देश के हर छाेटे-बड़े शहरों में एक के बाद एक भयंकर अग्निकांड होते रहते हैं। ये अग्निकांड महज हादसा नहीं होते बल्कि यह मानव निर्मित होते हैं, क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार होती है मनुष्य की लापरवाही। कभी फैक्टरी में मजदूर जिंदा जल जाते हैं, कभी कोचिंग सैंटर में बच्चों की आग से मौत हो जाती है तो कभी परिवार तबाह हो जाते हैं। कारण यही है कि हमने एक के बाद एक होते अग्निकांडों से कोई सबक नहीं सीखा और न ही प्रशासन कोई सबक सीख रहा है। आग से मरने वालों के लिए संवेदनाएं व्यक्त की जाती हैं, सरकार मुआवजा घोषित कर देती है। कुछ दिनों बाद लोग घटना को भूल जाते हैं, फिर नए अग्निकांड का इंतजार किया जाता है।
घटना तभी होती है जब नियमों और कानूनों का उल्लंघन किया जाता है। जब भी कायदे कानूनों की धज्जियां उड़ा कर व्यापार किया जाएगा तो ऐसी घटनाएं होंगी ही। कुछ दिन पहले दिल्ली की अनाज मंडी की संकरी गली में एक फैक्टरी में आग लगने से 43 लोगों की जान चली गई। फायर ब्रिगेड के कर्मचारियों ने कुछ लोगों को बचाया भी लेकिन अधिकांश लोगों की मौत दम घुटने से हो गई। वैसे तो रिहायशी इलाके में फैक्टरी चलाना ही अवैध है। फैक्टरी मालिक ने न तो अग्नि सुरक्षा के लिए कोई उपाय किए थे और न ही आग लगने की स्थिति में फैक्टरी से निकलने का कोई वैकल्पिक रास्ता था। फैक्टरी में मजदूर ऐसे रह रहे थे जैसे किसी अस्तबल में पशु रखे जाते हैं।
मरने वालों में अधिकांश लोग बिहार के थे। लोग अपना घरबार छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आ जाते हैं और जिन फैक्टरियों में काम करते हैं, वहीं रात को साे जाते हैं, क्योकि उनका वेतन इतना नहीं होता कि किराये पर मकान लेकर अलग से रह सकें। जो भी बचत करते है, वह अपने परिवार के लिए भेज देते हैं। दिल्ली उनसे ऎसे व्यवहार करती है जैसे वह इंसान न होकर खरीदा गया गुलाम हो। व्यापारी उनके बल पर लाखों कमाते हैं लेकिन वे मजदूरों के लिए कामकाज की परिस्थितियों में सुधार नहीं करते। श्रमिक वर्ग नारकीय जीवन व्यतीत कर रहा है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली फायर ब्रिगेड के पास आग बुझाने के संसाधन नहीं हैं लेकिन कई बार परिस्थितियां अनुकूल नहीं होती। जब संकरी गलियों में फायर ब्रिगेड की गाडि़यां जा ही नहीं सकें तोफिर दोष किसे दिया जाए।
अब दिल्ली के किराड़ी इलाके में एक रिहायशी इमारत में लगी आग में 6 माह के शिशु समेत 9 लोग जिन्दा जल गए। यह हादसा बता रहा है कि लोगों की जान कितनी सस्ती है और जिन परिस्थितियों में लोग रह रहे हैं, उससे ऐसे हादसों से बचा नहीं जा सकता। यद्यपि फायर ब्रिगेड ने ढाई घंटे में आग पर काबू पा लिया वरना और भी जानें जा सकती थीं। मकान की ग्राउंड फ्लोर पर कपड़े का गोदाम था और ऊपर की दो मंजिलों पर लोग रहते थे। हमेशा ही तरह आग लगने का कारण बिजली का शार्ट सर्किट होना बताया जाता है लेकिन यह स्पष्ट है िक यह हादसा लापरवाही का परिणाम है।
राजधानी के कई रिहायशी इलाके व्यावसायिक केन्द्रों में तब्दील हो चुके हैं। घरों में फैक्टरियां चल रही हैं, साथ ही उनमें लोग रह भी रहे हैं। छोटी-छोटी तंग गलियों में बिजली की तारों का जाल फैला हुआ है। पता नहीं किस तार को छूने पर करंट लग जाए। यदि इलाके खुले भी हैं तो मकानों को गोदाम बना दिया गया और सम्पत्ति मालिक उसकी मंजिलों को किराये पर देकर धन कमा रहा है। रिहायशी इलाकों में फैक्टरियां बिना सरकारी तंत्र की मिलीभगत से चल ही नहीं सकती लेकिन देश की राजधानी में सब चलता है। न तो सरकारी तंत्र को इसकी परवाह, न उद्योग विभाग को। प्रदूषण फैलाने वाले यूनिट अब भी चल रहे हैं। अगर जांच के लिए कोई आता भी है तो प्रति महीने की तय राशि लेकर चला जाता है। नीचे से ऊपर तक पैसा बंट जाता है, जैसे लूटा गया माल डकैत बांट लेते हैं। सरकारी तंत्र ने लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है।
13 जून, 1997 का दिन वे परिवार कभी नहीं भूल सकते जिसमें उनके 59 परिजनों की मौत उपहार सिनेमा अग्निकांड में हो गई थी। उन परिवारों की आंखों में आज भी आंसू देखे जाते हैं। इस हादसे में 103 लोग झुलसे भी थे। अदालतों में मुकदमा चला और उन्हें 30-30 करोड़ का जुर्माना लगाकर रिहा कर दिया गया। इसी वर्ष मई के महीने में सूरत में तक्षशिला काम्प्लैक्स में लगी आग ने 20 छात्रों की जान ले ली। पूरे देश ने टीवी पर खौफनाक मंजर देखा था कि आग से बचने के िलए बच्चे इमारत से कूद रहे थे और अपनी जान गंवा रहे थे। इमारत से उतरने के लिए कोई संसाधन मौजूद नहीं थे। इमारत की छत पर कोचिंग क्लास भी अवैध रूप से चलाई जा रही थी।
क्लास में जाने के लिए भी लकड़ी की सीढ़ी थी, जो आग लगने से जल गई थी। हर हादसे के बाद जिन्दगी पटरी पर लौट आती है। जांच चलती रहती है लेकिन कोई सबक नहीं लेता। न तो सरकारी तंत्र और न ही लोग। लोग करें भी तो क्या, जहां जगह िमली, वहां बसेरा बना लिया। लोग भी नहीं सोचते किऐसे हादसों से बचने के उपाय क्या हैं। राजनीतिक दल अग्निकांडों पर सियासत करते हैं। कोई निगम के लाइसेंसिंग विभाग को जिम्मेदार ठहराएगा तो कोई दिल्ली सरकार को। यह सच है कि दिल्ली बारूद के ढेर पर बैठी है।