मानवता के लिए यह अनूठी जंग हो रही है जिसमें लोग अपने घरों में बन्द रह कर ‘कोरोना वायरस’ को चुनौती दे रहे हैं। यह मनुष्य की जीवन के प्रति लालसा नहीं बल्कि जिन्दगी के लिए ललक है जो उसके अस्तित्व बोध का उद्घोष करती है। यह ‘डर’ नहीं है और न ही ‘भीरूता’ है बल्कि ‘अकाल काल’ को जिन्दगी के सामने ‘नतमस्तक’ करने की वैज्ञानिक क्रिया है। ‘लाॅकडाउन’ के इस दार्शनिक स्वरूप को समझने में किसी भी नागरिक को किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अतः विभिन्न नगरों से जो लोग पलायन करके अपने मूल राज्यों के निवास स्थलों के लिए पलायन कर रहे हैं उनमें जीवन की ज्योति को जगमगाना इस लोकतान्त्रिक देश की सरकारों का काम ही है।
भारत एक राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) केवल संविधान में लिखा हुआ शब्द नहीं है बल्कि व्यावहारिकता में उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम के छोर तक के राज्यों के नागरिकों की एक-दूसरे पर निर्भरता और सहयोग को जरूरी बनाता है। तमिलनाडु में रोजगार की तलाश में गया बिहार राज्य का कोई नागरिक भी अपने देश की हवा में जीता है और मणिपुर या असम से दिल्ली आकर अपनी प्रतिभा को निखारने वाला कोई भी व्यक्ति अपने राष्ट्र के विकास में योगदान करने को लालायित रहता है।
अदृश्य कोरोना वायरस में क्या इतनी शक्ति हो सकती है कि वह एक राज्य से किसी दूसरे राज्य में गये नागरिक को ‘लावारिस’ बनने को मजबूर कर दे? यदि ऐसा होता है तो हम इस देश में भारतीय संविधान की उस जीवन रेखा को कैसे पहचान सकेंगे जो ‘एक देश-एक लोग’ की अलख जगाती है। इसका मतलब यही है कि भारतीय संघ के किसी भी राज्य के किसी भी नागरिक के किसी भी राज्य में एक समान अधिकार होंगे और एक समान हैसियत होगी परन्तु सितम यह हो रहा है कि कोरोना से लड़ाई में यह आपसी निर्भरता व सहयोग भाव टूट रहा है और रोजी-रोटी व रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों में बसे लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं? निःसन्देह उन्हें सुरक्षा देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है।
अतः बिना किसी भूमिका के सर्वप्रथम अखिल भारतीय स्तर पर देश की सभी राज्य सरकारों का एक ‘समन्वित कोरोना कार्यदल’ गठित होना चाहिए जो अपने-अपने राज्यों के देशज नागरिकों को उनके कार्य स्थलों पर ही रहने का खर्चा वहन करे परन्तु लाॅकडाउन समयावधि में ऐसी सारी व्यवस्था प्रवासी राज्य सरकारें ही करें। राज्यों के बीच की इस आर्थिक देनदारी को बाद में निपटा लिया जाये। भारत की राज्य सरकारों के बीच का यह ऐसा प्रबन्ध होगा जिसमें किसी प्रकार की दिक्कत पैदा होने की संभावना ही नहीं है। यह सरकार का सरकार को दिया गया पवित्र वचन पत्र होगा जिसकी कानूनी मान्यता किसी भी सन्देह से परे होगी। ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि लाॅकडाउन करके हम जो भी हासिल करना चाहते हैं वह एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने के साथ ही मटियामेट हो सकता है। बेहतर हो कि किसी विशेष राज्य पर पड़ने वाले इस भारी खर्चे की सार्वभौमिक गारंटी केन्द्र सरकार दे। जब हमारी केन्द्र सरकार कार्पोरेट क्षेत्र द्वारा लिये जाने वाले विदेशी ऋणों की सार्वभौमिक गारंटी दे सकती है तो अपने ही राज्यों के लिए मुसीबत की घड़ी में यह काम करना कौन सा मुश्किल है? इस सन्दर्भ में बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने अन्य राज्यों को रास्ता दिखाने का काम किया है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पूरे देश में सर्वाधिक मजदूर व कामगार बिहार से ही दूसरे राज्यों में जाते हैं परन्तु वे समन्वित रूप से उस विशेष राज्य के विकास के साथ ही भारत के विकास में भी योगदान देते हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और प. बंगाल का नम्बर आता है। इन राज्यों के कामगार केरल से लेकर गुजरात व जम्मू-कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक में फैले हुए हैं।
लाॅकडाउन ने उनमें असुरक्षा पैदा कर दी है क्योंकि औद्योगिक व व्यापारिक गतिविधियां बन्द हो चुकी हैं। राज्य सरकारें उन्हें समुचित सुविधाएं देने में नाकारा साबित हो रही हैं। अतः वे अपने गांवों को पलायन कर रहे हैं और इस कदर परेशान हैं कि पैदल ही सैकड़ों मील का सफर करने का इरादा कर चुके हैं। मानवता के लिए हो रही लड़ाई में सबसे पहले इन लोगों को जीवन जीने की ललक में शामिल करके रोकना जरूरी है जिससे कोरोना के खिलाफ युद्ध जीता जा सके। यह युद्ध केवल समाज में भौतिक अलगाव से ही जीता जा सकता है, परन्तु ये असुरक्षित लोग हजारों की संख्या में एक साथ मिल कर जिस तरह बस अड्डों व अन्य स्थानों पर इकट्ठा होकर यातायात वाहनों की बाट जोह रहे हैं उससे स्थिति भारत के गांवों में भयावह हो सकती है। जिन राज्य सरकारों ने दूसरे राज्य के नागरिकों के लिए परिवहन व्यवस्था सुलभ कराने का वचन दिया है, उन्होंने लाॅकडाउन को स्वयं ही तोड़ने का निश्चय करके यह फैसला किया होगा! अतः जरूरी है कि नीतीश बाबू के फार्मूले पर गंभीरता से विचार किया जाये और उसे लागू करने की पहल अन्य राज्यों के मुख्यमन्त्री भी करें और केन्द्र सरकार भी इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाये। नीतीश बाबू ने दूसरे राज्यों से अपील की है कि वे उनके प्रदेश के नागरिकों को घर वापस न भेज कर उनके कार्य स्थलों पर ही सभी सुविधाएं उपलब्ध कराएं और उस पर जो भी खर्चा आयेगा उसे उनकी सरकार सम्बद्ध राज्य की सरकार को चुकायेगी। यदि बसों में भर-भर कर उन्हें भेजा जायेगा तो कोराना से बचने का हथियार ही टूट जायेगा।
फिर लाॅकडाउन का क्या अर्थ रह जायेगा? यह संकट का समय है जो महामारी की वजह से पैदा हुआ है। इसका मुकाबला अगर केरल से लेकर बिहार की सरकारें एकजुट होकर नहीं करेंगी तो फिर कोराना कैसे रुकेगा? इसके साथ ही इन प्रवासी राज्यों के कामगारों के हित में देश के सभी सांसद व विधायक अपनी सांसद निधि का उपयोग करें तो समस्या को समाप्त करना मुश्किल नहीं होगा। सांसदों व विधायकों की जो भी बची हुई सांसद निधि है उसका बंटवारा इन्हीं लोगों को सुरक्षा देने में किया जा सकता है। हमें जिन्दगी को हरकत में रखना है और घरों में बन्द रखते हुए रखना है। यही तो चुनौती है जो स्वतन्त्र भारत में पहली बार दर-पेश है और इसकी ‘प्लानिंग को पलायन’ पीछे धकेलता सा लग रहा है। हमें अपने होश इस तरह कायम रखने हैं कि जल्लाद भी गश खाकर गिर पड़े।