वर्तमान में चीन जो कुछ कर रहा है, उससे स्पष्ट हैै कि चीन की भारत विरोधी नीति न तो कभी बदली है और न ही भविष्य में बदलेगी। देश ने पूर्व में हुई गलतियों की भारी कीमत चुकाई है। सामरिक महत्व की लाखों किलोमीटर भूमि पहले से उसके कब्जे में है। हमारी कब्जाई हुई भूमि तो उसने क्या छोड़नी, अब उसने लद्दाख की गलवान घाटी अपनी होने का दावा कर दिया है। अरुणाचल और सिक्किम पर भी उसकी नजरें हैं। चीन बार-बार हमारे स्वाभिमान को चुनौती दे रहा है। एक तरफ वह भारत से बातचीत का रास्ता अपना रहा है तो दूसरी तरफ वह हमारी जमीन कब्जाने के लिए साजिशें जारी रखे हुए है। वह अब भी पेंगोंग सो से पीछे हटने को तैयार नहीं।
चीन ने पहले अक्साई चिन को हड़पा और वह अब फिर हिमाकत कर रहा है। केवल भारत ही नहीं वह करीब दो दर्जन देशों की जमीनों पर कब्जा करना चाहता है। चीन की सीमा भले ही 14 देशों से लगती है लेकिन वह 23 देशों की जमीनों या समुद्री सीमाओं पर दावा जताता है। चीन अब तक दूसरे देशों की 41 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि कब्जा चुका है। यह मौजूदा चीन का 43 फीसदी हिस्सा है। यानी ड्रेगन ने अपनी विस्तारवादी नीतियों से पिछले 6-7 दशकों में अपने आपको आकार में लगभग दोगुणा कर लिया है। 1934 में पहले हमले के साथ 1949 तक चीन पूर्वी तुर्किस्तान की 16.55 लाख वर्ग किलाेमीटर भूमि हथिया चुका था और 1950 में उसने 12.3 लाख वर्ग किलोमीटर वाले सुन्दर प्राकृतिक तिब्बत को हड़प लिया और अपनी सीमाओं का विस्तार भारत तक कर लिया। तब दलाई लामा भाग कर दिल्ली आ गए और अब तक निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में दलाई लामा को शरण दिए जाने के बाद चीन भारत से चिढ़ गया था। चीन आज तक दलाई लामा को आतंकवादी करार देता है जबकि पाकिस्तान का दुर्दांत आतंकवादी मसूद अजहर उसे धर्म प्रचारक दिखाई देता है। दलाई लामा समूचे विश्व को शांति और अहिंसा का संदेश देते हैं जबकि मसूद अजहर के हाथ निर्दोषों के खून से रंगे हुए हैं। पाकिस्तान एक आतंकी राष्ट्र है और उसका समर्थन करने वाला चीन भी आतंकी राष्ट्र ही हुआ। कौन नहीं जानता कि मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक आतंकवादियों की सूची में शामिल करने में उसने तीन बार अड़ंगा लगाया लेकिन अंततः वैश्विक जनमत के आगे उसे पीछे हटना पड़ा।
भारत में दलाई लामा को न केवल शरण दी गई अपितु हिमाचल के धर्मशाला में उन्होंने अपनी परम्परा के अनुसार धर्म चक्र की स्थापना भी की और तब से ही तिब्बती समुदाय भारत में अपनी गतिविधियां चला रहा है। तिब्बत के लोग आज भी चीन को कोस रहे हैं और तिब्बत में आजादी की मांग करने वाले लोग आज भी अत्याचार सह रहे हैं। तिब्बत के स्वायत्तशासी क्षेत्र को चीन का अंग स्वीकार करके भारत ने भयंकर भूल की।
पंडित नेहरू उस समय दुनिया में शांति दूत के रूप में प्रतिष्ठापित थे मगर भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि नेहरू के पंचशील के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा कर चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। दरअसल 1962 में चीन का आक्रमण कोई सीधा घोषित हमला न होकर भारत के साथ दोस्ती की आड़ में धोखा था। पंडित नेहरू ने ही मैकमोहन रेखा से लगे अरुणाचल के तवांग इलाके में भारतीय शासन स्थापित किया था। तिब्बत की सीमाओं से छूते इस इलाके में अंग्रेजों के शासनकाल में कोई शासन प्रणाली जैसी चीज ही नहीं थी क्योंकि वहां विभिन्न जनजातियां अपने-अपने हिसाब से अपना सामाजिक कानून चलाती थीं मगर यह भी इतिहास है कि चीन ने कभी मैकमोहन रेखा को स्वीकार ही नहीं किया। वह तिब्बत के अलग अस्तित्व को 1914 में तब से ही नकारता आ रहा है जब शिमला में बैठकर मिस्टर मैकमोहन ने भारत, चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करके यह रेखा खींची थी। चीन इस बैठक से उठ कर चला गया था और उसका तर्क था कि तिब्बत को अलग देश मान कर उसका प्रतिनिधि इस बैठक में बुलाना गलत है। तभी से ही मैकमोहन रेखा विवादास्पद बन गई। भूल तो अटल जी से भी हुई। कभी तिब्बत को स्वतंत्र देश मानने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनते ही तिब्बत पर अपना स्टैंड बदल लिया। 2003 में अटल जी जब चीन दौरे पर गए तो उन्होंने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया तब चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। जबकि सिक्किम का विलय तो बहुत पहले भारत में हो चुका था। अटल जी के कदम से सब हैरान रह गए थे। एक तरफ भारत मैकमोहन रेखा को अन्तर्राष्ट्रीय सीमा मानता है। तिब्बत को चीन का हिस्सा मानना अपने आप में विरोधाभासी रहा। बाद में चीन की दबंगई बढ़ती गई।
चीन अरुणाचल के तवांग पर अपना दावा जताता है। चीन बार-बार अरुणाचल के लोगों से सीधा संवाद स्थापित करने की कोशिश करता रहा है। वह अरुणाचल के लोगों को स्पष्ट संदेश दे रहा है कि आप तो चीन के नागरिक हो। चीन भावनात्मक स्तर पर भी अरुणाचल को तोड़ने की कोशिश करता रहा है। भारत में एक सशक्त चीन लॉबी रही है जिसने हमेशा देश को भयभीत किया और चीन के हितों की रक्षा की। जिस तरह महाभारत में कर्ण के रथ पर बैठा सारथी शल्य कर्ण के मनोबल को गिराता रहता था उसी प्रकार पहले की सरकारों के रथ पर ऐसे कई सारथी बैठे रहे जो सरकार का मनोबल गिराते रहे। डोकलाम में पहली बार ऐसा हुआ था कि भारत ने चीन की आंख में आंख डालकर टक्कर ली और चीन की सेनाएं वापस लौट गईं। भारत की समस्या यह है कि उसे न केवल कोरोना से निपटना है, साथ ही कोरोना के जनक से भी निपटना है। भारत को चीन से निपटने के लिए सामरिक दृष्टिकोण अपनाना होगा और वैश्विक शक्तियों के साथ मिलकर उसकी दबंगई खत्म करनी होगी।