गफलत में उलझती कांग्रेस ! - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

गफलत में उलझती कांग्रेस !

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में वैचारिक स्तर पर जिस तरह की गफलत फैली हुई है उससे सबसे बड़ा नुकसान उस लोकतन्त्र का ही हो रहा है जिसे स्वतन्त्र भारत में स्थापित करने में इसी पार्टी की अहम भूमिका है।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में वैचारिक स्तर पर जिस तरह की गफलत फैली हुई है उससे सबसे बड़ा नुकसान उस लोकतन्त्र का ही हो रहा है जिसे स्वतन्त्र भारत में स्थापित करने में इसी पार्टी की अहम भूमिका है।  स्वतन्त्रता आन्दोलन की जिस डोर से महात्मा गांधी ने कांग्रेस पार्टी के नेताओं को बांधा था उसका साधारण से लेकर शीर्षस्थ नेता उन बुनियादी सिद्धान्तों का पालन करता था जिससे यह देश 1947 में गणतन्त्र बनने की कसम के साथ आगे बढ़ना शुरू हुआ और जब 26 जनवरी, 1950 को भारत गणतन्त्र बन गया तो इसके सभी नागरिकों का दीन-ईमान केवल संविधान हो गया। यह संविधान ऐसे मनीषी ने लिखा था जिसने भारत में फैली गरीबी और ऊंच-नीच की रवायतों के चलते ही समता मूलक समाज बनाने का प्रण लिया था।
यह समता मूलक समाज धर्म या मजहब की चौखटों से बाहर  केवल मानवीयता और इंसानियत को आधार मान कर बनाया जाना था।  अतः यह बहुत महत्वपूर्ण है कि संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर ने प्रत्येक भारतीय नागरिक को निजी तौर पर अपना मनचाहा धर्म मानने की स्वतन्त्रता दी। अतः स्पष्ट होना चाहिए कि भारत का संविधान धर्म को नितान्त निजी मामला मानता है जिसकी राज-काज या सामाजिक बुनावट में कोई भूमिका नहीं है। सामाजिक बुनावट का आधार केवल नागरिकता ही होगी जिसे धर्म के निरपेक्ष तय करने के नियम भी संविधान में ही बनाये गये, परन्तु  तुरंत राजनीतिक लाभ के लिए भारत में धर्म का प्रयोग भी शुरू से ही जमकर होता रहा है। 
यह स्थिति कभी भी लोकतन्त्र के वैज्ञानिक स्तर के विरुद्ध रही है और कांग्रेस पार्टी पं. नेहरू के जमाने से ही इसी मत की रही है। हालांकि उस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप भी बहुत पहले से ही लगते रहे हैं, परन्तु कांग्रेस ने नेहरूकाल तक किसी भी धर्म के प्रतीकों के इस्तेमाल से पूरी तरह परहेज किया।वास्तव में यह स्वतन्त्रता आंदोलन का प्रभाव था जिसे महात्मा गांधी ने अपने उदात्त आचरण से पूरी तरह आवेशित किया हुआ था और संविधान लिखे जाने से पहले ही उन्होंने व्यवहार से स्पष्ट कर दिया था कि आजाद भारत में धर्म नागरिकों का निजी मामला ही होगा। 
भारत की धार्मिक विविधता को देखते हुए ही गांधी ने इसे अपने आन्दोलन का प्रमुख आधार बनाया और अपने पूरे जीवन काल में किसी मन्दिर आदि के दर्शन तक नहीं किये जब कि व्यक्तिगत रूप से वह हिन्दू थे, किन्तु इसके विपरीत हिन्दू हितों का स्वयं को संरक्षक समझने वाले सावरकर निजी तौर पर नास्तिक थे। यह गजब का विरोधाभास था जो बताता था कि भारत की विविधता को किस तरह जोड़ा और बिखराया जा सकता है, परन्तु वर्तमान दौर में कांग्रेस के नवोदित नेता जिस तरह चुनावी अखाड़े में परास्त रहने की आशंका से घबरा कर मजहब में घुस कर राजनीतिक विमर्श खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं उससे ‘विविधता में एकता’ के सिद्धान्त के ही परखचे उड़ रहे हैं। यह मति भ्रम इस प्रकार फैलता जा रहा है कि आम नागरिक  भारतीय होने से पहले अपनी पहचान हिन्दू या मुसलमान में कर रहा है जिससे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति बुरी तरह प्रभावित हो रही है।
धर्म से हम इतिहास का बोध नहीं कर सकते हैं बल्कि इतिहास से धर्म का बोध होता है। भारत की पांच हजार साल से भी ज्यादा संस्कृति में श्रमण, जैन, बौद्ध, वैदिक  उपासना पद्धति का पूरा सिलसिला है जिसके पेंच अन्ततः इतिहास ही जाकर खोलता है। अतः आज के दौर के लोकतन्त्र में जब हम नागरिकों को उनकी धार्मिक श्रद्धा के अनुसार तोलते हैं तो कहीं न कहीं समतामूलक समाज के संवैधानिक दायित्व से विलग हो जाते हैं, परन्तु मानवीयता कहती है कि किसी एक विशेष सम्प्रदाय के लोगों के साथ अन्याय किया जाता है तो उसका निवारण भी सम्यक दृष्टि से इस प्रकार होना चाहिए कि वह समतामूलक समाज का अंग बन सके। इस नजरिये से संशोधित नागरिकता कानून को हम सही ठहरा सकते हैं परन्तु इसे किसी दूसरे सम्प्रदाय के सापेक्ष रख कर नहीं तोल सकते। जरूरत इस बात की थी कि कांग्रेस पार्टी यह मतिभ्रम दूर करती परन्तु वह भी साम्प्रदायिक लाभ के मोह को नहीं छोड़ सकी और दो नावों में सवार हो बैठी। न हिन्दुओं को बताने की जरूरत है कि उनके धर्म की क्या विशेषता और सन्देश है और न मुसलमानों को ताईद की जरूरत है। दोनों ही धर्म दीन-दुखियों की सेवा को पहला कर्त्तव्य मानते हैं।
भारत की विविधता को देखते हुए राजनीति में धर्म की केवल इतनी ही भूमिका है जिससे पूरे समाज में ऊंच-नीच और जातिवाद की बीमारी का खात्मा हो सके और संविधान के अनुसार समाज की रचना हो सके, किन्तु कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर होकर जिस तरह कभी-कभी बौखलाहट में प्रतिक्रिया व्यक्त करती है उससे राजनीति में समाया हुआ खोखलापन ही उजागर होता है। भारत की तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के ऊपर रक्षा प्रमुख (चीफ आफ डिफेंस स्टाफ) पद सृजित होने पर जिस तरह इसके दो नेताओं सर्वश्री अधीर रंजन चौधरी और मनीष तिवारी ने टिप्पणी की उससे अदूरदर्शिता का ही आभास होता है। 
बेशक रक्षा प्रमुख बनाये गये जनरल बिपिन रावत पूर्व में अपने बयानों के कारण विवादास्पद रहे हैं और यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि ऐसा करते हुए उन्हें अपनी मर्यादा का भी ख्याल नहीं रहा है क्योंकि उनकी  राजनीतिक मुलम्मे में बांध कर असमय टिप्पणी करने के लिए आलोचना हुई है परन्तु प्रमुख के रूप में उनकी नियुक्ति को लेकर की गई आलोचना तार्किक नहीं कही जा सकती क्योंकि मौजूदा सरकार ने यह कार्य राजनीतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए किया है। इससे कांग्रेस के दोनों नेताओं को राजनीति में अधकचरा माना जा सकता है। कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिन पर राजनीति नहीं की जा सकती। राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसा ही विषय है। यदि ऐसा  न होता तो पूर्व में जनरल रावत के ही बयानों को स्वयं कांग्रेस के नेताओं ने ही गैरजरूरी क्यों बताया होता। दरअसल भारत में जनरल जुबान से नहीं बल्कि सीमाओं पर बन्दूक से बोलते हैं। फौजी की बन्दूक से ही राष्ट्र की सुरक्षा में आवाज निकलती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

seven + twenty =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।