कांग्रेस पार्टी का वर्तमान संकट केवल राजनैतिक संकट नहीं है बल्कि भारत के लोकतन्त्र का भी ऐसा संकट है जिसके गहराने से समूची व्यवस्था के लोकमूलक ढांचे को गहरा आघात लग सकता है। अतः इस संकट को जल्दी से जल्दी इस प्रकार दूर किया जाना चाहिए जिससे जनाभिव्यक्ति की शक्ति की स्थापना सर्वत्र निरुपित हो। लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त यह होता है कि चुनावी हार-जीत में पार्टियों की जय-पराजय जनता और उनके बीच स्थापित हुए संवाद की सहजता पर निर्भर करती है।
अतः जब भारत के 1952 में हुए प्रथम आम चुनावों का लगातार छह महीने प्रचार करते हुए पं. जवाहर लाल नेहरू ने यह समझाया था कि चुनाव आम जनता के लिए ‘राजनीतिक पाठशाला’ होते हैं तो उनका आशय यही था कि राजनैतिक दल जनता से संवाद स्थापित करते हुए अपनी-अपनी विचारधारा से उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करते हैं और इसी क्रम में समर्पित कार्यकर्ताओं का भी निर्माण करते हैं जो आगे चलकर पार्टी के लिए सम्पत्ति बन जाते हैं मगर 1952 से लेकर 2019 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और पीढ़ीगत परिवर्तन हो चुका है जिससे राजनीति भी अछूती नहीं रह सकती थी। 2019 के चुनावों में विचारधारा के स्तर पर कहीं कोई गंभीरता नजर इसलिए नहीं आयी क्योंकि राजनैतिक दलों ने चुनावी विजय के पूरे फार्मूले को ही बदल डाला है।
यह फार्मूला किस तरह बदला गया है यह विस्तार से लिखने वाला अलग विषय है परन्तु फिलहाल यही प्रासंगिक है कि कांग्रेस पार्टी को अपना संकट समाप्त करके उस जनता का धन्यवाद देना चाहिए जिसने इसके प्रत्याशियों को अपना वोट दिया है। लगभग 58 करोड़ से अधिक मत डालने वाले मतदाताओं में इनकी संख्या 12 करोड़ से अधिक है। इन मतदाताओं की जनाभिव्यक्ति संसद में करना कांग्रेस का कर्त्तव्य बनता है। व्यक्तिगत बहुमत चुनाव प्रणाली के तहत (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट) कांग्रेस 542 (एक स्थान वेलूर में चुनाव स्थगित हो गया) में से केवल 52 स्थानों पर ही विजय प्राप्त करने वाली कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी का ‘निराश’ होना स्वाभाविक है किन्तु ‘हताश’ होना राजनीतिक धर्म नहीं है।
उनके हताश होने का अर्थ होगा राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की भूमिका का विलुप्त होना जबकि वह स्वयं कहते रहे हैं कि कांग्रेस एक ‘विचारधारा’ है, केवल मात्र संगठन नहीं है। राजनीति के बदलते तेवरों के अनुरूप विचारों का ही वह विमर्श खड़ा करना जरूरी होता है जिसमें आम जनता को अपना अक्स दिखाई दे। इस मोर्चे पर श्री राहुल गांधी पूरी तरह असफल रहे और ‘नामदार बरक्स कामदार’ का भी तोड़ नहीं ढूंढ पाये। राजनीति में नामदार होना कोई घाटे का सौदा नहीं होता क्योंकि इसके साथ राजनैतिक विरासत की वह सम्पत्ति होती है जिसे स्वयं अर्जित भी नहीं करना पड़ता परन्तु ताजा इतिहास इस बात की गवाही देता है कि किस प्रकार कांग्रेस पार्टी मर-मर कर जी उठी है जिसमें स्पष्ट रूप से गांधी-नेहरू परिवार के लोगों की भूमिका ही प्रमुख रही है।
1977 में जब इमरजेंसी के बाद चुनावों में स्व. इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी दक्षिण भारत के अलावा सभी राज्यों में चारों खाने चित्त हो गई थी तो कांग्रेस कार्यसमिति ने ही इंदिरा जी को पार्टी की सदस्यता से निरस्त कर दिया था। इस कार्यसमिति में स्व. देवकान्त बरुआ जैसे वे लोग भी थे जिन्होंने इमरजेंसी काल में ‘इन्दिरा इज इंडिया’ का नारा दिया था। सरदार स्वर्ण सिंह से लेकर ब्रह्मानंद रेड्डी व डा. कर्ण सिंह तक ने इन्दिरा जी को कांग्रेस के लिए एक बोझ माना था मगर देखते-देखते ही दो साल में इन्दिरा गांधी ने पूरी कांग्रेस को पुनः बदल डाला और ऐसा समय भी आया जब 1977 में उनका साथ छोड़ने वाले स्व. यशवन्तराव चव्हाण उनके दरवाजे पर दरख्वास्त लिये खड़े रहते थे। उस दौरान उनके साथ एकमात्र कद्दावर नेता श्री प्रणव मुखर्जी थे जिन्होंने कहा था कि सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा केवल हवा में उछाला गया ऐसा गुब्बारा है जो स्वयं ही फट जायेगा, परन्तु आज स्थिति दूसरी है।
पूरी कांग्रेस कार्यसमिति राहुल गांधी से कह रही है कि उनके हताश होने का कोई कारण नहीं है। इसकी वजह साफ है कि हर कांग्रेसी जानता है कि गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वह अमूल्य थाती है जिससे रुखसती कांग्रेस की रुखसती होगी। यह आजाद भारत का ऐसा सत्य है जिसे सभी विरोधी दलों के नेता भी भीतर से स्वीकार करते हैं। श्री राहुल गांधी जो मूलभूत गलती कर रहे हैं वह किसी परिपक्व ‘राजनीतिक गुरु’ के न होने की वजह से ही कर रहे हैं।
लोकसभा चुनाव शुरू होने से पहले ही उन्होंने कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों पर आश्रित पार्टी के रूप में दिखा दिया और हताश सिपाहियों के चंगुल में डाल दिया जबकि वह समय कांग्रेस द्वारा अपने बूते पर सशक्त विकल्प का विमर्श खड़ा करने का था मगर चन्द्रबाबू नायडू जैसे घाघ राजनीतिज्ञ ने समय से पहले ही कांग्रेस को अपने चंगुल मंे लेकर राहुल गांधी की विकल्प क्षमता को सीमित कर डाला। सवाल किसी राज्य की सरकार बनाने का नहीं था, चुनावों में गठबन्धन और सीट सहयोग के मायने अलग-अलग होते हैं। इन्दिरा गांधी ने अपने बूते पर समूचे विपक्ष को तब लिया था जब मध्यप्रदेश में राजनैतिक संन्यास लिये बैठे अपने समय के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले स्व. पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें ‘गुर’ सिखाये थे।