जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और उससे सम्बद्ध धारा 35-ए के नाम पर भारत के नागरिकों से हमेशा भेदभाव होता रहा। देश विभाजन के वक्त जो लोग पाकिस्तान से आकर जम्मू-कश्मीर में ठहरे और रहने लगे, वे भारत के नागरिक तो थे लेकिन उन्हें जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं माना जाता था। सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक ही नागरिकता है जिसे हम भारतीय नागरिकता कहते हैं। जम्मू-कश्मीर में एक राज्य नागरिकता की भी व्यवस्था थी। यहां के नागरिक को भारत के अन्य नागरिकों जैसी सारी सुविधाएं थीं, परन्तु अन्य राज्यों के नागरिकों को यहां प्रदेशी नागरिकता प्राप्त लोगों जैसी सुविधाएं प्राप्त नहीं थीं। इसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर का नागरिक तो भारत में चाहे कहीं भी सम्पत्ति खरीद और बेच सकता है, परन्तु यहां जमीन की खरीद और बेचने के लिए प्रदेश की नागरिकता चाहिए।
प्रदेश की नौकरियों पर भी राज्य के नागरिकों का अधिकार था, अन्य लोग तो यहां आवेदन भी नहीं कर सकतेेे थे। इस प्रदेश की महिला का यदि किसी अन्य प्रदेश में विवाह होता था तो उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति और राज्य की नागरिकता से हाथ धोना पड़ता था परन्तु अगर वह किसी पाकिस्तानी से विवाह करती थी तो वह यहां की नागरिकता प्राप्त कर सकता था। कई वर्षों तक अनुच्छेद 370 को लेकर चर्चा होती रही कि यह जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए कितना फायदेमंद रहा।
अनुच्छेद 370 को खत्म करने के लिए ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बलिदान दिया था। स्वस्थ लोकतंत्र में वैचारिक संघर्ष, बहस तथा नीतिगत विरोध एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि ऐसा न हो तो संसदीय शासन प्रणाली गूंगी-बहरी गुड़िया से अधिक कुछ नहीं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरी बार सत्ता में आते ही गृहमंत्री अमित शाह ने वह कर दिखाया जिसे करने की हिम्मत और साहस आजादी के बाद से अभी तक कोई गृहमंत्री नहीं कर सका। उन्होंने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति का अध्यादेश जारी कराने के बाद इसे संसद में भी पारित करवा लिया। एक तरफ उन्होंने जम्मू-कश्मीर में पूरी नागरिक शांति बनाए रखने के लिए भारी सुरक्षा बलों की तैनाती की और दूसरी तरफ राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं को घाटी में ही समेट कर रख दिया।
गृहमंत्री अमित शाह ने पूरी कार्रवाई उसी तरह की जिस तरह आजादी के बाद जूनागढ़ सियासत को प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में मिलाने के लिए की थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को दो राज्यों में बांट कर पाकिस्तान परस्त सियासतदानों के हाथ से स्वायत्ता और रायशुमारी कराने का हथियार हमेशा से छीन लिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह वास्तव में राष्ट्रीय स्वाभिमान के रक्षक बन गए।
जम्मू-कश्मीर के नजरबंद नैकां नेता फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और अन्य की रिहाई हो चुकी है। आने वाले दिनों में पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती की रिहाई हो सकती है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की तैयारियों के चलते परिसीमन का काम चल रहा है। इसी बीच गृहमंत्री अमित शाह ने राज्य में विरोधाभासों को खत्म करने के लिए कश्मीर में डोमिसाइल नियमों का ऐलान कर दिया है। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के लगभग साढ़े सात माह बाद जम्मू-कश्मीर के वाशिंदों को नौकरी और जमीन का हक मिल गया है। गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (राज्य कानूनों का अनुकूलन) आदेश जारी किया है। जिसमें 15 साल तक राज्य में रहने वाले लोगों को यहां का स्थायी अधिवासी माना जाएगा ताकि वे लोग अचल संम्पत्तियां व जमीन भी खरीद सकें। नौकरी के हक के तहत चतुर्थ श्रेणी तक के पद केवल यहीं रहने वाले लोगों के लिए आरक्षित हों। आल इंडिया सर्विस के तहत दस साल तक की सेवा करने वालों के बच्चों को भी डोमिसाइल वर्ग में माना जाएगा। अगर किसी ने यहां सात वर्ष तक पढ़ाई की है और दसवीं तथा बारहवीं की परीक्षा यहां से दी हो तो वह भी डोमिसाइल की श्रेणी में आएगा।
इसमें केन्द्र सरकार के कर्मचारियों, सार्वजनिक उपक्रमों, बैंकों और अन्य संस्थानों के कर्मचारियों, जिन्होंने दस वर्ष तक प्रदेश की सेवा की हो, को भी डोमिसाइल का लाभ मिलेगा। विभाजन के समय आए लोगों को राज्य की नागरिकता नहीं मिलने से वे शिक्षा, नौकरियों में पिछड़ते चले गए। गृह मंत्रालय के फैसले से राज्य में नागरिकता को लेकर विरोधाभास खत्म हो गया है।
नेशनल कांफ्रैंस के उमर अब्दुल्ला, पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती और अन्य इस आदेश का विरोध कर रहे हैं। कश्मीर के राजनीतिक दल इसे राज्य में जनसांख्यिकी परिवर्तन की साजिश करार दे रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दल अगर विरोध कर रहे हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि धूमिल ही होगी क्योंकि कश्मीरी अवाम की समस्याओं का हल राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़कर ही हो सकता है और उनकी प्रगति भी मुख्यधारा में ही सम्भव है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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