चीनी विदेश मन्त्री की यात्रा पहल - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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चीनी विदेश मन्त्री की यात्रा पहल

भारत-चीन के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों में सुधार करने की पहल करने के लिए चीन अब बेताब दिखाई पड़ रहा है और भारत से अपने सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए अपने विदेश मन्त्री श्री वांग यी को इसी महीने के अन्त तक दिल्ली भेजना चाहता है।

भारत-चीन के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों में सुधार करने की पहल करने के लिए चीन अब बेताब दिखाई पड़ रहा है और भारत से अपने सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए अपने विदेश मन्त्री श्री वांग यी को इसी महीने के अन्त तक दिल्ली भेजना चाहता है। इसे एक शुभ संकेत तब माना जा सकता है जब चीन अपनी पुरानी गलतियों में सुधार करे और भारत की भूमि पर उसने अतिक्रमण करने का जो अभियान दो साल पहले लद्दाख की गलवान घाटी से शुरू किया था उसे समाप्त करे। चीन को अगर यह अक्ल आती है कि भारत उसका ऐसा पड़ोसी है जिससे उसकी सीमाएं छह स्थानों पर मिलती हैं तो समूचे एशिया खंड में सकारात्मक माहौल बन सकता है परन्तु इससे इतना जरूर सिद्ध होता है कि चीन की सीनाजोरी का मुकाबला इन दो वर्षों के दौरान भारत ने डट कर किया है और उसकी कोई भी एेसी चाल सफल नहीं होने दी है जिससे चीन को लगे कि वह भारत पर अपनी धौंस चला सकता है। 
दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध का भी इस घटनाक्रम से लेना-देना लगता है क्योंकि राष्ट्रसंघ में इस मुद्दे पर भारत व चीन का रुख लगभग एक जैसा ही रहा है। इसकी मुख्य वजह यह है कि अमेरिका व पश्चिम यूरोपीय देशों व नाटो के इकतरफा तरीके से यूक्रेन के समर्थन में उतर जाने पर केवल रूस, चीन व भारत ही एेसी शक्तियां हैं जो इस तनाव भरे माहौल को हल्का करने की क्षमता रखती हैं। भारत इस मामले में जिस तरह नाप-तौल कर चल रहा है और रूस के साथ अपने पुख्ता व मधुर सम्बन्धों की रोशनी में वस्तु स्थिति को परख रहा है उससे चीन व भारत के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति का रास्ता निकलता है जिसकी वजह से चीन की तरफ से यह पहल की गई लगती है। बेशक दो साल पहले हुए भारत व चीन की फौजों के बीच गलवान घाटी में हुए खूनी संघर्ष के बाद एेसी की दूसरी घटना नहीं हुई है मगर लद्दाख में सीमा के आर-पार दोनों देशों की फौजें कस कर डटी हुई हैं और 50-50 हजार की संख्या में मय फौजी असले के हैं। अतः सम्बन्धों में सुधार के लिए जरूरी है कि सबसे पहले इसी मोर्चे पर नरमी दिखाई पड़े। पूरी दुनिया जानती है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के पश्चिमी व अमेरिकी ताकतों के सामने झुके हुए माहौल को बदलने के लिए ही 2007 के करीब ब्रिक्स ( भारत, रूस, ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका) देशों का समूह बना था। 
वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों के बीच इस संगठन की प्रासंगिकता इस वजह से और बढ़ गई है कि आर्थिक शख्तियों ने सामरिक शक्तियों पर वर्चस्व हासिल करने की रणनीति पर आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। क्योंकि जहां तक सामरिक शक्ति का सवाल है तो पाकिस्तान जैसे नामुराद मुल्क के पास भी आज परमाणु बम है। यही वजह है कि अमेरिका यूक्रेन के पक्ष में खड़ा होने के लिए रूस के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाता जा रहा है जिसे चीन जैसी आर्थिक शक्ति सहजता में नहीं ले रही है परन्तु भारत के सन्दर्भ में चीन की भूमिका सामरिक स्तर पर बहुत संजीदा इसलिए मानी जाती है कि इसके साथ युद्ध में उलझने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। 1962 में चीन ने ही धोखे से भारत पर आक्रमण करके इसके अक्साई चीन इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था और दो साल पहले ही अतिक्रमण करने की गुस्ताखी भी की थी। अतः चीन को सर्वप्रथम इसी मोर्चे पर भारत के साथ अपने मतभेद सुलझाते हुए आगे बढ़ना होगा और ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से पहले सम्बन्धों में मधुरता लानी होगी। 
ब्रिक्स का सम्मेलन भी इसी वर्ष के अंत तक चीन में ही होगा और चीन चाहता है कि भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इस सम्मेलन में व्यक्तिगत रूप से आयें परन्तु श्री मोदी का चीन जाना तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक दो साल पहले उपजे नये सीमा विवाद का हल दोनों पक्षों की रजामन्दी से न हो जाये, अतः चीन इससे पहले ही अपने विदेश मन्त्री को नई दिल्ली भेज कर कूटनीतिक वार्ता का रास्ता खोलना चाहता है। जाहिर है कि चीनी विदेश मन्त्री वाग यी की इस यात्रा के बाद भारत के विदेश मन्त्री श्री एस. जयशंकर भी बीजिंग की यात्रा कर सकते हैं जिससे दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय वार्ता का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि क्षेत्रीय सुरक्षा और सहयोग की दृष्टि से पहले से ही रिक (भारत, रूस, चीन) संगठन बी अस्तित्व में है और बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में इस संगठन की महत्ता भी बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। अतः भारत को इस मोर्चे पर भी अपनी स्थिति सुदृढ़ रखनी है और पूरी दुनिया को सन्देश देना है कि वह विश्व शान्ति का ही अलम्बरदार है और किसी भी स्तर पर तनावपूर्ण वातावरण के पक्ष में वह खड़ा हुआ नहीं है लेकिन चीन की नीयत पर भी आंख मींच कर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि विस्तारवाद उसकी शुरू से ही रणनीति रही है अतः इसे देखते हुए ही भारत को अपनी नीति तय करनी होगी।

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