बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को झटका दे रहीं, उससे साफ है कि आगामी आम चुनावों में विपक्षी गठबंधन अब दूर की कौड़ी नजर आने लगा है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते महागठबंधन बनने से पूर्व ही बिखरता नजर आ रहा है। बसपा ने पहले 10 सितम्बर को पैट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को लेकर बुलाए गए बन्द से अपने आपको अलग रखा था। एक तरफ जहां भारत बन्द के दौरान कांग्रेस के साथ कई विपक्षी दलों ने एकजुटता दिखाने का प्रयास किया वहीं दूसरी तरफ बसपा ने कहा कि उनके विरोध का तरीका अलग है। सुश्री मायावती ने तो पैट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार बढ़ौतरी के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों पर ही निशाना साधा। उन्होंने कहा कि पैट्रोल-डीजल की कीमतों को सरकार के नियंत्रण से बाहर रखने की शुरूआत तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-2 की सरकार में हुई थी।
2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद सरकार ने कांग्रेस की इस गलत आर्थिक नीति को ही आगे बढ़ाया फिर उन्होंने यह भी कहा कि बसपा को सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो वह अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेंगी। विपक्षी दलों के भारी-भरकम परिवार से ही ऐसे स्वर निकलना कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा करने वाले हैं। जहां तक पैट्रोल-डीजल की कीमतों पर भाजपा आैर कांग्रेस पर हमलावर होना कोई हैरान कर देने वाला नहीं है लेकिन कांग्रेस पर उनका प्रहार विपक्ष के भीतर राजनीतिक गुणा गणित की तरफ संकेत जरूर करता है। वह भी इस समय जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ महागठबंधन की तैयारी हो रही हो। मायावती राजनीति की माहिर खिलाड़ी हैं, उनमें मात खाकर भी ‘कमबैक’ करने की कला है। मायावती ने कांग्रेस को नया झटका दे दिया है। राजस्थान, मध्य प्रदेश आैर छत्तीसगढ़ में चुनाव सरगर्मियां तेज हैं। मायावती ने राजस्थान आैर मध्य प्रदेश में अपने दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया जबकि छत्तीसगढ़ में उन्होंने कांग्रेस के ही पूर्व नेता अजित जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ गठबंधन कर लिया। गठबंधन फार्मूले के चलते अजित जोगी की पार्टी 55 सीटों पर और बसपा 35 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
विपक्षी दलों के वोट बंटने से कांग्रेस को नुक्सान और भाजपा को फायदा ही होगा। सियासत में न तो कोई स्थायी मित्र होता है और न ही कोई दुश्मन। हर रिश्ते के केन्द्र में होती है सत्ता। अब यह स्पष्ट है कि बेंगलुरु में मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जो भनक विपक्षी एकता को मिली थी जब मायावती और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी हंस-हंसकर एक-दूसरे का हाथ थामकर मिली थी, दिग्गज विपक्षी नेता एक साथ एक मंच पर थे, वह तस्वीर अब धुंधली पड़ चुकी है। दरअसल मायावती राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपना प्रभाव निभाने के लिए कुछ ज्यादा सीटें मांग रही थी जबकि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस बसपा को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं है। दूसरी ओर मायावती उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों से पहले सम्भावित सीट शेयरिंग के फार्मूले पर कांग्रेस को दबाव में लाने की कोशिश कर रही है।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी कांग्रेस से गठबंधन को लेकर ज्यादा इच्छुक नहीं दिखाई देते। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन से कोई फायदा नहीं हुआ था जबकि गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में बुआ और बबुआ की जोड़ी ने एक होकर भाजपा को हरा दिया था। उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा, रालोद के बीच गठबंधन होता दिख रहा है, ऐसी स्थिति में कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें कौन देगा? महागठबंधन को लेकर सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या मायावती, ममता बनर्जी और राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं। कुल मिलाकर विपक्षी खेमे में नेतृत्व का मामला अनिर्णीत नजर आता है। राहुल गांधी विपक्ष के सबसे बड़े दल के अध्यक्ष के तौर पर स्वाभाविक रूप से एक दावेदार हैं। 2014 के चुनाव में बसपा को लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिल पाई थी लेकिन बसपा आैर मायावती की कहानी वोट प्रतिशत से कहीं बड़ी है। मायावती की ताकत है उनके आैर बसपा के नाम पर आंदोलन आैर उत्साहित होने वाला एक विशाल समुदाय है लेकिन अलग-अलग राज्यों में यह वोट बैंक बंटा हुआ है। दलितों पर अत्याचार, मॉब लिंचिंग की घटनाओं से जो वातावरण बना है, उससे दलितों, अल्पसंख्यकों के एकजुट होने की पूरी सम्भावना है।
दलितों को अगर अपना प्रधानमंत्री बनाने का कोई सपना है तो उस सपने को हकीकत में बदलने की सम्भावना मायावती के जरिये ही पूरी हो सकती है। दलित आक्रोश को चुनावी लाभांश में बदलने की सबसे बड़ी क्षमता बसपा में ही है। परेशानी मायावती के लिए भी है कि वह अकेले इस सपने को पूरा नहीं कर सकतीं। पूरे विपक्ष को दिशा में लाने की क्षमता कांग्रेस में है। कांग्रेस ही ऐसी चुनावी हलचल पैदा कर सकती है जिसके केन्द्र में मायावती हो। देश की राजनीति की दिशा को मायावती तय कर सकती हैं लेकिन यह कांग्रेस आैर उसके सहयोग के बिना सम्भव नहीं। अगर अति महत्वाकांक्षाओं के चलते मायावती महागठबंधन के प्रयासों को पलीता लगाती हैं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए 2019 के चुनाव में टक्कर देने वाला कोई नहीं होगा। मोदी की माया फैलती जाएगी क्योंकि विपक्षी एकजुटता के अभाव में कोई विकल्प सामने नहीं होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि 2019 का चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम मायावती नजर आता है लेकिन मोदी के भारी-भरकम व्यक्तित्व के आगे मायावती अकेली कुछ भी नहीं कर सकतीं। इस स्थिति में मायावती को नुक्सान भी हो सकता है। देखना है कि भारत की राजनीति क्या करवट लेती है।