भारत की अद्भुत विविधतापूर्ण समन्वयवादी संस्कृति की झलक अब से 550 वर्ष पूर्व देव दीपावली के दिन जन्मे सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी अपनी वाणी में सदृश करके पूरी दुनिया को रोशनी दिखाई थी। यह उसका ही परम प्रताप था कि 1893 में अमेरिका के शहर शिकागो में विश्व धर्म संसद के सम्मेलन में महान भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी कि भारत मानवीयता के संस्कारों से ‘जुड़ा’ हुआ ऐसा देश है जिसमें किसी व्यक्ति का धर्म इसकी राष्ट्रीय पहचान में आड़े नहीं आता।
वास्तव में स्वामी विवेकानन्द उस दौर के ऐसे महान विचारक और आध्यात्मिक सन्त थे जिन्होंने भारत की अनुभूति धर्म ग्रन्थों से अधिक इसकी मानवीय जन- परंपराओं से की थी, उन्होंने जब धर्म संसद में उपस्थित श्रोताओं को बहनों और भाइयों से सम्बोधित किया था तो स्पष्ट हो गया था कि भारत के नागरिकों के आपसी सम्बन्ध आदमी और औरत से ऊपर आत्मीय पारिवारिक रिश्तों की डोर से बन्धे होते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता स्त्री, पुरुष के विलगाव के भाव से स्वतः ऊपर उठ जाती है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष था, परन्तु इसके मूल में महान गुरु नानकदेव जी महाराज का वह भारत वर्णन था जो उन्होंने अपने जीवनकाल में व्याख्यायित किया था-
‘‘कोई बोले राम- राम, कोई खुदाया
कोई सेवैं गुसैय्यां, कोई अल्लाया
कोई नहावे तीर्थ, कोई हज जाये
कोई करे पूजा, कोई शीश नवाये।।’’
गुरु ग्रन्थ साहिब की शोभा बनी इस वाणी में हम भारत की उस आत्मा को देख सकते हैं जो इसकी ‘रज’ में आदिकाल से व्याप्त रही है। बेशक गुरु महाराज का कर्म काल मुगल शासन की शुरूआत रहा है परन्तु उन्होंने इस देश में इस्लाम धर्म के प्रादुर्भाव का सम्मान करते हुए अपनी वाणी को वर्णित किया, परन्तु पिछली सदी में बिना किसी शक के वह सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी थी जब 1947 में मजहब के नाम पर मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत के दो टुकड़े करा डाले और धर्म को राष्ट्रीयता का परिचायक बना डाला।
किन्तु गांधी ने तभी कहा कि ‘उनकी अन्तिम इच्छा पाकिस्तान में ही दम तोड़ने की होगी’। गांधी का यह कथन द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर उसी समय करारा तमाचा था। मैं इस विवाद में नहीं पड़ रहा हूं कि हिन्दू-मुस्लिम आधार पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त सबसे पहले सावरकर ने अंग्रेजों से क्षमा याचना करने के बाद अंडमान जेल से रिहा होने पर अपनी एक पुस्तक में दिया और बाद में 1935 के हिन्दू महासभा के अधिवेशन में इसे रखा गया अथवा 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद सम्मेलन में ‘मुस्लिम राज्य’ की मांग स्वयं अल्लामा इकबाल ने इसकी सदारत करते हुए पहली बार की और 1936 के आते-आते जिन्ना ने अलग पाकिस्तान की मांग शुरू कर दी, परन्तु हकीकत तो यही रहेगी कि 1947 में भारत को काट कर ही एक नाजायज मुल्क पाकिस्तान बन गया जिसका राजधर्म इस्लाम घोषित किया गया और बाद में वहां रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दू व सिखों का जीवन लगातार दूभर बनता चला गया।
अतः उनके भारत में शरण मांगने के हक को पूरी तरह जायज माना जाना चाहिए परन्तु मुख्य मुद्दा हिन्दुओं व गैर मुस्लिम विदेशी नागरिकों को भारत की नागरिकता देने का नहीं है बल्कि विदेशी मुस्लिम नागरिकों द्वारा भी ऐसी ही गुहार लगाये जाने पर उन्हें भारत में शरण देने का है जिस पर भाजपा के विरोधी दल लगातार जोर दे रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा पेंच यह है कि भारत के संविधान को लिखने वाले हमारे ‘काल ऋषियों’ ने नागरिकता देने के लिए धर्म को कभी मुद्दा माना ही नहीं और नागरिकता पाने व नागरिक होने के नियम सभी प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर बनाये। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन मनीषियों ने बाबा साहेब अम्बेडकर की निगरानी में संविधान का 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा भारत का बंटवारा होने के बाद ही लिखा।
हिन्दू-मुस्लिम का प्रश्न उनके सामने इतनी भीषण त्रासदी हो जाने के बावजूद क्यों नहीं आया? बल्कि उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14 में स्पष्ट किया कि भारत के किसी भौगोलिक भाग में धर्म, नस्ल या जाति अथवा लिंग की वजह से किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता और कानून के सामने सभी बराबर होंगे। तर्क दिया जा रहा है कि नागरिक संशोधन अधिनियम भारत के नागरिकों पर नहीं बल्कि विदेशों से आने वाले शरणार्थियों की नागरिकता तय करने से होगा, परन्तु मूल सवाल यह है कि भारत की धरती पर आकर ही तो वे नागरिकता की मांग करेंगे।
विपक्ष को यह भी दिक्कत है कि मोदी सरकार केवल तीन इस्लामी देशों पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान के शरणार्थियों के लिए ही ये कानून बनाना चाहती है जबकि म्यांमार से लेकर मालदीव व श्रीलंका के शरणार्थियों पर यह कानून लागू नहीं होगा। धार्मिक आधार पर यदि इन देशों में भी प्रताड़ना दी जाती है तो वहां के शरणार्थियों के लिए सरकार क्यों नहीं सहृदयी होगी? हमारी शरणार्थी नीति पाकिस्तान केन्द्रित क्यों हो जबकि हमें मालूम है कि अफगानिस्तान से हमारी सीमाएं बामुश्किल ही छूती हैं और जहां छूती हैं वह कश्मीर का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में है।
बंगलादेश हमारा ऐसा परम मित्र देश है जिसका राष्ट्रगान तक हमारे गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का लिखा हुआ है और वह भी तब है जबकि इस देश का राजधर्म ‘इस्लाम’ जबरन लादे गये फौजी शासन के दौरान किया गया था वरना यह देश बांग्ला संस्कृति का अद्भुत ध्वज वाहक देश है और इसमें रहने वाले हिन्दू व बौद्ध निर्भय होकर उसी प्रकार जीवन गुजारते हैं जितने कि भारत में मुसलमान इक्का-दुक्का घटनाओं को अपवाद ही कहा जायेगा। अतः बहुत आवश्यक है कि हम भारत की वीणा के तारों को ‘झंकृत’ करें और उससे निकलने वाले ‘सुर’ की ‘लय’ को समझें। कानून बनते रहते हैं मगर देश इनमें रहने वाले लोगों से ही बनता है और इनकी आपसी एकता ही राष्ट्रीय एकता में परिवर्तित होती है।