अरुणाचल प्रदेश के ‘तवांग’ इलाके की सैनिक छावनी में 1962 के ‘भारत-चीन’ युद्ध के शहीदों में से एक ‘जांबाज सूबेदार जोगिन्दर सिंह’ का बुत भारत की आने वाली सन्तानों को मुल्क पर फिदा होने का सन्देश इस तरह देता रहेगा कि भारत भूमि की रक्षा करने में इसके सैनिकों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि उनके दुश्मन की ताकत कितनी बड़ी है। सूबेदार जोगिन्दर सिंह अपनी सैनिक टुकड़ी को लेकर चीन के अनगिनत फौजियों का मुकाबला तब तक करते रहे थे जब तक कि पीछे से भारतीय सैनिकों के दूसरे दस्ते उनकी मदद को मोर्चे पर न पहुंच जाते।
चीनियों का मुकाबला करते हुए उन्होंने वीरगति प्राप्त की मगर दुश्मन के सैनिकों को आगे नहीं बढ़ने दिया लेकिन देखिये चीन सरकार का ढीठपन कि वह आज भी उस नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) को अपना हिस्सा बताने से बाज नहीं आती जिसकी सीमाएं तिब्बत से लगी हुई हैं। 2003 में जब नई दिल्ली में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा नीत एनडीए सरकार काबिज थी तो उसने तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी अंग स्वीकार कर लिया था और बदले में चीन ने उस सिक्किम राज्य को भारत का अंग स्वीकार किया था जिसका विलय 1973 में स्व. इन्दिरा गांधी ने भारतीय संघ में किया था।
इससे पहले सिक्किम ‘भूटान’ की तरह ही एक पहाड़ी स्वतन्त्र देश था। दिसम्बर 1971 में बंगलादेश निर्माण के बाद भारतीय उपमहाद्वीप का जो मानचित्र खींचा गया था उसमें भारत की तीव्र कूटनीतिक विजय का यह ऐसा विजय स्तम्भ था जिसके बाद 1974 के मई महीने में पोखरन में पहला परमाणु विस्फोट करके भारत ने अपने दौर का ‘अश्वमेध यज्ञ’ कर डाला था और उसके घोड़े को पकड़ने की हिम्मत चीन तक में नहीं हुई थी। वह इस घटनाक्रम को मूकदर्शक बन कर देखता रहा था और राष्ट्रसंघ में सिक्किम के भारत में विलय के विरोध में हल्की सी सुरसुराहट तक पैदा नहीं कर पाया था।
अलबत्ता भारत के ही पूर्व उपप्रधानमन्त्री रहे और तब के संगठन कांग्रेस के नेता स्व. मोरारजी देसाई ने इसका विरोध किया था। ये मोरारजी देसाई वही थे जो 1977 से 1979 तक भारत की पहली गैर कांग्रेसी (जनता पार्टी) सरकार के प्रधानमन्त्री रहे थे और इस दौरान पाकिस्तान में लोकतन्त्र का तख्ता पलट करके जनरल जिया उल हक ने चुने हुए प्रधानमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो को गिरफ्तार करके उन पर मुकदमा चला कर फांसी की सजा दिलवा दी थी और परमाणु बम बनाने के कार्यक्रम को चोरी-छुपे सिरे चढ़ाना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान के सम्बन्ध चीन के साथ इस तरह बल खाने शुरू हुए कि इसके परमाणु कार्यक्रम को अंजाम तक पहुंचाने में इसने पूरी इमदाद दी और 1989 के आते-आते पाकिस्तान ने भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में शैतानी हरकतों का जाल इस तरह बुना कि इस्लामी जेहाद के नाम पर यहां तालिबानी हरकतें शुरू हो गईं।
इसके बाद 1998 में तीन दशक बाद कश्मीर समस्या का जिक्र किसी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर दक्षिण अफ्रीका में हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन सम्मेलन में किसी और ने नहीं बल्कि इस देश के स्वाधीनता सेनानी रहे राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने किया। चीन कूटनीतिक रूप से भारत पर सवार होने लगा क्योंकि भारत में आर्थिक उदारीकरण ने उसके लिए ऐसा अवसर उपलब्ध कराया जिसकी बदौलत वाणिज्यिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा पहुंच वाला देश बनता चला गया और 2003 तक भारत तिब्बत को उसका अंग स्वीकार करने की मुद्रा में आ गया। चीन की सामरिक व आर्थिक ताकत ने दुतरफा असर डाला जबकि पाकिस्तान लगातार दुश्मनी के अन्दाज में पैंतरेबाजी दोस्ती का स्वांग भर कर करता रहा। चीन ने 2003 में भारत द्वारा तिब्बत पर उसका अधिकार स्वीकार किये जाते ही नया दांव अरुणाचल प्रदेश में फैंकना शुरू कर दिया और पहला मौका मिलते ही अरुणाचल प्रदेश को अपने भौगोलिक नक्शे में दिखा दिया जिसकी गूंज 2003 में भारतीय संसद में ही जम कर हुई।
वाजपेयी सरकार ने तब इस पर विरोध प्रकट करके सन्तोष कर लिया और दोनों देशों के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए गठित विशेष संयुक्त कार्यकारी दल की भूमिका पर जोर दिया जिसका नेतृत्व भारत की तरफ से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को दिया गया था। इसके बाद इस दल की बैठकों का सिलसिला शुरू हुआ मगर चीन लगातार अरुणाचल प्रदेश में भारत के प्रधानमन्त्री या अन्य किसी महत्वपूर्ण मन्त्री की यात्रा का विरोध करता रहा।
2004 में डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमन्त्री बनने के बाद जब उन्होंने जनवरी 2008 में अरुणाचल प्रदेश की यात्रा की तो चीन ने इसे भी विवाद का विषय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और यहां तक कह डाला कि इस राज्य के विकास के लिए परियोजनाएं घोषित करने का भारत सरकार को कोई अधिकार नहीं है जबकि ईटानगर (अरुणाचल की राजधानी) पहुंचने से केवल दो सप्ताह पहले ही मनमोहन सिंह चीन की यात्रा करके आये थे और बीजिंग में दोनों देशों के नेताओं ने एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध और मधुर बनाने की कसमें खाई थीं। चीन के इस विरोध के खिलाफ भी भारतीय संसद में गूंज हुई और तब विपक्षी भाजपा के नेता लालकृष्ण अडवानी ने कहा कि भारत की संसद को कश्मीर की तर्ज पर ही एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित करके घोषणा करनी चाहिए कि ‘अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और अटूट अंग है।’
इसका जबर्दस्त कारगर और मुंहतोड़ जवाब तब लोकसभा में सदन के नेता और विदेश मन्त्री पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने देते हुए साबित कर दिया था कि किसी भी देश की धृष्टता का उत्तर देने की सामर्थ्य हमारे सार्वभौम व संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र में है। उन्होंने तब छाती ठोक कर जवाब दिया था कि दोनों देशों की सरहदों का पेंच सुलझाने के लिए जो कार्यदल पिछली वाजपेयी सरकार के दौरान ही गठित हुआ है, उसने उस फार्मूले पर आगे बढ़ना शुरू किया है जिसके तहत सीमा पर जो इलाका जिस देश के प्रशासन के तहत चल रहा है और वहां रहने वाले लोग उसके अनुसार अपना जीवन चला रहे हैं, वह उसी का क्षेत्र समझा जायेगा, इसकी वजह यह थी कि चीन उस सीमा रेखा को स्वीकार नहीं करता है जिसे मैकमोहन रेखा कहा जाता है और जो 1915 में भारत, चीन व तिब्बत के बीच खींची गई थी। 1915 में ही चीन ने ब्रिटिश भारत के मिस्टर मैकमोहन के इस कार्य का विरोध इसलिए किया था क्योंकि वह तिब्बत को एक स्वतन्त्र राष्ट्र स्वीकार नहीं करता था।
अतः तिब्बत के दक्षिणी भाग से जुड़े नेफा (अरुणाचल प्रदेश) को विवादास्पद बनाने का चीनी प्रयास आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि इस क्षेत्र में बुद्ध मत का प्रभाव रहा है, परन्तु यह भी हकीकत है कि 1950 में तिब्बत पर जब चीन ने हमला किया था तो भारत की सरकार ने पूरे नेफा इलाके में अपना प्रशासन चुस्त-दुरुस्त कर दिया था और बाद में तिब्बत की दलाई लामा की निर्वासित सरकार को इज्जत बख्शी थी और तिब्बतियों को शरणार्थियों का दर्जा दिया था। अतः विगत दिनों गृहमन्त्री श्री अमित शाह की अरुणाचल प्रदेश यात्रा पर चीन का शोर मचाना केवल ऐसी नाटकबाजी है जिसकी मार्फत वह भारत को अनावश्यक रूप से कूटनीतिक दबाव में रखना चाहता है।
चीन को मालूम है कि 1962 के युद्ध के बाद से उसने भारत की उस 38 हजार वर्ग कि.मी. भूमि पर कब्जा जमा रखा है जो नेफा इलाके की है और तिब्बत के हिम पठारों से मिलती है। बेशक इस पर आबादी बहुत कम है और उपज भी खास नहीं होती मगर ऐतिहासिक रूप से यह भारत का ही हिस्सा रही है। इस दबाव को कम करने के लिए वह हिमाचल प्रदेश का ही रोना 2003 से जारी रखे हुए है क्योंकि तिब्बत पर उसके अधिकार को भारत ने स्वीकार कर लिया है। कुछ माह पहले जब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी अरुणाचल प्रदेश गये थे तब भी चीन ने ऐसा ही रोना रोया था।