजह से उसने इस रेखा के आशपास भारी सैनिक निर्माण कार्य शुरू कर रखा है और अपना सैनिक साजो-सामान इकट्ठा कर रखा है।  दौलतबेग ओल्डी सैनिक हवाई अड्डा उस काराकोरम दर्रे के निकट है जिसका काफी इलाका 1963 में पाकिस्तान ने चीन को भेंट में दे दिया था और यह पाक अधिकृत कश्मीर में आता है। चीन ने अब यह बहाना बन्द कर दिया है कि उसे सीमा रेखा के बारे में गलतफहमी हो गई थी जिसकी वजह से उसके सैनिक भारतीय क्षेत्र में प्रवेश कर गये थे। अब वह बेशर्मी और हिमाकत के साथ हमारे इलाकों में गाहे-बगाहे घुस आता है। 
पिछले दिनों वह उत्तराखंड की सीमा में बारावती तक घुस आया था। दरअसल चीन को यह गलतफहमी हो गई है कि वह अपनी आर्थिक व सैनिक ताकत के बूते पर भारत को धौंस में ले सकता है मगर उसे मालूम होना चाहिए कि वह एक आक्रमणकारी देश है जिसके कब्जे में 1962 से 40 हजार वर्ग मील भूमि भारत की पड़ी हुई है। तिब्बत के चीन के कब्जे में जाने के बाद भारत व चीन की सीमाएं बदल गई हैं वरना लद्दाख से तिब्बत की सीमा ही मिला करती थी। इसकी वजह यह है कि चीन 1914 में खींची गई उस मैकमोहन रेखा को नहीं मानता है जो ब्रिटिश दौर में भारत, चीन व तिब्बत के बीच खींची गई थी। लद्दाख व तिब्बत के आगे ही चीन का सिक्यांग प्रान्त है और उससे लगता हुआ ही पाक अधिकृत कश्मीर है। अतः चीन सीमा रेखा बदल कर अपनी सी पैक परियोजना को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के चक्कर में दिखाई पड़ता है परन्तु इसके लिए वह भारत की जमीन नहीं हड़प सकता क्योंकि पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का अभिन्न हिस्सा है। चीन सैनिक मार्ग से भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने की जो कोशिश कर रहा है उसका जवाब भारत को दोनों ही रास्तों से देना होगा और पूर्व समझौतों पर अमल के लिए चीन पर दबाव बनाना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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