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उलझन में फंसे ‘नीतीश बाबू’

बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू को भारतीय राजनीति का ऐसा ‘सिपहसालार’ कहा जा सकता है जो वक्त के अनुसार अपनी मातहत ‘फौज’ बदलता रहता है।

बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू को भारतीय राजनीति का ऐसा ‘सिपहसालार’ कहा जा सकता है जो वक्त के अनुसार अपनी मातहत ‘फौज’ बदलता रहता है। 2015 का विधानसभा चुनाव उन्होंने लालू जी के राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबन्धन बना कर लड़ा और मुख्यमन्त्री पद पाया मगर इस सरकार की सिपहसालारी डेढ़ साल बाद ही छोड़ कर रातों-रात इस्तीफा देकर 24 घंटे के भीतर ही भाजपा की सेना का सेनापतित्व संभाल कर मुख्यमन्त्री पद की पुनः शपथ ले ली और फिर 2020 का चुनाव भाजपा के साथ ही लड़ा और अपनी पार्टी जनता दल (यू) के इन चुनावों में तीसरे नम्बर (45 सीटें) पर आने के बावजूद भाजपा की (77 सीटें) सदाशयता से मुख्यमन्त्री बन गये। अब 2022 में उनका भाजपा से भी मन भर गया लगता है और वह फिर से अपनी फौज बदलने वाले हैं और लालू जी के पुत्र तेजस्वी यादव व कांग्रेस के साथ मिल कर पुनः गठबन्धन की फौज की सिपहसालारी संभालने की मुद्रा में जाने वाले हैं। इससे पहले भी 2012 में उन्होंने वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के एकल विरोध में भाजपा के साथ चला आ रहा अपनी पार्टी का लम्बा गठबन्धन तोड़ दिया था और कसम खायी थी कि यदि 2014 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी जद (यू) हारेगी तो वह मुख्यमन्त्री पद छोड़ देंगे। इन चुनावों जद (यू) चारों खाने चित्त रही और उन्होंने अपनी पार्टी की जीतन राम मांझी को मुख्यमन्त्री बना दिया।
श्री मांझी कुछ ज्यादा ही चतुर निकले और उन्होंने नीतीश बाबू के पुनः मुख्यमन्त्री बनने के रास्ते बन्द करने शुरू कर दिये और नीतीश बाबू ने उनके खिलाफ विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित करा कर 2015 का चुनाव लालू जी की पार्टी के साथ लड़ा और मुख्यमन्त्री की कुर्सी संभाली और लालू जी के दोनों पुत्रों को सरकार में मन्त्री बना डाला, मगर 2016 में उन्हें ‘बोधिसत्व’ प्राप्त हुआ और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लालू जी के इन मन्त्री पुत्रों के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को मुद्दा बना कर मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और 24 घंटे के भीतर ही भाजपा की सेना के साथ पुनः बिहार की सिपहसालारी संभाल ली और 2020 का चुनाव भाजपा के साथ मिल कर ही लड़ा और लालू जी की पार्टी कांग्रेस व वामपंथी दलों के महागठबन्धन का मुकाबला किया। इन चुनावों में राष्ट्रीय जनता दल (लालू प्रसाद यादव की पार्टी) की 243 सदस्यीय विधानसभा में सर्वाधिक 79 सीटें आयी, उसके बाद भाजपा की 77 सीटें रहीं और नीतीश बाबू की पार्टी की 45 सीटें रहीं जबकि कांग्रेस की 19 व वामपंथी मोर्चे की 16 सीटें आयीं। शेष पर निर्दलीय व अन्य जीते जिनमें ज्यादा संख्या में भाजपा के विद्रोही प्रत्याशी व निर्दलीयों की थी।
अतः भाजपा ने चुनावों से पहले ही जनता से नीतीश बाबू को मुख्यमन्त्री बनाये जाने के अपने वादे पर अमल किया और वह मुख्यमन्त्री बन गये। अब उन्हें लग रहा है कि उनकी पार्टी व उनके दल के खिलाफ षडयन्त्र हो रहा है और यहां भी महाराष्ट्र के फार्मूले पर काम हो सकता है। इसकी वजह उन्हीं की पार्टी के अध्यक्ष रहे पूर्व केन्द्रीय मन्त्री रामचन्द्र प्रताप सिंह बताये जा रहे हैं जो पिछले दिनों तक राज्यसभा सदस्य थे और मोदी सरकार में मन्त्री भी थे। रामचन्द्र बाबू मूलतः संगठन के आदमी माने जाते हैं हालांकि वह पूर्व आईएएस अधिकारी हैं। उन्होंने जद (यू) संगठन को बिहार में मजबूत करने का काम किया था। नीतीश बाबू उनसे बहुत खुश थे और बिहार में रामचन्द्र बाबू को उनका दांया हाथ तक कहा जाने लगा था। मगर उनके केन्द्रीय  मन्त्री बनते ही समीकरण बदलने लगे और नीतीश बाबू ने रामचन्द्र बाबू को राज्यसभा में दूसरा कार्यकाल नहीं दिया जिससे उनके हाथ से मन्त्री पद जाता रहा। अब नीतीश बाबू के आंख-नाक लल्लन प्रसाद सिंह बने हुए हैं और वह ही जद (यू) अध्यक्ष हैं। लल्लन बाबू ने रामचन्द्र सिंह पर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगा कर उन्हें पार्टी से निकाल दिया है।
लल्लन बाबू अब राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर नीतीश बाबू को सिपहसालारी दिलवाने गणित बैठा रहे हैं। अगर जद (यू) के अब 45 विधायक राजद व कांग्रेस और वाम मोर्चे से हाथ मिला लें तो सरकार बनने में कोई कठिनाई भी नहीं है। मगर नीतीश बाबू किस तरह ‘पलटू चाचा’ का तमगा लिये तेजस्वी यादव के साथ किस तरह मंच साझे करेंगे और लोगों को बतायेंगे कि तेजस्वी यादव पर उनके द्वारा लगाये गये आरोप मनघड़न्त थे। वैसे एक तथ्य यह भी गौर करने वाला है कि जब 2002 में लालू प्रसाद राज्यसभा के सदस्य बने थे तो उन्होंने वहां पहले से ही मौजूद लल्लन बाबू का नाम लेते हुए अपने पहले भाषण में कहा था कि ‘लल्लन बाबू बहुत मटकी मार लिये हो अब हम आ गये हैं देखते हैं कि कैसे चलता है’ और इसके कुछ दिनों बाद ही उन्होंने नीतीश बाबू के बारे में कहा था कि ‘कोई ऐसा सगा नहीं जिसे नीतीश ठगा नहीं।’ अब सवाल यह है कि क्या लालू जी के पुत्र पुनः नीतीश बाबू से ठगना पसन्द करेंगे? जहां तक बिहार में जद (यू) के जनाधार का सवाल है तो यह लगभग अपने रसातल में पहुंच चुका है। वैसे भी बिहार में जातिवादी राजनीति की हद हो गई है। राज्य की जनता इस दल- दल से अब निकला चाहती है क्योंकि इस राज्य के लोग राजनैतिक दृष्टि से बहुत चतुर और सुजान समझे जाते हैं मगर अपने ही राज्य में जातिवाद के चंगुल में सिमट जाते हैं। भाजपा के इस राज्य में शक्तिशाली रूप में उभरने के बाद जातिवाद के दम तोड़ने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि श्री नरेन्द्र मोदी के राजनैतिक शास्त्र में जातिवाद और परिवारवाद लोकतन्त्र की जड़ों को खोखला करने वाले कीटाणु हैं। बिहार में वर्तमान में ये दोनों ही मौजूद हैं। राजनीति के भविष्य वक्ता कह सकते हैं कि इस राज्य की राजनीति अब पुनः स्व. श्रीकृष्ण बाबू के दौर में जाने को तैयार हो सकती हैं बशर्ते भाजपा सत्ता का लोभ छोड़ कर डट कर खड़ी रहे। नीतीश बाबू की राजनीति का यह आखिरी दौर है जिसमें वह खुद उलझ कर रह गये लगते हैं।
              उलझते हो ‘तुम’-अगर ‘देखते’ तो ‘आइना’
              जो तुम से शहर में हों एक- दो तो क्यूं कर हो
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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