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क्रिकेट बोर्ड : सूचना की कटारी पड़ेगी भारी

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भारतीय क्रिकेट बोर्ड विश्व का सबसे अमीर बोर्ड है। उसका बजट ही अरबों रुपए का है। यह बोर्ड अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद से सम्बद्ध है। इसका गठन 1928 में हुआ और यह एक ऐसी संस्था है जिसे भारत सरकार संरक्षण देती है। क्रिकेट बोर्ड का मुख्य काम है भारत में होने वाले खेल टूर्नामेंटों का नियंत्रण करना और उनका आयोजन करवाना और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में भारत के खिलाड़ियों, जो भारत की ओर से खेलते हैं, का भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करना। 1928 से लेकर अब तक सर सिकंदर हयात खान, सरदार सुरजीत सिंह मजीठिया, एम.ए. चिदम्बरम, पी.एम. रुंगटा, एन.के.पी. साल्वे, माधवराव सिंधिया, आई.एस. बिन्द्रा, जगमोहन डालमिया, शरद पवार जैसी कई हस्तियां बोर्ड की अध्यक्ष रहीं। जैसे-जैसे क्रिकेट लोकप्रिय होता गया वैसे-वैसे क्रिकेट बोर्ड शक्तिशाली होता गया। बोर्ड का अध्यक्ष या अन्य पद सत्ता और शक्ति का प्रतीक बनते गए। क्रिकेट के क्लब संस्करण के रूप में परिवर्तित होने के बाद तो क्रिकेट बोर्ड पर धन की वर्षा होने लगी। कुबेर के खजाने पर कौन नहीं बैठना चाहेगा।

कालांतर में क्रिकेट बोर्ड में कई विसंगतियां आती गईं। बहुत कुछ ऐसा रहा जो कि देशवासियों की नजरों से ओझल रहा। क्रिकेट बोर्ड के पदाधिकारियों ने पद पाकर न केवल सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल की बल्कि उसका इस्तेमाल राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए भी किया।​ क्रिकेट में सट्टेबाजी, पदाधिकारियों के सटोरियों से रिश्ते, मैच फिक्सिंग, खिलाड़ियों के चयन को लेकर भेदभाव के कई मामले सामने आए। पारदर्शिता के अभाव में सब कुछ चलता रहा। राज्य क्रिकेट संघों पर बरसों राजनीतिज्ञ जमे रहे आैर उन्होंने संघों को अपनी जागीर मान लिया। उन्होंने खेल के नाम पर विदेशी दौरों का खूब मजा लिया। मामला शीर्ष अदालत तक पहुंचा तो उसने अपना चाबुक चला ही दिया। जस्टिस लोढा समिति की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी पर अनुराग ठाकुर और अन्य पदाधिकारियों को क्रिकेट बोर्ड से चलता किया गया। अब भारतीय क्रिकेट बोर्ड की मुसीबत आैर बढ़ गई है। विधि आयोग ने सिफारिश की है कि भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाया जाए। विधि आयोग का कहना है कि यह लोक प्राधिकार की परिभाषा में आता है आैर यह सार्वजनिक जांच से बच नहीं सकता।

लोकतंत्र में जहां कहीं भी जनता के पैसे का इस्तेमाल होता है, उसकी सार्वजनिक निगरानी तो होती ही है। ऐसी निगरानी नहीं होने से भ्रष्टाचार विस्तार पा लेता है। यद्यपि बोर्ड को निजी संस्था माना जाता है लेकिन इसे जवाबदेह बनाए जाने की जरूरत है। विधि आयोग ने यह भी कहा कि इसे सरकार से हजारों करोड़ रुपए की कर छूट और भूमि अनुदान के रूप में अच्छा-खासा वित्तीय लाभ मिलता है तो इसे आरटीआई के दायरे में लाया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 में विधि आयोग को इस बारे में सिफारिश करने के लिए कहा था कि क्रिकेट बोर्ड को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाया जा सकता है या नहीं। पारदर्शिता लाने के लिए मालामाल क्रिकेट बोर्ड को आरटीआई के तहत लाने की लम्बे वक्त से मांग होती रही है। बोर्ड नेे इस सिफारिश पर बड़ी ठण्डी प्रतिक्रिया दी है। बोर्ड का कहना है कि विधि आयोग का निष्कर्ष केवल सिफारिश है, फैसला सरकार को करना है। देखना है कि संसद इस पर क्या फैसला लेती है।

विधि आयोग ने एक महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह कि बोर्ड उसके एकाधिकार वाले चरित्र तथा कामकाज की लोक प्रवृत्ति के कारण निजी संस्था माना जाता है, फिर भी उसे लोक प्राधिकार मानकर आरटीआई के दायरे में लाया जा सकता है। बोर्ड ने तर्क दिया है कि भारतीय टीम की यूनिफार्म में राष्ट्रीय रंग मौजूद है और उनके हेलमेट पर अशोक चक्र लगा रहता है। बोर्ड लगभग राष्ट्रीय खेल संघ की तरह काम करता है। जब अन्य खेल संघ आरटीआई के दायरे में आते हैं तो बीसीसीआई को इससे बाहर क्यों रखा जाए। यदि सरकार बोर्ड को आरटीआई के दायरे में लाने का फैसला करती है तो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट उसके संविधान की जांच कर सकेंगे। बोर्ड के क्रियाकलापों, खिलाड़ियों के चयन, आईसीसी या दूसरे क्रिकेट बोर्डों के साथ होने वाले अनुबंधों आदि के सम्बन्ध में जन​िहत याचिका लगाई जा सकेगी। इसके अलावा प्रसारण समेत बाकी अधिकारों की नीलामी आदि के मामले में भी जनहित याचिका लगाई जा सकेगी। उम्मीद है कि सरकार इस दिशा में आगे बढ़ेगी। कुल मिलाकर सूचना की कटारी बोर्ड को भारी पड़ने वाली है।

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