चीन के राष्ट्रपति शी-जिन-पिंग की दो दिवसीय अनौपचारिक यात्रा समाप्त हो चुकी है। इस यात्रा के परिणामों के बारे में ज्यादा बहस-मुहाबिसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि इसमें ‘औपचारिक’ केवल इतना था कि दो देशों के सत्ता प्रमुख मिल रहे थे। जाहिर है कि इनके बीच होने वाली दोस्ताना बातचीत में अपने-अपने देश के हित इस प्रकार केन्द्र में रहे होंगे कि आपसी सहयोग के क्षेत्र में किसी प्रकार के मतभेद बीच में न आ पायें। अतः ‘मोदी-पिंग’ वार्ता में कश्मीर का जिक्र न होना बहुत स्वाभाविक और सामान्य माना जायेगा।
महत्वपूर्ण यह होगा कि स्वदेश लौटने के बाद श्री पिंग का कश्मीर के बारे में रुख क्या रहता है और क्या इसमें वह भारत व पाकिस्तान दोनों के निकट पड़ौसी होने के नाते तटस्थ दृष्टिकोण अपनाते लगते हैं ? परन्तु यह फैसला भी चीन अपने राष्ट्रीय हितों के सापेक्ष ही करेगा क्योंकि पाकिस्तान में वह जिस सी पैक परियोजना को लागू कर रहा है, वह 60 अरब डालर की है और भारत में अभी तक उसका कुल निवेश आठ अरब डालर के लगभग का ही है। अतः दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने को लेकर जो ‘उच्च स्तरीय तन्त्र’ गठित करने का फैसला इस यात्रा मे किया गया है, वह आपसी सम्बन्धों की दिशा की ओर इशारा करता है।
भारत की ओर से इसका नेतृत्व वित्तमन्त्री करेंगी जबकि चीन की ओर से इसके एक उपराष्ट्रपति। यह तन्त्र उसी तर्ज पर कहा जा सकता है जिस प्रकार 2003 में दोनों देशों के सीमा विवाद को समाप्त करने के लिए वार्ता तन्त्र गठित किया गया था जिसका भारत की ओर से नेतृत्व इसके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार करते हैं। आर्थिक सहयोग तन्त्र स्थापित करना निश्चित रूप से एक नीतिगत फैसला है जिसका सम्बन्ध भारत और चीन की सार्वभौमिक सरकारों से ही न कि फिलहाल सत्ता पर आसीन किसी राजनैतिक दल से इस फैसले के परिणाम दूरगामी होंगे जिनसे दोनों देशों के सम्बन्धों के भविष्य में निर्देशित होने की क्षमता रहेगी, जहां तक रक्षा व सुरक्षा क्षेत्र का सवाल है तो पुनः पाकिस्तान के साथ चीन के सम्बन्धों को संज्ञान में रखना पड़ेगा क्योंकि बीजिंग की प्राथमिकता अपने आर्थिक हितों के संरक्षण की रहेगी जिन्हें वह बहुत रणनीतिक रूप से पाकिस्तान में बढ़ा रहा है।
किन्तु पाकिस्तान से भारत का मुकाबला किसी भी स्तर पर कोई भी देश नहीं कर सकता है। इसकी वजह भी बहुत स्पष्ट है। भौगोलिक रूप से इसकी उपयोगिता रणऩीतिक हितों को पूरा करने तक ही सीमित है.और 1947 में पश्चिमी देशों द्वारा इसके निर्माण का उद्देश्य भी यही था जिससे भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर पश्चिम एशिया तक में स्वतन्त्र हुए भारत की क्षमताओं को बांधा जा सके। अतः अपने वजूद से लेकर अभी तक पाकिस्तान यही भूमिका निभाता आ रहा है। परिवर्तन यह हुआ है कि इस सदी के शुरू होने के बाद चीन जिस तरह विश्व की आर्थिक शक्ति की राह पर तेजी से बढ़ा है उसमें पश्चिमी देशों के स्थान पर चीन आ गया है और वह पाकिस्तान को अपने साथ लेकर भारत की आर्थिक तरक्की की राह सुस्त करना चाहता है।
अतः चीन के बारे में बहुत जोश में आकर सोचना तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। कश्मीर के बारे में उसके रुख में परिवर्तन केवल कूटनीतिक कदम नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके पीछे उसकी खुरदरी (क्रूड) रणऩीति है जिसके तहत वह दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है जिसमें पाकिस्तान के अलावा श्रीलंका से लेकर मालदीव, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया व वियतनाम आदि देश तक आते हैं। इसके साथ ही अफ्रीका महाद्वीप के समस्त देशों में उसका आर्थिक विस्तार विश्व मानचित्र में उसकी हैसियत अमेरिका के मुकाबले खड़ा कर रहा है।
अतः जापान, अमेरिका व आस्ट्रेलिया का तिगड्डा उसके मार्ग को कठिन बनाने के प्रयासों में है, जिसकी वजह से भारत का सहयोग अत्यन्त संजीदा बन गया है और अमेरिका हर हाल में भारत का सहयोगी बनना चाहता है जिसे चीन भी भीतरखाने स्वीकार करता है और पाकिस्तान की आड़ में भारत से सन्तुलन इस प्रकार बनाना चाहता है कि उसके हितों पर कोई आंच न आये। यह स्थिति भारत को लाभप्रद मोड़ पर खड़ा करने की क्षमता इस प्रकार रखती है कि वह पूरे घटनाक्रम में ‘तटस्थ’ रहते हुए अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति में वृद्धि को सिरे चढ़ाता जाये और हिन्द महासागर व प्रशान्त महासागर क्षेत्र को ‘अंतर्राष्ट्रीय शान्ति परिमंडल’ के दायरे में अवस्थित करता रहे।
यह क्षेत्र किसी भी सूरत में अंतर्राष्ट्रीय जंगी अखाड़ा नहीं बन सकता। ऐसी किसी भी संभावना के टालने की क्षमता केवल हिन्दोस्तान में ही है क्योंकि पूरे दक्षिण एशिया से लेकर अफ्रीका क्षेत्र में भारत की ‘साख’ का चीन की ‘साख’ से कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता। चीन इसी मोर्चे पर भारत से जबर्दस्त तरीके से पिटता रहा है जिसकी क्षति पूर्ति वह अपनी ‘आर्थिक’ ताकत से करना चाहता है। यह प्रतिष्ठा या साख हमारी बहुत बड़ी ताकत है जिसकी भरपाई किसी भी अन्य तरीके से असंभव है। इसका लाभ हमें कूटनीतिक मोर्चे पर उठाते हुए चीन से संतुलन पैदा करना होगा। जहां तक कश्मीर का सवाल है तो चेन्नई में चीन की चुप्पी स्वयं बताती है कि वह मौका देखकर अपना रुख बदल सकता है।