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कांग्रेस: कहां से चले, पहुंचे कहा

यह कैसा संयोग है कि देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली और महात्मा गांधी के सिद्धांतों को विश्वभर में लोकप्रिय बनाने वाली पार्टी कांग्रेस आज एक सलाहकार की शरण में जाने की मोहताज हो रही है।

यह कैसा संयोग है कि देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली और महात्मा गांधी के सिद्धांतों को विश्वभर में लोकप्रिय बनाने वाली पार्टी कांग्रेस आज एक सलाहकार की शरण में जाने की मोहताज हो रही है। वह सलाहकार जिसे राजनीति का जानकार कहा जा रहा है मूलतः एक व्यापारी है और उसका नाम प्रशांत किशोर है। वह विभिन्न राजनीतिक दलों को अपनी सलाह देता है और उन्हें चुनावी रणनीति बनाने के लिए तैयार करता है। यह कैसा जबरदस्त अंतर्विरोध है जो भारतीय राजनीति की कई परते भी खोलता है और वर्तमान पीढ़ी के सामने ऐसे सवाल प्रस्तुत करता है कि क्या राजनीति अब जनता के बीच से हटकर विशेषज्ञों की शरण में चली गई है । 
एक जमाना वह भी था जब विकासशील लोकतांत्रिक देशों के नेता भारत की राजनीति और इसमें आम जनता की हिस्सेदारी का अध्ययन करने लोग आया करते थे। वास्तव में यह विडंबना ही है कि आज कांग्रेस की ऐसी हालत हो गई है कि वह भारत के चुनावों में कोई ऐसा राजनीतिक विमर्श खड़ा नहीं कर पा रही है जिसके प्रति आम जनता आकर्षित हो और इसके प्रत्याशियों को बहुमत में वोट देकर जिताए। यदि गौर से देखा जाए जो पिछली शताब्दी का भारत का इतिहास वही रहा है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है और यह इतिहास बहुत गौरवपूर्ण और जनता के सशक्तिकरण का है। पिछली सदी में लोकतांत्रिक परंपराओं को न केवल मजबूती दी गई बल्कि ऐसा संवैधानिक ढांचा खड़ा किया गया जिसके अंतर्गत भारत का आम आदमी या सामान्य नागरिक अपनी शक्ति का प्रतिबिंब विभिन्न सत्ता के केंद्रों में देखें। चाहे वह पंचायती राज प्रणाली हो या केंद्र द्वारा स्थापित विभिन्न संस्थान सभी की संरचना में कांग्रेस पार्टी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है इसकी वजह यह है की अंग्रेजों की गुलामी के बाद आजाद हुआ भारत एक तरफ जहां विभाजन की विकराल विभीषिका से निपट रहा था तो दूसरी तरफ अपने आर्थिक और सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाने की उसकी अहम जिम्मेदारी थी। निश्चित रूप से यह काम कांग्रेस के नेताओं ने किया है और इसका श्रेय भी उनके खाते में ही डाला जाएगा। कांग्रेस को सबसे ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि आज का भारत 1947 का भारत है 1967 का और ना 1980 का। भारत की 65% जनसंख्या युवाओं की है और इस बदलते टेक्नोलॉजी के दौर में उनकी मान्यताएं और अपेक्षाएं पूरी तरह बदल चुकी हैं यही वह मोड़ है जिसमें कांग्रेस को बहुत संभल कर चलना होगा और अपनी स्थिति को इस तरह बनाना होगा की आम जनता उसमें अपनी समस्याओं का हल प्राप्त करे। कांग्रेस पार्टी स्वयं में एक ऐसा मंच रही है जिसमें सभी विचारधाराओं के लोग काम करते रहे हैं और अपने सिद्धांतों के अनुरूप कांग्रेस के व्रत सिद्धांतों को भी सर्वोपरि मानते रहे हैं। लेकिन यह पार्टी के नेतृत्व को देखना होगा कि वह किस प्रकार के ऊर्जावान लोगों को आगे बढ़ाए और जमीन से उठे हुए लोगों को पार्टी के काम में लगाए। कांग्रेस को किसी दूसरे दल से प्रभावित होने या उसकी रणनीति पर चलने की आवश्यकता नहीं है केवल आम जनता के दिल में यह भाव जगाना है की पार्टी समय की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है और उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की उसमें क्षमता है। पार्टी में आज भी नेताओं की कमी नहीं है भारत के एक से एक बड़े अर्थ विशेषज्ञ विदेश नीति विशेषज्ञ विकास विशेषज्ञ नेता इस पार्टी में भरे पड़े हैं सवाल केवल उनके समन्वित उपयोग का है। यह सवाल बहुत गंभीर है की पार्टी जीती हुई बाजी क्यों हार जाती है। पंजाब और उत्तराखंड ऐसे राज्य थे जिन्हें कांग्रेस आसानी से जीत सकती थी परंतु आंतरिक विरोधाभासों के चलते और समय पर सही निर्णय न किए जाने की वजह से इन दोनों राज्यों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। इस वर्ष में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं और इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस प्रमुख विपक्षी पार्टी है। अपने इस स्थान पर जमे रहने के लिए अगर उसे किसी तीसरी पार्टी से मुकाबला करना पड़ता है तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि पार्टी के भीतर कहीं ऐसा व्यवधान जरूर है जो नेतृत्व और जनता के बीच संबंध गहरे नहीं होने दे रहा वरना कोई वजह नहीं है की पार्टी इन दोनों राज्यों में अपनी शाक ना बचा सके।  
पिछले 74 वर्षों में कांग्रेस पार्टी से ना जाने कितने नेता बाहर निकले और उन्होंने अपनी पार्टियां बनाई और आज भी वर्तमान में जो विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग नाम की कांग्रेस हैं वे सभी इसी मूल कांग्रेस से निकली हैं अतः किसी भी राजनीतिक पंडित को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कांग्रेस का अस्तित्व आज भी पूरे देश में जिला स्तर तक है और इसकी पहचान नेहरू और गांधी के नाम से है। इसलिए जो लोग यह कह रहे हैं कि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार की जगह किसी अन्य को दिया जाना चाहिए वे पार्टी के हित चिंतक नहीं कहे जा सकते क्योंकि इतिहास स्वयं को कभी बदल नहीं सकता और भारत का इतिहास इस बात का गवाह है की नेहरू और गांधी का नेतृत्व इस देश को अपने समय में बहुत ऊंचाइयों पर ले गया था।  1991 में कांग्रेस ने ही नवा आर्थिक नीतियों की शुरुआत की थी और यह हकीकत है की अर्थव्यवस्था ही अंतत: राजनीतिक व्यवस्था को निर्देशित करती है अतः बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के जो प्रभाव राजनीति पर पड़ रहे हैं उनका संज्ञान लेते हुए कांग्रेस को ऐसा विमर्श तैयार करना होगा जिससे देश की 25% से ऊपर गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को यह पता चल सके की आज की कांग्रेस वही पुरानी कांग्रेस है जो उनके सरोकारों को वरीयता देती थी। परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य पार्टियों की तरह कांग्रेस भी चुनावी खैरात बांटने की तरफ चल पड़े बल्कि अपने पुराने सिद्धांतों पर डरते हुए सत्ता में और इसके लाभों में स्थाई रूप से ऐसे गरीब लोगों को अधिकार संपन्न बनाए।  यह सोचना होगा कांग्रेस जिसके अवशेष देश के हर जिले में पहले पड़े हैं उन्हें किस प्रकार जोड़कर विशाल मुहूर्त तैयार किया जाए और आम जनता को संदेश दिया जाए कि लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब विपक्ष भी मजबूत रहता है क्योंकि संसदीय प्रणाली में बहुमत की सरकार तो होती है परंतु विपक्ष में बैठे लोगों की आवाज को भी उसमें समाहित करना पड़ता है क्योंकि विपक्षी प्रतिनिधियों को भी जनता ही चुनकर भेजती है अतः विधि जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए कांग्रेस को तिनके तिनके को जोड़कर पुन: अपना पुराना महल तामीर करना होगा और जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा चाहे रास्ते में कितनी भी दिक्कतें क्यों ना आए मगर यह पार्टी एक व्यापारी कभी नहीं कही जा सकती इसको बनाने में कई पीढ़ियों ने अपना खून पसीना एक किया है और शहादतें दी हैं इसलिए रास्ता कितना भी कठिन हो उसे पार करना वर्तमान नेतृत्व का कर्तव्य है।
इन्हीं पत्थरों पर चल के गर आ सको तो आओ, 
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशा नहीं है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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