संसद ने संविधान संशोधन के जरिये पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दे दिया है। इसका मोटा अर्थ हम यह निकाल सकते हैं कि यह आयोग अब जो सिफारिशें करेगा वे मान्य होंगी परन्तु इसके साथ ही यह सवाल जुड़ा हुआ है कि देश में पिछड़े समुदाय के लोगों की जनसंख्या कितनी है, इसका भी पता लगाया जाना चाहिए। इस जनसंख्या की सही जानकारी न मिलने से इस वर्ग के लोगों को वे सुविधाएं सम्पूर्ण और सम्यक रूप से नहीं पहुंचाई जा सकती हैं जिसकी अपेक्षा इस वर्ग के लोगों को है। अतः बहुत जरूरी है कि 2011 में मनमोहन सरकार ने जो जातिगत जनगणना कराई थी उसका विवरण सार्वजनिक किया जाये। जातिगत जनगणना के मुद्दे पर मनमोहन सरकार के दौरान संसद के दोनों सदनों में जिस तरह हंगामा हुआ था और तत्कालीन यूपीए गठबन्धन सरकार के विभिन्न घटक दलों तक ने अपने शब्दों की तलवारें खींच ली थीं उसका जिक्र किया जाना बहुत जरूरी है। उस समय लोकसभा में जनता दल (यू) के दिग्गज नेता श्री शरद यादव मौजूद थे और उन्होंने सरकार को खुली चुनौती दे दी थी कि भारत में जिस तरह पिछड़े वर्ग के लोगों को सदियों से कथित सवर्ण जातियों ने अपना सेवादार बनाकर रखा है उसे पलटने का समय आ चुका है और यह वर्ग सत्ता में अपनी जनसंख्या के अनुसार सीधी भागीदारी मांगता है।
श्री यादव ने तब यह भी कहा था कि जिस तरह भारत में जातिगत आधार पर भेदभाव किया जाता है उसने इस देश को ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में बांट डाला है। ऊंचे–ऊंचे पदों पर बैठे कथित कुलीन समझे जाने वाले लोग ‘इंडिया’ के बूते पर ‘भारत’ को हांकना चाहते हैं। सामाजिक न्याय इस देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी मुख्य आधार रहा है। इसके लिए जरूरी था कि हम जातिविहीन समाज का निर्माण करते और भारत को इस दलदल से बाहर निकाल कर गांव और शहर की विकास नीतियों को एक-दूसरे का पूरक बनाते और शिक्षा से लेकर रोजगार के अवसरों की बराबरी पैदा करते किन्तु हमने यथास्थिति को बदलने के लिए वे कदम नहीं उठाये जिससे गांव के पिछड़े वर्गों के लोगों की आय को बढ़ाकर उन्हें संभ्रान्त समझे जाने वाले लोगों के समकक्ष लाया जा सके। यही वजह रही कि इस देश में पिछड़े वर्ग के लोगों का विकास लगातार पिछड़ता रहा।
श्री यादव ने कहा था कि इसका उपाय एक ही है कि राजनीतिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग की भागीदारी उसकी जनसंख्या के अनुरूप हो जिससे वह सत्ता के उन नियामकों को बदल सकें जिन्होंने इंडिया और भारत का निर्माण किया। बेशक श्री यादव के तर्कों में इतना जबर्दस्त दम था कि मनमोहन सरकार में शामिल श्री लालू प्रसाद यादव को भी उनका समर्थन करना पड़ा था और संसद का चलना मुश्किल हो गया था तब जाकर सदन के नेता के रूप में श्री प्रणव मुखर्जी को आश्वासन देना पड़ा था कि सरकार जातिगत जनगणना कराएगी और यह काम 2011 में हुआ। इस जनगणना में भारत की जनसंख्या 121 करोड़ के लगभग पाई गई थी। सरकार ने स्त्री-पुरुषों व अन्य आंकड़े तो जारी कर दिये मगर जातिगत आधार पर पिछड़े वर्ग के आंकड़े जारी नहीं किए लेकिन मंडल आयोग ने सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग के लोगों को 27 प्रतिशत आरक्षण सरकारी नौकरियों में दिया।
2005 में जब मनमोहन सरकार के मानव संसाधन मन्त्री स्व. अर्जुन सिंह थे तो उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण देने का आदेश जारी किया जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई थी किन्तु असली सवाल यह है कि पिछड़ा आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने से इसका असर समाज पर क्या होगा? दरअसल पिछड़ी जातियों का निर्धारण हर प्रदेश की सरकार अपने यहां बरकरार सामाजिक परिस्थितियों को देखकर करती है। यह भी नया चलन शुरू हुआ है कि हर जाति के लोग खुद को पिछड़े वर्ग में रखना चाहते हैं मगर हकीकत यह है कि बिहार में अगर बनिया जाति के लोग पिछड़े हैं तो अन्य राज्यों में सवर्ण हैं। दक्षिण भारत के राज्य में धोबी समुदाय के लोग यदि पिछड़े वर्ग में आते हैं तो उत्तर भारत में अनुसूचित जाति वर्ग में आते हैं। इस विरोधाभास को मिटाने में आयोग क्या भूमिका अदा करेगा, यह देखने वाली बात होगी। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम व सिख समुदाय में भी पिछड़े वर्ग की कमी नहीं है। कांग्रेस के सांसद बी.के. हरिप्रसाद ने राज्यसभा में यह मुद्दा पूरी संजीदगी से उठाया और बताया कि किस तरह मुसलमानों में बुनकर (अंसारी), शक्के दर्जी, नाई, बढ़ई, लुहार, आतिशगर आदि पिछड़े वर्ग का ही हिस्सा हैं और सिखों में भी एेसा ही मिलाजुला काम करने वाले लोग है।
इन्हें धर्म के आधार पर पिछड़े वर्ग से अलग नहीं किया जा सकता। अतः आयोग के सामने समस्याएं बहुत हैं जिनका निदान निकाला जाना चाहिए और इस वर्ग के लोगों के साथ न्याय किया जाना चाहिए। इसके िलए जरूरी होगा वर्तमान में पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा को हटाया जाये। यह काम तभी हो सकता है जब सरकार जातिगत आंकड़े जारी करके बताये कि पिछड़े वर्ग की वास्तविक जनसंख्या कितनी है। दूसरी तरफ सरकार ने अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम को भी यथावत पुराने स्वरूप में रखने का फैसला किया है। यह स्वागत योग्य कदम है क्योंकि दलित वर्ग के लोगों की शिकायतों पर तुरन्त कार्रवाई न करने से उनके प्रति अन्याय को ही सुविधाजनक रास्ता मिलता। समाज में चेतना पैदा करने और दलितों को पूरा न्याय दिलाने के लिए ही यह कानून इस प्रकार बनाया गया था जिससे दलित वर्ग के लोगों के सम्मान को एक बाइज्जत नागरिक की श्रेणी में रखकर देखा जा सके। हजारों साल से चली आ रही दलितों को पशुवत समझने की मानसिकता में बदलाव लाना कोई आसान काम नहीं है। आज भी महाराष्ट्र व गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक में दलित वर्ग के लोगों को इसलिए प्रताडि़त किया जाता है कि उनके वर्ग का कोई युवक घोड़ी पर चढ़कर अपनी बारात निकालना चाहता है अथवा घुड़सवारी का शौक रखता है या कथित ऊंची जाति वाले लोगों के कुएं से पानी पीना चाहता है। इस सामाजिक मानसिकता को बदलने के लिए कुछ तो कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे और चार वर्णों की व्याख्या करने वाली मनुस्मृति को कूड़ेदान में फैंकना ही होगा।